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फलत्वदमेव यदाह (भा० १११२२४०)

(२६३) “एवंत्रतः स्वप्रियनामकी जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः ।

हसत्यथो रोदिति रौति गाय, -त्युन्मादवन्नृत्यति लोकवाह्यः ॥ ७८२॥

एवं (भा० ११।२।३६) " शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेः” इत्याद्य क्तप्रकारं व्रतं वृत्तं यस्य तथाभूतोऽपि स्वप्रियाणि स्वाभीष्टानि यानि नामानि तेषां कीर्त्तनेन जातानुरागस्तत एव होती है । अन्य प्रायश्चित्तानुष्ठान करने से ‘मैं निष्पाप हूँ । इस प्रकार अभिमान हृदय में होता है । श्रीहरिनाम कीर्तन प्रायश्चित्त का महत्व यह है कि जो श्रीहरि नाम कीर्त्तन करता है, उस के हृदय में श्रीविष्णु का अनुसन्धान न होने पर भी अर्थात् मैं श्रीविष्णु का नाम ग्रहण कर रहा हूँ,

इस प्रकार मानसिक अनुसन्धान न होने पर भी नामोच्चारण कारी व्यक्ति की कथा का स्मरण श्रीविष्णु हो करते हैं । यह जब मेरा नाम कर रहा है तब यह मेरा हो दास है, दास की रक्षा करना मेरा ही कर्त्तव्य है । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि- भगवद् विस्मृति हो निखिल दोष का आकार है, श्रीभगवत् स्मृति का उदय हृदय में होने के कारण यही श्रेष्ठ प्रायश्चित्त है । यह श्रीनाम सङ्कीर्तन ही श्रीभगबान को स्वरूप भूत वस्तु है । कारण, श्रीनाम सङ्कीर्तन से भगवान् में स्वाभाविक आवेशोदय होता है । नाम के एक देश श्रवण से भी परम भागवत वृन्द में प्रीत्युदय होता है । पाद्मोत्तर खण्ड के श्रीरामाष्टोत्तरशत नामस्तोत्र में श्रीशिव वाक्य यह है-

" रकारादीनि नामाणि श्रृण्वतो देवि जायते ।

प्रीतिर्मे मनसो नित्यं रामनाम विशङ्कया ॥ ७८१॥

हे देवि ! रकारादि नाम श्रवण करने से राम नाम सम्भ्रम से मेरा नित्य ही मानसिक आनन्दोदय होता है । अतएव शास्त्र में श्रीनाम का इस प्रकार माहात्म्य वर्णित है । केवल मात्र पाप नाश कारित्व रूप कार्य श्रीनाम के पक्ष में अतितुच्छ है ।

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श्रीविष्णु दूतगण यमदूत वृन्द को कहे थे ॥२६२॥

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भगवन्नाम सङ्कीर्तन का मुख्य फल है-अभीष्ट श्रीभगवान् के चरणों में परम प्रेम लाभ

( भा० ११।२।४० ) में उक्त है-

(२६३) “एवंव्रतः स्वप्रियनामको, जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चः ।

हसत्यथो रोदिति रौति गाय,–त्युन्मादवन्नृत्यति लोक वाह्यः ॥ " ७८२ ॥

श्रीकवि योगीन्द्र निमिमहाराज को कहे थे - हे राजन् ! जो रथाङ्ग पाणि श्रीभगवान् के सुमङ्गल जन्म कर्म एवं नाम का श्रवण कीर्तन,–लोक लज्जारहित होकर करता है, वह लोकापेक्षा शून्य होकर विचरण करता है । यद्यपि भा० ११।२।२६ में उक्त “श्रृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेः” यह पूर्वोक्त प्रकार से नियम धारण ही मानव जीवन का अवश्य कर्त्तव्य रूप में निद्दिष्ट हुआ है। तथापि “स्वप्रियनाम की अर्थात् निजाभीष्ट परम प्रिय जो नाम समूह हैं, अथवा उन नाम समूह के मध्य में जो सब नाम निज दास्यादि भाव पोषक है, उन सब नाम कीर्तन के द्वारा ही निज अभीष्ट देव के चरणों में अनुराग अर्थात्

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श्रीभक्तिसन्दर्भ चित्तद्रवाद् द्रुतचित्तः, तत्रोचित-भाववै चित्त्रीभिर्ह सतीत्यादि । अत्र तृतीयाश्रुत्या नामकीर्त्तनस्यैव साधकतमत्वं लब्धम् । तदेवम् ‘एवव्रतः’

। तदेवम् ‘एवव्रतः’ इत्यत्रापि शब्दोऽप्यध्याहृतः । अतएव (भा० ११।२।४२) “भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिः” इत्याद्य ुत्तरपद्य े टीकाचूर्णिका-“नन्वियमाख्ढ़- योगिनामपि बहुजन्मभिदुर्लभा गतिः कथं नामकीर्त्तनमात्रे नेकस्मिन् जन्मनि भवेदित्याशङ्कय सदृष्टान्तमाह, - भक्तिरिति” इत्येषा । इत्थमुत्थापितश्च श्रीभगवन्नाम कौमुद्यां सहस्रनाम- भाष्ये च पुराणान्तर- वचनम् -

