२५४

४४० २५४

किं बहुना, एतदर्थमेवास्य महापुराणस्याविर्भाव इति (भा० ११५२८) “भवतानुदित

अनन्तरं तद्धेतु रात्मप्रसादश्च । यत्र यासु । मनः प्रसाद हेतुः, गुणेषु विषयेषु असङ्गो वैराग्यञ्च । उभय ऋति पाठे इहामुत्र च गुणेष्वसङ्गः । कैवल्यमित्येव सम्मतः पन्था यो भक्ति योग, । निर्वृत, श्रवण सुखेन, अन्यत्रानिवृते इति वा । तासु हरिकथासु को न रति कुर्य्यात् ।

श्रीशुक, परीक्षित को कहे थे - हे राजन् ! भागवत सङ्गसे जिस हरि कथा में प्रीति का उदय होता है, उस श्रीहरि कथा की महिमा सुनो। श्रीहरि कथा श्रवण से ज्ञानोदय होता है । वह ज्ञान किस प्रकार है ? आ प्रतिनिवृत्त गुणोम्मिचक्रम्” अर्थात् जिस ज्ञान में राग प्रभृति तरङ्ग समूह की सम्यक् रूप से निवृत्ति हो जाती है, पुनर्वार उद्गम होने की सम्भावना नहीं रहती है। जिस श्रीहरि कथा श्रवण द्वारा आत्म प्रसादलाभ होता है, आत्म प्रसाद होने से विषय अनासक्ति हो जाती है। अधिक कहना ही क्या है ? “ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा” ( गी० १८।५४) श्लोक में कैवल्य को प्रेम भक्ति लाभ का द्वार कहा गया है । अर्थात् आत्माराम आप्तकाम अवस्था प्राप्त न होने से श्रीभगवान् में प्रेम भक्ति प्राप्ति नहीं होती है, उस कैवल्य को भी भक्त गण अननुसन्धान से प्राप्त करते हैं । अनन्तर श्रीहरि चरणों प्रेम भक्ति का उदय होता है, इस प्रकार श्री हरि कथा, अर्थात् भगवत् चरित्र - श्रवण सुख से सुखी होकर, अथवा अन्यत्र विरत होकर एक मात्र श्रीहरि कथा में कौन व्यक्ति रति अर्थात् राग न करके रह सकता है ? श्रीशुक कहे थे ॥ २५३ ।

४४१ २५४

अधिक और क्या कहें, - श्रीहरि लीला कथा श्रवण माहात्म्य वर्णन करने के निमित्त ही श्रीमहापुराण श्रीमद् भागवत का आविर्भाव हुआ। है । भा० १५८ में उक्त है-

“भवतानुदितं प्राय यशो भागवतोऽमलम् ।

येनैवासौ न तुष्येत मन्येतद् दर्शनं खिलम् ॥"

टीका - अनुदित प्रायः– अनुक्त प्रायम् । विमलं भगवद् यशो विना येनैव धर्मादि ज्ञानेन असौ भगवान् न तुष्येत तदेव दर्शनं ज्ञानं खिलं न्यूनं मन्ये ।

महामुनि श्रीकृष्ण द्वंपायन को श्रीनारद कहे थे - प्रधान रूप श्रीभगवान् का विमल यशः कीर्त्तन आपने नहीं किया है, तज्जन्य आप निज चित्त में प्रसन्नता प्राप्त करने में अक्षम हैं। इस के पश्चात् उन्होंने कहा है । (भा० १०५।१३) में उक्त है-

fa m

“अथोमहाभाग भवानमोघदृक्शुचिश्रवाः सत्य रतोधृतव्रतः

उरुक्रमस्याखिल बन्ध मुक्तये समाधिनानुस्मर तद्विचेचिष्टतम् ॥”

टीका तदेवं भक्ति शून्यानि ज्ञान वाक् चातुर्य्य कर्म कौशलानि व्यर्थान्येव यतः, अतो हरेश्चरित मेवानुवर्णयेत्याह, अथो - इ त । अथो अतः कारणात् अमोघा यथार्था दृक् धीर्यस्य । शुचि शुद्धं श्रवो यशोयस्य, सत्ये रतः । धृतानि व्रतानि येन । स भवान् एवं महागुणस्तावत् अत उरुक्रमस्य विविधं चेष्टितं लीलां

[[५१८]]

