२५७

४४३ २५७

यथा वा (भा० १।१।३) “निगमकल्पतरोर्गलितं फलं, शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् " अपेक्षणीय है। कारण, श्रीनाम श्रण मे जिस प्रकार अन्तः करण शुद्ध होता है, उस प्रकार अपर भक्तयङ्गः अनुष्ठान से नहीं होता है । विशेषतः चित्त शुद्धि न होने से रूप श्रवण द्वारा रूप की उदय योग्यता हो ही नहीं सकती है ।

जिस प्रकार दर्पण निर्मल होने से रूप प्रति फलन की योग्यता होती है, उस प्रकार चित्त निर्मल होने से अर्थात् भगवद् भिन्न विषयान्तर में आवेश शून्य होने पर भगवद् रूपोदय की योग्यता होती है । अतएव कहा गया है - “शुद्धे चान्तः करणे रूप श्रवणेन तदुदय योग्यता भवति” सम्यक् रूप से भगवद् रूपोदय हृदय में होने से श्रीभगवान् के भक्त वात्सल्यादि गुण की स्फूत्ति योग्यत्ता सम्पन्न होती है, तत् पश्चात् नाम रूप, गुण, एवं परिकर वृन्द की सम्यक् स्फूत्ति होने से ही हृदय में लीला स्फुरण की सम्यक् योग्यता होती है । इस अभिप्राय से ही साधन क्रम लिखित हुआ है ।

के

इस रीति से ही कीर्तन एवं स्मरण के सम्बन्ध में क्रम को जानना चाहिये। यह श्रवण भी महापुरुष मुख से विगलिन होने पे महामाहात्म्य प्रकाशित होता है । एवं जात रुचि भक्त वृन्द के पक्ष में परम सुख प्रद होता है। उक महन्मुखरित श्रवण भी द्विविध हैं, महत् कर्त्ता के आविर्भावित एवं महत् कर्तृक कीर्त्यमान हैं। उस के मध्य में श्रीमद् भगवत को लक्ष्य करके महदाविर्भावितत्त्व का वर्णन भा०

१.३।४० में उक्त हैं-

(२५६) “इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।

उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवानृषिः ॥”७७४॥

टीका-सूत, किमेतत् शास्त्रम् अपूर्वं कथयसि ? तत्राह, इदमिति । ब्रह्म सम्मितं सर्ववेदतुल्यम् । उत्तमः श्लोकम्य चरितं यस्मिन् तत् ऋषि व्यासः ।

श्रीसूत, शौनकादि ऋषि गण को कहे थे - हे शौनक ! यह श्रीमद् भागवत पुराण, सर्ववेद तुल्य है, इस में प्रतिपद में श्रीहरिचरित वर्णित है ।

कवि कुलाग्रणी श्रीकृष्ण द्वैपायन कलिहत जीवों के कलाण्यार्थ यह श्रीमद् भागवत पुराण प्रकाश किये हैं । इस श्लोक में श्रीमद् भागवत माहात्म्य सूचित करने के निमित्त हो श्रीकृष्ण द्वैपायन का कर्तृत्व वर्णित हुआ। है ।

प्रवक्ता श्रीसूत हैं- २५६ ॥

४४४ २५७

अथवा भा० १।१।३ मे उक्त है-

“निगम कल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखा मृतद्रवसंयुतम् । पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहोरसिका भुविभावुकाः ॥

श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[५२३]]

इत्यादौ, अत्र श्रीशुकमुखादमृतद्रव संयुतत्वेन परमसुखदत्वमुक्तम् । एतदुपलक्षणत्वेन श्रीलीला- शुकाद्याविर्भावित कर्णामृतादिग्रन्था अपि क्रोड़ीकर्त्तव्याः । अथ महत्कीर्त्यमानं यथा

(भा० ४।२०/२५)

