४४८ २६२
अत्रैवं विवेचनीयम्, - श्रीभगवन्नामादेः श्रवणं तावत् परम श्रेयः, तत्राषि महदाविर्भावित प्रबन्धादेः, तत्र महत्व मानस्य, ततोऽपि श्रीभागवतस्य तत्रापि च महद- भागवत के शब्द समूह महाप्रभावमय एवं परम रसमय हैं। तन्मध्ये श्रीमद् भागवत के शब्द समूह जो परम प्रभावमय हैं उसका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं - भा० ११११२ में उक्त है -
(२६०) “श्रीमद्भागवते महामुनि-कृते किंवा परैरीश्वरः ।
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥ ७७८
टीका - कर्त्तृतोऽपि श्रबुधमाह - महामुनिः श्रीनारायण, तेन प्रथमं संक्षेपतः कृते । देवताकाण्ड विषयगत श्रेष्ठयमाह कि वेति । परेः शास्त्रः, तदुक्तसाधनं ईश्वरो हृदि कि वा सद्य एव बस्थ्यते । ननु इदमेव तर्हि किमिति सर्वे न शृण्वन्ति ? तब है कृतिभिरिति । श्रवणेच्छा तु पुण्यविना नोत्पद्यत इत्यर्थः । तस्मादत्र काण्डत्रयार्थस्यापि यथावत् प्रतिपादनादिदमेव सर्वशस्त्रेभ्यः श्रेष्ठम् । अतो नित्यमेतदेव श्रोतव्यमिति भावः ।
जिन के श्रीचरण पङ्कज युगल की आराधना महापुरुष दृन्द करते रहते हैं, उन महामुनि भगवान् श्रीनारायण के द्वारा यह श्रीमद् भागवत आविर्भावित है । इस में इस प्रकार प्रभावमय शब्द एवं परम आस्वादन है, जिस से श्रवण समकाल में ही सद्यः हृदय में परमेश्वर अवरुद्ध होते हैं । अपर शास्त्र श्रवण वा साधन के द्वारा क्या सद्यः, हृदय में परमेश्वर अवरुद्ध होते हैं ? इस प्रकार भक्ति द्वारा श्रीमद् भागवतीख शब्द का स्वाभाविक माहात्म्य प्रदर्शित हुआ ।
प्रवक्ता श्रीव्यास हैं ॥ २६० ॥
४४९ २६१
श्रीमद् भागवत के ११११३ १४ में उक्त है-
(२६१) “सर्व्ववेदान्तसारं हि श्री भागवतमिष्यते ।
तद्रसामृततृप्तत्य नान्यत्र स्यादूतिः क्वचित् ॥” ७७६॥
टोका - तद्रस एवामृतं तेन तृप्तस्य निर्वृतस्य ।
श्रीसूत, शौनकादि ऋषिवृन्द को कहे थे– ‘सर्व वेदान्तसारं हि श्रीभगवतमप्यते’ यह श्रीमद् भागवत, सर्व वेदान्त सार है । श्रीमद् भागवत सुधा से जो परितृप्त हैं, उन की प्रीति अन्यशास्त्र वा साधन में नहीं होती है। इस प्रकार उक्ति के द्वारा श्रीमद् भागवतास्वादन की गढ़ता प्रदर्शित हुई है ।
प्रवक्ता श्रीसूत हैं । २६१ ॥
४५० २६२
यहाँपर इस प्रकार विवेचना करनी चाहिये । प्रथमतः श्रीभगवत् नाम, रूप, गुण, लीला
श्रीभक्तिसन्दभः
[[५२७]]कीर्त्यमानस्येति । अत्र (भा० ११।३।४०) “मूर्त्याभिमतयात्मनः” इतिवत् निजाभीष्ट नामादि- श्रवणन्तु मुहुरावर्त्तयितव्यम्, तत्रापि सवासन- महानुभावमुखात् । सर्व्वस्य श्रीकृष्णनामादि श्रवणन्तु परमभाग्यादेव सम्पद्यते, तस्य पूर्णभगवत्त्वादिति एवं कीर्त्तनादिष्वप्यनुसन्धेयम् । तत्र यत् स्वयं सम्प्रति कीर्त्यते तदपि श्रीशुकदेवादि महत् कीत्तितचरत्वेनानु-सन्धाय कीर्त्तनीयमिति ।
तदेवं श्रवणं दर्शितम्, अस्य च कीर्त्तनादितः पूर्व्वत्वम्, तद्विना तदज्ञानात् । विशेषतश्च यदि साक्षादेव महत्कृतस्य कीर्त्तनस्य श्रवणभाग्यं न सम्पद्यते तदैव स्वयं पृथक् कीर्त्तनीयमिति,