प्रायं यशो भगवतोऽमलम्” इत्यादौ, (भा० १।५।१३) “समाधिनानुस्मर तद्विचेष्टितम्" इत्यादौ च वर्णितम् । सा च लीला द्विविधा, - सृष्ट्यादिरूपा लीलाबता विनोदरूपा च । तयोरुत्तरा तु प्रशस्ततरेत्याशयेनाह ( भा० २२६४६) -

(२५४) “प्राधान्यतो यानृब आमनन्ति, लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ।

आपीयतां कर्णकष यशोषा, – ननुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान् ॥ " ७६८ ॥

BIN

DF

यद्यपि पूर्व्वम् (भा० २।६।४२) “आद्योऽवतारः पुरुषः परस्” इत्यादि-ग्रन्थेन पुरुषं कालादि- तच्छक्तिम्, मनआदि-तत्कार्य्यम्, ब्रह्मादि तद्गुणावतारान, बक्षादि तद्विभूतीचोक्तवानमि तेन च सृष्टयादि- लीलाः, तथापि यात्, हे ऋषे ! पुरुषस्य भूम्नो लीलावतारान् प्राधान्येन आमनन्ति तानेव इमान् मम हृदयाधिरूढान् कर्णकषायशोषान् तदितरश्रवणरागहन्तृन् । किञ्च, सुपेशान् परममनोहराननुक्रमिष्ये, तदनुक्रमेण आ सम्यक् प्रीयताम् ।” श्रीब्रह्मा नारदम् ॥

[[15]]

-२५५ । एवं (भा० १०२८७१२१) “दुरवगमात्मतत्वनिगमाय” इत्यादौ वेदस्तुतावपि समाधिना चित्तैकाग्रय ेण अखिलस्य बन्धस्यमुक्तये त्वमनुस्मर, स्मृत्वा वर्णयेत्यर्थः । एतच्च वाक्यान्तरमिति मध्यम पुरुष

प्रयोगो नानुपपन्नः ।

एकाग्र चित्त से श्रीभगवान् की लीला का स्मरण कर वर्णन करो । उक्त श्रीभगवान् की लीला द्विविध हैं। एक-जगत् सुष्टचादि रूपा, अपर लीलावतार बिनोद रूपा । इन दोनों के मध्य में लीलावतार विनोद रूपा लीला ही अत्यन्त प्रशस्ता है. इस अभिप्राय से ही भा० २ ६ ४६ में उक्त है ।

(२५४) " प्राधान्यतो यानृष आमनन्ति लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ।

आपीयतां कर्णकषायशोषा— ननुक्रमिध्ये त इमान् सुषेशान् ॥” ७६८ ॥

टीका - शुद्ध संस्वावतारान् वक्तुमाह प्राधान्यत इत । असत् कथा श्रवणं यें कर्णयोः कषाया मलास्तान् शोषयन्तीति तथा तान् । सुपेशान् सुन्दरान् । हे ऋषे ! ते तुभ्यम्, अनुक्रमिध्ये तदनुक्रमे णामृतं त्वयह आपीयतामित्यर्थः । यद्वा आपीयतामिति शत्रन्तम्, आपीयतां कर्ण कषायशोषानित्यर्थः ।

21-

ब्रह्मा नारद को कहे थे - यद्यपि इस के पहले भा० २।६ ४२ में ‘आद्योऽवतारः पुरुष" परस्य" पुरुष एवं कालादि एवं श्रीभगवान के कार्य्यादि, शक्तिमनः प्रभृति, शक्ति के कार्य्यादि, ब्रह्मादि, भी भगवान् के गुणावतार, दक्ष प्रभृति उन श्रीभगवान् की विभूति प्रभृति क्या का वर्णन मैंने किया है । अर्थात् श्रीभगवान् को सृष्टयादि लीला का कथन पहले ही हुआ है । तथापि हे ऋषि बर ! उन परम पुरुष के जो सब लीला बतार हैं, वेद एवं वेदानुगत शास्त्र जिन की प्रशंसा प्रधान रूप से करते रहते हैं, उन सब लीलावतार की कथा - जो मेरे हृदय में आविर्भूत है, वह कर्ण शोधन कारी हैं, अर्थात् उन सब लीलावतार की कथा श्रवण करने से अन्य कथा श्रवण करने की लालसा विदूरित हो जाती है । एवं जो लीलावतार चरित्र परम मनोहर है, उस का वर्णन क्रम पूर्वक कर रहा हूँ । तुम सम्यक् रूप से कथा मृत पान करो ।

