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उक्त रीति से नामादि श्रवण भी वर्णित हुआ । इस नामादि श्रवण प्रसङ्ग में श्रीभगवान् के परिकर का भी श्रवण विहित है । अर्थात् जिस प्रकार श्रीभगवान् के नाम रूप गुणादि का श्रवण करना अवश्य कर्त्तव्य है, उस प्रकार ही उन के नित्य सिद्ध परिकर वृन्द की कथा श्रवण करना भी अवश्य कर्त्तव्य है । भा० ३।१३।४ में उक्त है-
“श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य नन्वञ्जसा सुरिभिरीडितोऽर्थः । ततद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द, – पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥ " ७७३॥
॥१७७३॥
टीका - अतस्तस्य चरितं श्रोतव्यमित्याह । सुचिरं श्रमो यस्मिन् तस्य पुंसां श्रुतस्य अञ्जसा मुख्यत्वेन अयमेवार्थ ईडितस्तुतः । ननु मुकुन्द पादारविन्दं येषां हृदयेष्वस्ति तेषां तेषां भागवतानां गुणानुश्रवणमिति यत् ॥
विदुर मैत्रेय को कहे थे - हे प्रभो ! महानुभव गण मानव मात्र के पक्ष में दीर्घकाल भूरि परिश्रम साध्य आत्म अनात्म प्रभृति श्रवण का सार, उद्देश्य रूप में यही निर्देश किये हैं। वे कहते हैं, जिनके हृदय में अनवरत मुकुन्द पादारविन्द की स्फूति होती रहती है, उन सब महाभागवत वृन्द के गुणानुवाद श्रवण ही मुख्य एवं सुख साध्य फल है । उस के मध्य में अर्थात् नामादि श्रवण के मध्य में यद्यपि श्रवण कीर्तनादि साधनाङ्ग के मध्य में एक वा ततोऽधिक अङ्ग का ही साधन हो तो, उस से सिद्धि होती है । अर्थात् भक्ति फल प्रेम लाभ अवश्य ही होगा । तथापि अन्तः करण शुद्धि हेतु प्रथमतः नाम श्रवण ही अवश्य
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लीलानां स्फुरणं सुष्ठु भवतीत्यभिप्रेत्य साधनक्रमो लिखितः । एवं कीर्त्तन - स्मरणयोर्ज्ञेयम् । इदश्च श्रवणं श्रीमन्महन्मुखरितं चेन्महामाहात्म्यम्, जातरुचीनां परमसुखदञ्च । तच्च द्विविधम्- महदाविर्भावितं महत् कीर्त्तयमानञ्चेति । तत्र श्रीभागवतमुपलक्ष्य पूर्व्वं यथा
श्रा० १।३।४०)
(७५६) “इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवानृषिः ॥ ७७४॥
अत्र तन्माहात्म्यसूचनार्थमेव तत्कर्त्ता करवदचनम् ॥ श्रीसूतः ॥