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अथ लीला-श्रवणम् (भा० ११३।१२) -

(२५३) “ज्ञानं यदाप्रतिनिवृत्तगुणोमिचक्र-

मात्मप्रसाद उत यत्र गुणेष्वसङ्गः ।

कैवल्यसम्मत पथस्त्वथ भक्तियोगः

को निर्वृतो हरिकथासु रति न कुर्य्यात् ॥ ७६७॥

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पुण्य के विना श्रीहरि कथा श्रवणेच्छा नहीं होती है, अर्थात् पवित्र हृदय में श्रीहरिकथा श्रवणेच्छा उद्गत होती है। अतएव हिनाविद्ध व्याध के पक्ष में श्रीहरि कथा हो ही नहीं सकती है । अथवा पशुधन शब्द से परनिन्दा मात्र को जानना होगा । दैत्यस्वभाव मनुष्य ही अपर के हृदय में व्यथा दान करता है । अतः उस में हिंसक का धर्म विद्यमान होने के कारण, पशुघ्न शब्द से उस को उल्लेख किया है। कारण, निन्दा से जिस प्रकार हृदय व्यथित होता है, उस प्रकार शस्त्राघात से भी व्यथित नहीं होता है । अतएव उस प्रकार हृदय में श्रीहरि कथा माधुर्य्यास्वादन करने की सामर्थ्य न होने के कारण, ‘विना पशुघ्नात्’ पशुधन भिन्न हरिकथा श्रवण से कौन विरत होगा। यह कथन युक्ति युक्त ही है। श्रीहरि कथा विमुख जनगण को तिरस्कार करने के निमित्त हो उक्त श्लोक में उस प्रकार शब्द विन्यास हुआ है ।

भा० ३।१३।५० में श्री मंत्रेय भी उसी प्रकार कहे हैं। तुम्ही” को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्, पुराकथनां भगवत् कथासुधाम्

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आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहा, महो विरज्येत विना नरेतरम् ।" ७६६ ॥ टीका-अतः को नाम पुरा कथानां पूर्व वृत्तान्तानां मध्ये कथचिदापीय विरज्येत विरमेत् । नरेतरं पशु विना ।

मैत्रेय विदुर को कहे थे - विदुर ! जो भक्ति को ही सर्व पुरुषार्थ का महाफल मानता है, वही व्यक्ति सारज्ञ है, और जो भक्ति को पुरुषार्थ का साधन मानता है, किन्तु फल -नहीं मानता है, वही पशु है । इति पूर्व में तुम्हारे निकट जो सब चरित्र का वर्णन मैंने किया है, वह सब पुरावृत्त के मध्य में संसार ध्वंशिनी भगवत् कथा सुधा को कर्णाञ्जलि द्वारा पान करके नरेतर पशु भिन्न कौन व्यक्ति विरत होगा ? ऐसा होने पर जो, सुधाधारावत् श्रीहरि कथा से विरत होता है, वही व्यक्ति पशु है । श्रोमैत्रेय की उक्ति से श्रीहरि कथा विरत व्यक्ति को पशु के मध्य में परिगणित किया गया है

राजा, श्रीशुक को कहे थे ॥ २५२ ॥ २५३ । अनन्तर लीला श्रवण का माहात्म्य वर्णन करते हैं । भा० २।३।१२ में उक्त है-

(२५३) “ज्ञानं यदाप्रतिनिवृत्तगुणोमिचक्रमात्मप्रसाद उत यत्र गुणेष्वसङ्गः ।

कैवल्यसम्मतपथस्त्वथ भक्तियोगः को निर्वृतो हरिकथासु रति न कुर्य्यात् ॥ ७६७ ॥ टीका - भागवत सङ्गत इत्यनेन सूचितां हरिकथारतिं स्तौति ज्ञान मिति । यत् यासु कथासु ज्ञानं भवति । कीदृशम् ? आ सर्वतः प्रति निवृत्तमुपरतं गुणोम्र्म्माणां रागादीनां चक्र

ं समूहो यस्मात् तत् । उत

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यत् यासु कथासु ज्ञानं भवति । कीदृशम् ? आ सर्व्वतः प्रतिनिवृत्तमुपरतं गुणोर्मोणां रागादीनां चक्र ं समूहो यस्मात् यतो यत्र यासु कथासु तद्धेतुरात्मप्रसादश्च तत्प्रसाद- हेतुविषयानासक्तिश्च किं बहुना, तत्फलं यत् कैवल्यं तदपि ( गी० १८।५४ ) - " ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा” इत्याद्युक्तानुसारेण, सम्मतः पन्थाः प्राहिद्वारं यत्र स प्रेमाख्यो भक्तियोगोऽपि, यासु श्रुतमात्रासु तत्तदनपेक्ष्यैव भवति, तासु हरिकथासु तच्चरितेषु कः श्रवणसुखेन निर्वृतः सत् अन्यत्रानिर्वृतो वा रतिं रागं न कुर्य्यात् ॥ श्रीशुकः ॥