श्रीब्रह्मा नारद को कहे थे ॥ २५४॥ २५५ । इस प्रकार ( भा० १० ८७।२१) में लीलावतार की कथा श्रवण, कीर्तन प्रशंसा वेद स्तुति में है ।श्रीभक्तिसन्दभः

[[५१६]]

तच्छ् लाघा द्रष्टव्या, अतएव प्रथमे (भा० ११२।३४) “भावयत्येषः” इत्यादौ “लीलावतारानुरतः’ इति तद्विशेषणं दत्तम् । तथा च श्रीभगवद्गीतासु (४६) -

(xxp)

“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

Pere

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ७६६ ॥ इति ।

“दुरवगमात्म तत्त्व निगमायतवात्ततनो,

वरितमहामृताब्धि परिवर्त परिभ्रमणाः ।

न परि लयन्ति केचिदपवर्गमीश्वर ते,

चरण सरोज हंस कुल सङ्ग विसष्ट गृहाः ॥”

टीका - भक्ति रल्प साधनमिति वचनमनुचितमिव मन्वानो भक्ति गुरु करोति- दुरवगमेति । भो ईश्वर ! दुरवगमं दुर्बोधं यदात्मतत्त्वं तस्य निगमाय ज्ञापनाय तवात्ततनोराविष्कृतमूतैश्च तमहामृताब्धि परिवर्त परिश्रमणाः । परिवर्जनार्थः । श्रमणं श्रमः । गत श्रमा इत्यर्थः । अपवर्गमपि केचिन्न परिलषन्ति, नेच्छन्ति, कुतोऽन्यदिन्द्रपदा दि

कुतोऽन्यदिन्द्रपदादि । केचिदिति एवम्भूता भक्ति रसिका विरला इति दर्शयन्ति । न केवल मन्यन्नेच्छन्ति, किन्तु तेनैव सुखेन पूर्णाः सन्तः पूर्व सिद्धं गृहादि सुखमप्यपेक्षन्ते - इत्याह, ते चरण सरोज हंस कुलसङ्ग विसृष्ट गृहा इति । तब चरण सर जे हंसा इव रममाणा ये भक्तास्तेषां कुलं तेन सङ्गस्तेन विसृष्टा गृहा येस्ते तथा । अनेन भवण कीर्त्तने दर्शिते । श्रुतिश्च मुक्तेरप्याधिक्यं भक्तेर्दर्शयति । यथाह, यं सर्वे देवा नमन्ति मुमुक्षवो ब्रह्मवादिनश्चेति । व्याख्यातश्च सर्वज्ञं भष्यिकृद्भिः - अपि लीलया विग्रह कृत्वा भजन्त इति ॥

वेद गण भगवान् को स्तव करके कहे थे । हे प्रभो ! भक्ति तत्वानभिज्ञ कतिपय व्यक्ति भक्ति साधन को महत्त्व नहीं देते हैं। वह उनकी अनभिज्ञता का परिचायक है । भक्ति साधन ही निखिल साधन शिरोमणि है, उस को कहते हैं, हे ईश्वर ! तुम्हारे तत्त्व अतीव दुर्बोध्य है, साधन शक्ति के द्वारा उस को जानने में कोई भी सक्षम नहीं हैं। तुम स्वयं ही निज तत्त्व को अनुभव कराने के निमित्त इस जगत् में निज मूर्ति को प्रकट करके जो सब मधुर लीला करते रहते हो सब लीला ही महा आनन्द सुधासिन्धु हैं । जो सत्सङ्ग वा सत्कृपा प्राप्त कर अपने को धन्य किये हैं, वे इस लीलासिन्धु में अवगाहन करके आत्म तत्त्व ज्ञान प्राप्त करने के परिश्रम से अपने के मुक्त कर सकते हैं । अर्थात् जो तुम्हारी लीला कथा सुधा सागर में अब गाहन कर सकते हैं, उन सब को तुम्हारे स्वरूप तत्त्व ज्ञान लाभ हेतु स्वतन्त्र रूप से कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ता है। लीलारस आस्वादन के द्वारा ही तुम्हारे स्वरूप तत्व की उप लब्धि अनायास कर सकते हैं । वे इस प्रकार अपूर्व पारमार्थिक अस्वादन प्राप्त करते हैं, जिस से जन्ममृत्यु दुःख परिहार रूप मुक्ति को आदर नहीं करते हैं । किन्तु इस प्रकार व्यक्ति की संख्या स्वल्प है । जो मोक्ष सुखाभिलाष को परित्याग करते हैं. वे जो इन्द्रादि पद की आकाङ्क्षा स्वतः ही नहीं करते हैं। ऐसा नहीं, किन्तु उस लीला सुधारसास्वादन में विभोर होकर पूर्व सिद्ध गृहादि सुख का भी अनुसन्धान नहीं करते हैं । कारण तुम्हारे चरण कमल के हंस के समान सतत प्राप्ति युक्त भक्त कुल के सङ्ग में अवस्थित होकर गृह सुखापेक्षा को परित्याग करते हैं ।