(२५७) “स उत्तम श्लोक-महन्मुखच्युतो भवत्पदाम्भोज - सुधाकणानिलः ।

स्मृति पुर्नावस्मृततत्त्ववर्त्मनां कुयोगिनां नो बितरत्यलं वरैः ॥ ७७५ ॥

टोका - इदानीन्तु न केवलं सर्वशास्त्रेभ्यः श्रेष्ठत्वादस्य श्रवणं विधीयते, अपितु सर्वशास्त्र फलरूपमिदम् भागवतं नाम, । तत् तु वैकुण्ठ गतं नारदेन आनीतं मह्यं दस, मया च शुकस्य मुखे निहितं तच्च तन्मुखाद् भूवि गलितं शिष्य प्रशियादि रूप पल्लवपरम्परया शनैरखण्ड मे वाजतीणं न तच्च निपातेन स्फुरित मित्यर्थः । एतच्च भविष्यदपि भूतवन्निविष्टम् । अनागताख्यानेनैव अस्य प्रवृत्तेः । अतएवामृत रूपेण द्रवेण संयुतम् । लोके हि शुक मुख भ्रष्ट फलममृतमिव स्वादु भवतीति प्रसिद्धम् । अत्र शुको शास्त्रस्य मुनिः । अमृतं परमानन्दः स एव द्रवो रसः । रसो वै स रसं ह्येवायं लब्धानन्त्री भवतीति प्रसिद्धम् । अत्र शुकः- शास्त्रस्य मुनिः । अतः, हे रसिका, रसज्ञाः, तत्रापि भावुकाः, हे रसबिशेष भावना चतुराः । अहो भुकि गलितमित्यलभ्यलाभोक्तिः इदं भागवतं नाम फलं मुहुः पिबत । ननु त्वगाठ्यादिकं विहाय फलाद् रसः पीयते, कथं फलं पातव्यम् ? तत्राह - रसं रसरूपम् । अतस्त्वगष्ठद्यादेर्हेयांगस्याभावात् फलमेव कृत्स्नं पिवत । अब च रसतादात्म्य विवक्षया रसवत्त्वस्याविवक्षितत्वात् अगुणवचनेऽपि रस शब्दे मतुपः प्राप्तघ भावात् तेन विनैव रसं फलमिति सामानाधिकरण्यम् । अत्र फलमित्युक्तेः पानासम्भवो हेयांश प्रसक्तिव भवेदिति तन्निवृत्त्यर्थं रसमित्युक्तम् । रसमित्युक्तेऽपि गलितस्य रसस्य पातुम्शव्य बात् फलमिति द्रष्टव्यम् ।” न च भागवतामृतपानं मोक्षेऽपि त्याज्यमित्याह, आलयं लयो मोक्षः । अभिविधावाकारः, लयमभिव्याप्य, नहीदं स्वर्गादिसुखवः मुक्तेरपेक्ष्यते किन्तु सेव्यत एव । वक्ष्यति हि - आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अध्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः, इत्यादि ।

