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तत्रापि श्रवणे श्रीभागवत-श्रवणन्तु परमश्र ेष्ठम्, तस्य तादृशप्रभावमय-शब्दात्म- कत्वा ] परमरसमयत्वाञ्च तत्र पूर्व्वस्माद्यथा ( भा० ११ १२)
टीका - ननु साधु सङ्ग विना स्वयमेव हरिकथा चिन्तनादिना भक्तिर्भवेदेवेत्याशङ्कयाह–द्वाभ्याम् । तस्मिन् स्थाने महद्भिम्मुखारिताः कीर्त्तिताः । मधुभिश्चरित्रमेव पीयूषं तदेव शिष्यत इति शेषो यासु, असारांशरहिताः शुद्धामृतवाहिय स्वर्थ । अवितृषः, अहंबुद्धि शून्याः सन्तः, गाढ़ेः सावधानैः कर्णयताः सरितः पिबन्ति सेवन्ते, अशन शब्देन क्षुल्लक्ष्यते, अशनादयस्तान् न स्पृशक्ति भक्ति रसिकान् न बाधन्त इत्यर्थ ॥
श्रीनारद, प्राचीन र्वाहः को कहे थे - हे राजन् ! कतिपय व्यक्ति मानते हैं कि - साधुसङ्ग व्यतीत स्वयं ही श्रीहरि कथा चिन्तनादि द्वारा श्रीभगवान् में प्रेम भक्ति का उदय होता है, यह अत्यन्त असम्भव है । श्रीहरि लीला कथा सुधाभिन्न अन्य प्रसङ्ग जिस में नहीं है, इस प्रकार श्रीहरि कथा सुधा जिस साधु समाज में प्रवाहित होती है, वहाँ उपवेशन करके जो अवहित कर्ण के द्वारा अलं प्रवृत्ति शून्य होकर श्रीहरि नाम सुधा पान करते हैं, उन सब को क्षुधा पिपासा भय शोक मोह स्पर्श करने में समर्थ नहीं हैं । तम्मित् शब्द से साधु सङ्ग में, महद्भिर्मुखरिताः - शब्द से कीर्तिताः, शेषः शब्द से सारः, अवितृषः शब्द से अलंबुद्धि शून्य, गाढ़ शब्द से सावधान होकर, अशन शब्द से क्षुधा को जानना होगा ।
भा० ४।२६।४१ में भी उक्त है-
(२५६) “एतैरुपद्र तो नित्यं जीवलोकः स्वभावजैः ।
न करोति हरेनूनं कथामृतनिधौ रतिम् ॥”७७७॥
टीका - सत्सङ्ग मन्तरेण स्वयमेव कथा चिन्तनादावालस्यादिना रसावेश भावाच्च क्षुत् भिभूतस्य भक्ति नं सम्भवतीत्य ह एतेरिति ।
पिपासः द्य
देहाभिमानी के पक्ष में स्वभावजात जो क्षुधा, तृष्णा, भय, शोक, मोह प्रभृति हैं, उस के द्वारा उत्पीड़ित होकर जो श्रीभगवान् की कथा सुधा में प्रीति नहीं करता है, वह यदि महत् द्वारा कीर्त्यमान श्रीभगवद् यशोगाथा का श्रवण करता है तो उस से क्षुधा तृष्णा प्रभृति का आवेश प्रथमतः विदूरित होता है, अनन्तर श्रवण कारी के हृदय में भगवन्माधुय्र्थ्यास्वादन होता है । भगवत् कथा श्रवण का यही माहात्म्य है, उक्त श्लोक द्वय का यही तात्पर्य है ।
श्रीनारद प्राचीन बहिः को कहे थे ॥ २५८-२५६॥
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श्रीभगवत् कथा श्रवण के मध्य में भी श्रीभागवत श्रवण ही परम श्रेष्ठ है । कारण, श्रीमद्
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(२६०) “श्रीमद्भागवते महामुनि-कृते किंवा परैरीश्वरः ।
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥” ७७८ ॥
महामुनिः सर्व्वमहन्महनीय चरणपङ्कजः श्रीभगवान् । अत्र किंवा परं रत्यादिना इ.ब्द- स्वाभाविक माहात्म्य दर्शितम् ॥ श्रीव्यासः ॥