श्रुति में भी लीला कथा श्रवण कीर्तन रूप भक्ति का प्राधान्य वर्णित है । ‘यं सर्वे देवा नमन्ति मुमुक्षवो ब्रह्मवादिश्च ।” इस की व्याख्या में सर्वज्ञ भाष्य कर्त्ता श्रीशङ्कराचार्य ने भी कहा है- “मुक्ता अपि लीलया विग्रहं कृत्वा भजन्ते ॥” निर्वाणमुक्त व्यक्ति गण भी स्वेच्छा से भजनोपयोगी देह धारण करके

[[५२०]]

श्रीभक्ति सन्दर्भ

एषा खलु मयशरीरमपि पार्षदभावेन जितमृत्युकं विदधाति यथाह (भा० ३११४ ५-६ ) -

,

(२५५) “साधु वीर त्वया पुष्टमवतारकथां हरेः ।

यत्त्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाश-विशातनीम् ॥ ७७० ॥ ययोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।

मृत्योः कृत्वैव मूर्त्यङ्घ्रिमारुरोह हरेः पदम् ॥ ७७१॥

मुनिना श्रीनारदेन, अतस्तेन भगवदवतारकथापि तं प्रति श्रावितास्तीति गम्यते । तेन शरीरेणैव मृत्युजयः, पार्षदत्वोक्तम् (भा० ४।१०।२६)

श्रीभगवान् का भजन करते हैं। इस से प्रतिपन्न होता है कि मुक्ति सुख से भी भगवल्लीलाकथा श्रवण कीर्तन रूप भक्ति में सुखाधिक्य है । अतएव भा० ११२१३४ में श्रीसूत ने कहा है- Ping 130

“भावयत्येष सत्वेन लोकान् वै लोकभावनः । लीलावतारानुरतो देवतिर्य्यङ्नरादिषु ॥ "

टीका - इदानों सत जानासीति प्रश्नस्योत्तरमाह, भावयति पालयति । एतत् तु सर्वावतार साधारण प्रयोजनं, विशेषतः श्रीकृष्णावतारस्य कुन्तीस्तुतौ वक्ष्यते । लोकभावनः - लोककर्त्ता । देवादिषु ये नीलावतारास्तेषु । अनुरतः - अनुरक्तः ।

हे शौनक ! लोक कर्त्ता श्रीभगवान् देव तिर्य्यङ् एवं मानवों के मध्य में अनुरक्त होकर तत्त्व गुण के द्वारा सकल लोक को पालन करते है ।” इस श्लोक में “लीलावतारानुरतः " पद, श्रीभगवान् के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है । अर्थात् लीला - भगवान् की अतीवान्तरङ्ग वस्तु है, उस का प्रकाश अनुरत पदके द्वारा हुआ है । श्रीभगवद् गीता (४६) में भी उक्त है-

“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

स्वक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥”

हे अर्जुन ! मेरा जन्म एवं कर्म-उभय ही अलौकिक हैं, अर्थात् माया विकार सम्बन्ध रहित स्वरूपानुबन्धी है, अर्थात् चिच्छक्ति का विलास रूप है। जो भाग्यवान् जीव मेरा जन्म एवं कर्म को अलौकिक स्वरूपानुबन्धी रूप से जानता है, वह माया विकार जन्ति देह त्याग करके पुनर्वार जन्म ग्रहण नहीं करता है । केवल यही नहीं, प्रत्युत मुझ को प्राप्त करता है। यह भगवत्लीला कथा, मरण धर्म झील शरीर को भी पार्षद भाव से मृत्युञ्जयत्व प्रदान करती है । भा० ३।१४१५–६ में उक्त है-