“नक्त ं दिवा च गतभीजितनिद्र एको, निर्विण्ण ईक्षितपथो मितभुक् प्रशान्तः ।

यद्यच्युते भगवति स मनो न सज्जे, नामानि तद्रतिकराणि पठेदलज्जः ॥ ७८३ ॥ इति ।

अत्र गतभीरित्यादयो गुणा नामैकतत्परता-सम्पादनार्थाः, न तु कीर्तनाङ्गभूताः । भक्ति

भाव प्रेमोदय दाता है, प्रेमोदय होने से उत्कण्ठारूप अग्नि द्वारा जाम्बूनद रूप चित्त विगलित हो जाता है । उस विगलित चित्त का अनुभाव अर्थात् कार्य्य- कभी ह स्य, उच्चशब्द, गान, एवं उन्मत्त के समान नृत्य होता है । यह सब प्रेम के अनुभव का कार्य्य होते हैं। इस श्लोक में “लोक बाह्यः” पद प्रयोग के द्वारा सूचित हुआ है कि-वह प्रेमवात् भक्त, लोक से अनुमोदन प्राप्त करने के निमित्त अथवा प्रशंसालाभ हेतु नृत्य, रोदन, ग.न, हास्य नहीं करता है । कारण, वह लौकिक निन्दा प्रशंसा के वहिर्जगत में अर्थात् निज स्वरूप में आविष्ट है । उक्त श्लोक में “स्वप्रियनामकीय” पद प्रयोग के द्वारा व्यक्त हुआ है कि- भगवत् प्रेम प्राप्ति हेतु शास्त्र में अनेक प्रकार साधनों का उल्लेख होने पर भी श्रीनाम सङ्कीर्त्तन ही समस्त साधनों के मध्य में मुख्यतम उपाय है । उक्त श्लोक में “एवंव्रतः’ पद के पश्चात् ‘अपि’ शब्द का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसका अध्याहार करना आवश्यक है । अर्थात् इस प्रकार नियम होने पर भी श्रीहरिनाम सङ्कीर्त्तन हो भगवत् प्रेम प्राप्ति का मुख्य प्रापक है ।

अतएव भा० ११।२।४१ भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिः " इस श्लोक की टीका के आक्षेप वाक्य में लिखित है-

“नन्वियमारूढ़योगिनामपि बहु जन्मनि दुर्लभा गतिः कथं नाम सङ्कीर्तन मात्रेण एकस्मिन् जन्मनि भवेदित्याशङ्कय सदृष्टान्तमाह-भक्तिरिति ।

आरूढ़ योगी महापुरुष वृन्द के पक्ष में जो अवस्था दुष्प्राप्य है, वह अवस्था श्रीहरिनाम सङ्कीर्त्तन के द्वारा एक जन्म में ही कैसे सम्भव होगी ? उस के उत्तर में स दृट्टान्त कहते हैं- ‘भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिः” जिस प्रकार भोजन में प्रवृत्त मानव का प्रतिग्रास से उदर भरण, मनः सन्तोष, क्षुधा निवृत्ति युगपत् होती है, उस प्रकार हो श्रीभगवत् चरणों में शरणागत जनका भजनानुरूप भगवत् अनुभव, भगवत् प्रीति, एवं विषय वैराग्य एक साथ हो उपस्थित होते हैं । इस रीति से ही श्रीभगवन्नाम कौमुदी में सहस्र नाम भाष्योक्त पुराणान्तर का वचन उद्धृत हुआ है ।

“नक्तं दिवा च गतभोजितनिद्र ऐको, निर्विण्ण ईक्षितपथो मितभुक् प्रशान्तः ।

यद्यच्युते भगवति स मनो न सज्जे, -नामानि तद्रतिकराणि पठेदलज्जः ॥ ७८३॥

दिन अथवा रात्रि - उभय काल में ही निर्भय, जितनिद्र, निःसङ्ग निर्विष्ण, आध्यात्मिक दृष्टि युक्त, मितभुक्, एवं प्रशान्त होकर भी अच्युताख्य श्रीभगरान् में मानसिक आसक्ति नहीं होती है तो, उच्चैःस्वर से श्रीहरिनाम ग्रहण करना चाहिये । उक्त श्लोक में “गतभीः” प्रभृति गुण समूह का जो उल्लेख दृष्ट होता है, वह सब श्रीनाम सङ्कीर्त्तन के अङ्ग वा हेतु नहीं हैं, किन्तु श्रीनाम ग्रहण में तत् परता सम्पादक हैं ।

श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[५३१]]

मात्रस्य निरपेक्षत्वम्, तस्य तु सुतरां तादृशत्वमिति, यथा विष्णुधर्मे सर्व्वपातकातिपातक- महापातक कारि-द्वितीय क्षत्रबन्धूपाख्याने “ब्राह्मण उवाच -

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यद्य ेतदखिलं कत्तु न शक्नोषि ब्रवीमि ते । स्वल्पमन्यन्मयोक्तं भो करिष्यति भवान् यदि ॥७८४॥ क्षत्रबन्धुरुवाच -

अशक्रमुक्तं भव॥ चञ्चलत्वाद्धि चेतसः । वाक्शरीर विनिष्पाद्य यच्छक्यं तदुदीरयः ॥ ७८५॥

ब्राह्मण उवाच -

उत्तिष्ठता प्रस्वपता प्रस्थितेन गमिष्यता । गोविन्देति सदा वाच्यं क्षुत्तृट्प्रस्खलितादिषु ॥ ७८६॥ इति ॥ श्रीकविविदेहम् ॥