एवं परिकर का श्रवण ही परम प्रेयस्कर है। उस के मध्य में महत् कर्त्ता के आविर्भावित प्रबन्ध प्रभृति का श्रवण, अत्यधिक मङ्गल जनक है। यदि महदाविर्भावित प्रबन्धादि महत् कर्तृके कीर्त्यमान होते हैं तो उस का माहात्म्य अधिक है, उस में भी श्रीमद् भागवत का माहात्म्य अधिक है । श्रीमद् भागवत्, महत् कर्तृक कीर्तित होने पर और भी अधिक मङ्गल प्रद हैं । यहाँ श्रीभगवन्नाम रूप प्रभृति का श्रवण सम्पर्क में विशेष जानना आवश्यक है । भा० ११।३।४० में उक्त है–
“लब्धानुग्रह अचार्य्यात् तेन सन्दर्शितागमः ।
मह पुरुषमभ्यर्चेत् मूत्यभिमतयत्मनः ॥
टीका - तदेव विधिमाह लब्धानुग्रह इत्यादिना । तेन आचार्येन सन्दशितः आगमो अर्चन प्रकारो यस्य सः ।
श्रीगुरुदेव के समीप से दीक्षा रूप कृपा प्राप्त करने के पश्चात् - श्रीगुरुदेव, महापुरुष श्रीभगवान् की अच्चना करने की पद्धति का जिस प्रकार उपदेश देते हैं, उस रीति से अच्चन करना चाहिये। जिस मूर्ति की अच्चा की जायेगी, वह निजाभिमत मूर्ति होनी चाहिये। कारण, उस से मन प्राण का आकर्षण समधिक होता है। श्री भगवन्नामादि के सम्बन्ध में भी इस प्रकार ही जानना होगा। अर्थात् निज अभीष्ट देव के नाम रूप प्रभृति की वारम्बार आवृत्ति करना कर्त्तव्य है । उस नामादि का श्रवण यदि स्वजातीय वासना विशिष्ट महानुभव के मुख्य से होता है तो अधिक आस्वादन प्रद होता है। किन्तु समस्त प्रकार साधक के पक्ष में श्रीकृष्णनाम रूप गुणादि श्रवण ही श्रेष्ठतम है। अथच यह श्रीकृष्ण नामादि श्रवण भी परम सौभाग्य सापेक्ष्य है । इस अभिप्राय से ही भा० १११ २ श्लोक में अर्थात् धर्मः प्रोज्झित कैतवः " श्लोक में श्रवण कारी का विशेषण ‘कृतिभिः’ दिया गया है । अर्थात् जिस का साधुसङ्ग रूप सौभाग्य है, उस की ही रुचि श्रीकृष्ण नामादि श्रवण कीर्तनादि में होती है। कारण, श्रीकृष्ण-पूर्ण भगवान् हैं। पूर्ण भगवान् में समस्त भगवान् की सत्त विद्यमान है । श्रीकृष्ण नाम रूपादि श्रवण करने से समस्त भगवान् के ही नाम रूपादि का श्रवण सम्पन्न होता है । इस प्रकार कीर्तनाङ्ग भक्ति के सम्बन्ध में भी जानना होगा । तन्मध्ये सम्प्रति स्वयं के द्वारा जो कीर्तन होता है, उस का कीर्तन, श्रीशुक देव प्रभृति महानुभवगण ने पहले किया है । इस प्रकार अनुसन्धान करके ही कीर्तन करना कर्तव्य है । इस रीति से श्रवणाङ्ग का वर्णन हुआ। यह श्रवणाङ्ग भक्ति कीर्त्तनादि भतय के पूर्व में उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि-श्रीगुरुमुख से जिस का श्रवण नहीं हुआ है, उस विषय में सम्यक् बोध हो ही नहीं सकता । अथच रस का अविरोधी सिद्धान्त का ज्ञान सम्यक् रूप से न होने से एवं स्वतन्त्र रूप से कीर्त्तनादि का अनुष्ठान होने पर रसाभास विरुद्धार्थ प्रभृति दोष होने की सम्भावना होती है । विशेषतः यदि साक्षात् सम्बन्ध में किसी महत् कर्त्तृक कीर्त्तित
[[५२८]] तत्प्राधान्यात् । अतएवोक्तम् (भा० १ २ ११) “तवाग्विसर्गों जनताद्यविप्लवः” इत्यादी, टीकाकृद्भिः " यत् यानि नामानि वक्तरि सति शृण्वन्ति, श्रोतरि सति गृणन्ति, अन्यदा तु स्वयमेव गायन्ति " इति । अथातः कीर्त्तनम्, तत्र पूर्व्ववन्नामादिक्रमो जयः । नाम्नो यथ