(२५५) “साधु वीर त्वया पृष्टमवतारकथाँ हरेः ।

यस्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाश-विशातनीम् ॥ ७७० ॥ यथोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।

मृत्योः कृत्वैव मृङ्घ्रिमारुरोह हरेः पदम् ॥”७७१॥

टीका- साधुत्वे हेतु :- यद् यस्मात् त्वं हरेरवतार कथां पृच्छपीति । मृत्योः पाशं विज्ञातयति मोचयतीति तथा । (५) तदेव दर्शयति । यथा कथया । उत्तानपदः पुत्रो ध्रुवः । मुनिना नारदेन । अर्भकएव । यदा ध्रुवाय सुनन्दादिभि विमानमानीतं तदास्य देह भागोऽपेक्षितः स्यात् इति मत्वा मृत्यावासन्नेऽपि देहं न तत्याज, किन्तु सोपान इव तस्य मृत्योर्मू दिन पदं दत्वा विमानमारुह्य विष्णुपदमारुढ़ः, वक्ष्यति हि- परीत्याभ्यर्च्य । धिष्णद्याग्रच कृतस्वस्त्ययनो द्विजैः । इयेष तदधिष्ठातु विभ्रद्र पं हिरण्मयमिति ॥ ६)

श्रीमैत्रेय श्रीविदुर को कहे थे - हे वीर ! तुमने उत्तम प्रश्न किया है। कारण, श्रीहरि के अवतार

[[५२१]]

“परीत्याभ्यर्च्य धिष्ण्याग्रय ं कृतस्वस्त्ययनो द्विजैः ।

इयेष तदधिष्ठातु विद्रूप हिरण्मयम् ॥ ७७२ ॥ इति । श्रीमैत्रेयः ॥ २५६ । तदेवं नामादिश्रवणमुक्तम् । अत्र तत्परिकरश्रवणमपि ज्ञ ेयम्, (भा० ३।१३४)-

“श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य, नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः ।

तत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द, - पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥ " ७७३ ॥ इत्यादौ ।

单方

तत्र यद्यध्येकतरेणापि व्युत्क्रमेणापि सिद्धिर्भवत्येव, तथापि प्रथमं नाम्नः श्रवणमन्तः करणशुद्धयर्थ-मपेक्ष्यम्, शुद्धे चान्तः करणे रूपश्रवणेन तदुदययोग्यता भवति, सम्यगुदिते च रूपे गुणानां स्फुरणं सम्पद्यते । ततस्तेषु नाम-रूप- गुणेषु तत्परिकरेषु च सम्यक् स्फुरितेष्वेव

विषयक प्रश्न किया है। जो लीलावतार कथा, मरण धर्मात्मक मानव वृन्दको मृत्यु पाश से विशेष रूप से मुक्त कर देती है। मुनि नारद कर्तृक गीत जिस लीला कथा के द्वारा उत्तानपाद के पुत्र बालक ध्रुव मृत्यु के मस्तक में पद स्थापन कर श्रीहरि धाम में आरोहण किये थे । इस से बोध होता है कि - देवर्षि नारद श्रीध्र व को लीलावतार कथा श्रवण कराये थे । ध्रुम, उस प्रापश्चिक शरीर के द्वारा ही मृत्यु को जय किये, एवं पार्षद देह लाभ किये थे। उसका वर्णन भा० ४।१२।१६ में उक्त है-

“परीत्याभ्यच्च्यं धिष्ण्याग्रचं कृतस्वस्त्ययनो द्विजैः ।

इयेष तदधिष्ठातु विभ्रद्र पं हिरण्मयम् ॥ ७७२॥

ध्रुव, वैकुण्ठ से समागत रथ की पूजा एवं परिक्रमा करके, ब्राह्मण वृन्द कर्त्तृक कृतमाङ्गलिक अनुष्ठान से विभूषित होकर प्रकृति विकार देह में ही सच्चिदानन्दमयत्व को प्राप्त करके उस रथ में आरोहण करने की इच्छा किये थे । इस श्लोक में प्राकृत देह का त्याग न करके ही ध्रुव की पाषद देह प्राप्ति की कथा वर्णित है ।

श्रीमैत्रेय कहे थे ॥ २५५॥