श्रीभद् भागवत वेद रूप कल्पतरु का फल स्वरूप है, श्रीशुक मुनि के मुख से शिष्यानुशिष्य रूप- परम्परा क्रम से धीरे धीरे अखण्ड रूपसे मर्त्यलोक में अवतीर्ण है, अतएव, अमृत रूप द्रवसंयुत है । श्रीमद् भागवत - “रसो वै सः " श्रुति प्रसिद्ध पारमार्थिक रस स्वरूप है । अथच साधारण फल में जिस प्रकार त्याज्य अष्ठि वल्कल रहते हैं, श्रीमद् भागवत फल में उस प्रकार त्य ज्यांश कुछ भी नहीं है । हे भावुक ! हे रसिक गण ! मर्त्य लोक में अवस्थित होकर मोक्ष कालावधि रस रूप फल को बारम्बार पान करो। इस श्लोक में श्रीशुक मुख से विगलिग होने के कारण रसिक भक्त वृन्द के पक्ष में श्रीमद् भागवत- श्रवण कीर्त्तनादि में परम सुख प्रदत्व कथित हुआ है। श्रीमद् भागवत के उपलक्षण में श्रीलीला शुक प्रभृति के द्वारा आविर्भावित श्रीकृष्ण कर्णामृत प्रभृति ग्रन्थ भी महाशक्ति पूर्ण हैं, इस प्रकार जानना होगा । ज्ञातव्य यह है कि - जिनके हृदय में अनवरत श्रीहरिस्फूर्ति विद्यमान है, वही महत् हैं, एवं उनके द्वारा आविर्भावित एवं कीर्त्यमान ग्रन्थ का आस्वादन से प्रचुर माधुर्य्य एवं शक्ति की उपलब्धि की जा सकती है । अनन्तर श्रीमद् भागवत जो महत् कीर्त्यमान है, उसका वर्णन भा० ४।२०।२५ के द्वारा करते हैं ।

(२५७) “स उत्तमश्लोक – महन्मुखच्युतो, भवत्पदाम्भोज- सुधाकणानिलः ।

स्मृति पुनवस्मृततत्व वर्त्मनां कुयोगिनां नो वितरत्यलं वरैः ॥२७७५॥

टीका - ननु तर्हि केल्याभावे रागद्वेषाद्याकुलानां भक्ति सुखमपि न स्यादित्याशङ्कयाह– स इति । भवत् पदाम्भोज सुधायाः कणालेशः, तत् सम्बन्धी योऽनिलः स एव, पूरादपि यत् किञ्चिद् यशः श्रवणमात्र

[[५२४]]

( भा० ४।२०।२४) " न कामये नाथ तदपि” इत्यादि पूर्वोक्तानुसारात् स्वसुखातिशयेन कैवल्य- सुखतिरस्कारी महतां मुखाद्विगलितो भवत्पदाम्भोज-माधुर्य्यलेशस्यापि सम्बन्धी शब्दात्मको- ऽनिलो विस्मृतपरमतत्त्वात्मक त्वदीय ज्ञानानामस्माकं त्वदीयां स्मृतिमपि यच्छति । तस्मात् तथाविधस्य तस्य परमसाध्य साधनात्मकत्वा-दलमन्यैवरेरित्यर्थः ॥ पृथुः श्रीविष्णुम् ॥

२५८-२५६ ।

२५८- २५६ । तदेवं महामाहात्म्यं महासुखप्रदत्वश्वोक्तम् । तदेतदुभयमप्यन्यत्राह

डाभ्याम् (भा० ४।२६।४१ )

(२५८) " तस्मिन्महन्मुखरिता मधुभिच्चरित्र, पीयूषशेष सरितः परितः स्रवति ।

ता ये पिवन्त्यवितृषो नृप गाढ़कर्णे–, स्तान स्पृश· त्यशनतृड़ भयशोकमोहाः ॥’ ७७६ ॥

मित्यर्थः । विस्मृतं तस्ववर्त्मयै कुयोगिभि स्तेषामपि पुन स्मृतिमात्म ज्ञान वितरति । अतो न खलु भक्तानां गादि सम्भवः । अतो नोऽस्माक सारग्राहिणाम् अन्यैर्वररलम् । भक्तावेव मोक्षादि सर्वसुखन्तर्भावादिति

भावः ।

[[9]]

