४५३ २६४
अन्यत्र च (भा० ६।२।११) -
(२६४) “न निष्कृतैरुदिते ब्रह्मवादिभिः स्तथा विशुध्यत्यधवान् व्रतादिभिः ।
यथा हरेर्नामपदैरुदाहृते-, स्तदुत्तमश्लोक गुणोपलम्भकम् ॥ “७८७ ॥
अर्थात् वह सब गुण विद्यमान होने से ही नाम ग्रहण का अधिकारी होगा। ऐसा नहीं है । कारण, भक्ति मात्र ही निरपेक्ष है, अर्थात् अन्य अपेक्षाशून्य है । अतएव सर्व साधन शिरोमणि श्रीनाम सङ्कीर्त्तन जो अन्य अपेक्षा शून्य ही है, इस विषय में कहना ही क्या है ? श्रीविष्णु धर्मोत्तर ग्रन्थ में सर्व पातक अतिपातक महापातक कारी द्वितीय क्षत्रबन्धु के उपाख्यान में उक्त है-
“यद्येतदखिलं कत्तु न शक्नोषि ब्रवीमि ते ।”
स्वल्पमन्यन्मयोक्तं भो करिष्यति भवान् यदि ॥७८४
ब्राह्मण बोले- हे राजन् ! मैंने जो कुछ साधन कहा, उस को करने में यदि अक्षम हो तो मैं अन्य अल्प साधन का उल्लेख करता हूँ । यदि आप उस का अनुष्ठान करें। उत्तर में क्षत्र बन्धु ने कहा-
“अशक्यमुक्त’ भवता चञ्चलत्वाद्धि चेतसः ।
वाक्शरीरविनिष्पाद्य यच्छक्यं तदुदीरय ॥७८५॥
आप ने जिन साधनों का उल्लेख किया है, चित्त चाञ्चल्य हेतु उन सब का अनुष्ठान करना मेरे पक्ष में अशक्य प्रतीत है यदि वाक्य एवं मनः के द्वारा निष्पाद्य कोई साधन हो तो में उसका अनुष्ठान करु सकता हूँ । उसका वर्णन ही आप करे । बाह्मण बोले थे-
“उत्तिष्ठता प्रस्वपता प्रस्थितेन गमिष्यता ।
गोविन्देति सदा वाच्यं क्षुत्तृप्रस्खलितादिषु ॥“७८६॥
हे राजन् ! उठते, सोते, चलते, कहीं जाते, भूक, पियास में, गिरने में, सब समय “गोविन्द” “गोविन्द” इस प्रकार कीर्तन करें । कथन का तात्पर्य यह है कि श्रीहरिनाम कीर्तन में देश काल पात्र अथवा अवस्था विशेष की अपेक्षा नहीं है ।
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अन्यत्र भी वर्णित है - (भा० ६।२।११)
श्रीकवि - विदेह को कहें थे ॥ २६३॥
(२६४) “न निष्कृतैरुदितैब्रह्मवादिभिस्तथा विशुध्यत्यघवान् व्रतादिभिः ।
यथा हरेर्नामपदैरुदाहृतै, स्तदुत्तमश्लोकगुणोपलम्भकम् ॥ ७८७॥
टीका-श्रेष्ठत्वमेवोपपादयन्ति नेति द्वाभ्याम् । ब्रह्मवादिभिर्मन्वादिभिरुक्तं व्रतादिभि निष्कृतैस्तथा
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न च पापविशोधन-मात्रेणापक्षीयते तन्नामपदोदाहरणम्, किन्तु गुणानामप्युपलम्भकमनुभव हेतु
भवति ॥ श्रीविष्णुदूता यमदूतान् ॥