(भा० ६ारा१०)–
(२६२) “सर्वेषामप्यघवतामिदमेव सुनिष्कृतम् ।
नामव्याहरणं विष्णोर्य तस्तद्विषया मतिः “७८०॥
[[17]]
टीका च “सुनिष्कृतं श्रेष्ठ प्रायश्चित्तमिदमेव । तत्र हेतुः-यतो मामव्याहरणात् तद्विषया नामोच्चारक पुरुषविषया मदीयोऽयं मया सर्वतो रक्षणीय इति विष्णोर्मतिर्भवति’ इत्येषा । अतः स्वाभाविक- तदीयावेशहेतुत्वेन तदीयस्वरूपभूतत्वात् परमभागवतानां तदेक-
GER PER
श्रीकृष्ण नाम किंवा श्रीमद् भागवतादि शास्त्र श्रवण करने का सौभग्य उपस्थित नहीं होता है । तो स्वयं ही पृथक कीर्तन करना चाहिये । कारण, महत् कीर्तित श्रीमद् भागवत एवं श्री कृष्ण नामादि श्रवण का हो प्राधान्य है । भा० १।५।११ में तज्जन्य ही कथित है –
“तवाग्विसर्गो जनताघ विप्लवः,
यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि । नामान्यनन्तस्थ यशोऽङ्कतानि यत्
श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ "
टीका-विनापि पद चातुथ्यं भगवद् यशः प्रधानं वाचः पवित्रमित्याह तवाग् विसर्ग इति । सचास बाग विसर्गश्च वाचः प्रयोगः । जनानां समूहो जनतास्या अद्यं विप्ल बयति नाशयतीति तथा यस्मिन बाग विसर्गेऽवद्ववत्यपि अपशब्दादि युक्तेऽपि प्रतिश्लोकम् अनन्तस्य यशसा अङ्कितानि नामानि भर्वा त । तत्र हेतुः, यत् यानि नामानि साधवो महान्तः वक्तरि सति शृण्वन्ति, श्रोतरि सति गुणन्ति । अन्यदातु स्वयमेक गायन्ति, कीर्तयन्तीति ।
सद्वक्ता उपस्थित होने पर स्वयं श्रोता होकर श्रवण करे । एवं सद्वक्ता उपस्थित न होने पर एक श्रोता उपस्थित होने से स्वयं वक्ता होकर श्रीभगवन्नामानि कीर्तन करे । और यदि श्रोता एवं बक्ता कह अभाव हो तो स्वयं ही श्रीहरिनाम गान करे । अनन्तर कीर्त्तनाङ्ग का वर्णन करते हैं । उस के मध्य में श्रवणाङ्ग भक्ति के समान कीर्त्तनाङ्ग का क्रम भी जानना होगा । भा० ६।२/१० में नाम कीर्तनमाहात्म्य मणित है-
(२६२) “सर्वेषामप्यघवतामिदमेव सुनिष्कृतम् ।
नामव्य हरणं विष्णोर्यतस्तद्विषया मतिः ॥ " ७८० ॥
श्लोकोक्त स्वामि पाद कृत टीका का तात्पर्य यह है-श्रीविष्णु का नाम कीर्तन पातक उपपातक अति पातक महापातक प्रभृति सर्वविध पाप का श्रीनाम सङ्कीर्तन ही परम पवित्र प्रायश्चित्त है । कारण, श्रीहरिनाम उच्चारण कारी पुरुष के प्रति ‘यह व्यक्ति मेरा ही है, सर्व प्रकार से रक्षा करना मेरा ही कर्तव्य हैं’ इस प्रकार मति श्रीविष्णु की होती है। अभिप्राय यह है कि शास्त्रान्तर में उल्लिखित प्रायश्चित्त के द्वारा पाप परिहार होता है, किन्तु हृदय शोधन वा श्रीविष्णु स्मृति हृदय में उद्बुद्ध नहीं
[[५२६]]
देशश्रवणमपि प्रीतिकरम् यथा पाद्मोत्तरखण्डे श्रीरामाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रे श्री शिववावयम्-
“रकारादीनि नामानि शृण्वतो देवि जायते । प्रीतिमें मनसो नित्यं रामनाम- विशङ्कया ॥ ७८१॥ इति । तदेवं सति पापक्षयमात्रं लक्षण कियदिति भावः ॥ श्रीविष्णुदूता यमदूतान् ॥