जिस समय श्रीविष्णु पृथु महाराज को वर प्रदानेच्छ हुये थे, उस समय आदिराज पृथुने श्री विष्णु को कहा, - हे प्रभो ! जिस में आप के चरण कमल के माधुर्य्यास्वादनलेश भी नहीं है, इस प्रकार वर प्राप्त करने का अभिलाषी मैं नहीं हूँ । मैंने आप को जो केवल्यपति शब्द से सम्बोधन किया है, उस से आप इस प्रकार धारणा न करें कि मैं आप से कैवल्य की आकाङ्क्षा कर रहा हूँ। यह भी मेरे निकट में अति तुच्छ हो प्रतिभात होता है। कारण, इस में आप के श्रीचरण युगल के माधुर्य्यास्वादन की सम्भावना नहीं है। इस माधुर्य्यास्वादन का अतिशय्य इतना अधिक है कि यह कैवल्य सुख को भी तिरस्कार करता है । परम तत्त्वरूप आप के विमल ज्ञान विस्मृत होकर हम सब थे, किन्तु महत् मुख से विगलित आप के में चरण पद्म के लेशमात्र माधुर्य का ही शब्दात्मक समीरण मे ही आप के चरणों की स्मृति हमारे हृदय जाग्रत हो गई है । अतएव महत् के मुख से निगलित भगवत् लीला कथा परमसाध्य एवं परम साधनस्वरूप है । सुतरां हे प्रभो ! इस को छोड़ कर अन्यवरों से कोई प्रयोजन नहीं है । भा० ४ २०।२४ के श्लोक उक्ताभिप्राय सुव्यक्त हुआ है ।

TULF

“न कामये नाथ तदप्यहं क्वचिन्त्रयत्र युष्मच्चरणाम्बुजासवः ।

महत्तमान्तह’ दयान्मुखच्युतो विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः ॥

टीका- कैवल्यपते, इति सम्बोधनात् कैवल्यंवरिष्यतीति माशङ्कीरित्याह नेति । महत्तमानामन्त– हृदयान्मुख द्वारा निर्गतो भवत् पदाम्भोज मकरन्दो यशः श्रवणादि सुखं यत्र नास्ति तादृशं चेत् कैवल्यं, तहि तत् क्वचित् कदाचिदपि न कामये । तर्हि कि कामयते ? तदाह–यशः श्रवणाय कर्णानामयुतं विधत्स्व । ननु को ऽप्येवं न कृतवान् किमन्यच्चिन्तयेत्याह ममतु एष एव वर इति ।

पृथु श्रीविष्णु को कहे थे ॥ २५७ ॥

२५८ - २५६ । अतएव पूर्व वणित, महत् आविर्भावित एवं महत् कर्तृक कीर्त्त्यमान भगवत् प्रसङ्ग का महामाहात्म्य एवं महासुखप्रदत्व प्रदर्शित हुआ । श्रीमद् भागवत में महदाविर्भावितत्व एवं महत् कीर्यमानत्व एतदुभय ही विद्यमान हैं । भा० ४।२६।४० -४१ श्लोकों के द्वारा उसका प्रदर्शन करते हैं

(२५८) “तस्मिन्महन्मुखरिता मधुभिच्चरित्र - पीयूष शेषसरितः परितः स्रवन्ति ।

ताये विवन्यवितृषो नृप गाढ़कर्णे–, स्तान्न स्पृशन्त्यशनतृड़ भयशोकमोहाः ॥ ७७६ ॥ ७

[[५२५]]

तस्मिन् साधुसङ्ग, महद्भिर्मुखरिताः कीर्त्तिताः, शेषः सारः, अवितृषोऽलं बुद्धिशून्याः, गाढत्वं सावधानत्वम्, अशनं क्षुन, (भा० ४।२६१४२) -

(२५६) “एतैरुपद्र तो नित्यं जीवलोकः स्वभावजे ।

न करोति हरेनू नं कथामृतनिधौ रतिम् ॥” ७७७॥

येरेतं रशनादिभिरुपद्र तः सन् कथामृतनिधौ रति न करोति, तानेतान्महत् कीर्त्यमानानि भगवद्द्यशांसि स्व-माहात्म्येन दूरीकृत्य स्वसुखमनुभ वयन्तीति पद्यद्वययोजनार्थः ॥ श्रीनारदः प्राचीनवर्हिषम् ॥”