४३८ २५२
व्यतिरेक मुख से अर्थात् निषेध मुख से भी कहते हैं - भा० १० १।४ में उक्त हैं-
(२५२) “निवृत्ततर्षेरुपगीयमानाद - भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात् ।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात् पुमान् विरज्येत विना पशुधनात् ॥ " ७६४॥
टीका - अत्र लोके त्रिविधा जनाः मुक्ता मुमुक्षवो विषयणश्च । तेषां मध्ये अत्र न कस्याप्यलं प्रत्यय इत्याह- निवृत्ततषैरिति । गततृष्णैमु क्तैरित्यर्थः । मुमुक्षूणामयमेवोपाय इत्याह भवौषधादिति । विषयिणां
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श्री भक्तिसन्दर्भः
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“राजपुत्र चिरं जीव मा जीव मुनिपुत्रक । जीव वा मर वा साधो व्याध मा जीव मा मर ॥ ७६५॥ इति न्यायेन विषयसुखेऽपि तात्पय्यं नास्ति । न च तदभिज्ञत्वमस्ति, विशेषतस्तु कथारस- ज्ञाने परम- गूढत्वात् सामथ्यं नास्त्येव यद्वा, दैत्यस्वभावस्य यस्य निन्दामात्र तात्पर्य्यम्, स एव हिंसकत्वेन पशुधन शब्देनोच्यते । पशुघ्नो व्याधः, सोऽपि मृगादीनां सौन्दर्य्यादिकं गुण- मगणयन्नेव हिंसामात्रतत्पर इति । ततो रसग्रहणाभावाद् युक्तमुक्तम्–विना पशुघ्नादिति । परमो विषयोऽयमेवेत्याह श्रोत्रमनोभिरामादिति अपगता शुग् यस्मात् तमात्मानं हन्तीत्य पशुघ्नस्तस्मात् पशुघातिन इति वा ।
व्यतिरेक अर्थात् निषेध मुख से भी भीहरिगुणानुवाद श्रवण की प्रशंसा करते हुए महाराज परीक्षित् कहे थे । हे प्रभो ! इस जगत् में मुक्त, मुमुक्षु एवं विषयो भेद से त्रिविध व्यक्ति होते हैं । उस के मध्य में हरिकथा श्रवण में किसी की भी अलं बुद्धि नहीं होती है, अर्थात् विरक्ति नहीं होती है । किन्तु आदर पूर्वक श्रवण ही करते हैं। कारण मुक्त गण सर्वदा हो उत्तम श्लोक भगवान् का गुणानुवाद कीर्तन करते रहते हैं । एवं भव रोग की औषध स्वरूप है, अतएव मुमुक्षु गण, श्रीभगवद्गुणानुवाद से विरत नहीं होते । मन एवं कर्ण का आनन्द दायक है, सुतरां श्रीभगवान् के गुणानुवाद से विषयो गण भी विरत नहीं होते हैं। केवल मात्र पशु धातो व्यक्ति बिरत होता है । मूल श्लोक में उत्तम श्लोक गुणानुवाद के तीन बिक्षेषण हैं। निवृत्तत रुपगीयमानात् भवोषधात्- भौत्रमनोऽतिरामात् । निवृत सर्व विशेषण के द्वारा मुक्त पुरुषः का संग्रह हुआ है, भवौषध-विशेषण के द्वारा मुमुक्षु व्यक्ति का संग्रह हुआ है, एवं श्रोत्रमनोभिराम- विशेषण के द्वारा विषयि जन गण का संग्रह हुआ है । पशुधन शब्द का अर्थ व्याध है। मुक्त गण-धीहरि के वात्सल्य गुणादि का कीर्तन करते हैं, भबभयभीत मुमुक्षु गण भवोषध मान कर श्रीहरि कीर्तन करते हैं, श्रवण मन के आनन्द दायक श्रीगुण कीर्तन होने के कारण, विषयो गण उसका कीर्त्तन करते हैं, किन्तु इस प्रकार गुण सम्पन्न श्रीहरि कीर्तन से पशुघ्न व्याध को छोड़कर अपर कोई व्यक्ति विरत नहीं होताः है, कारण, व्याघ का ऐहिक वा पार लौकिक सुख नहीं है। इस अभिप्राय से ही महापुरुष गण कहते हैं-
“राजपुत्र चिरं जीव मा जीव ऋषि पुत्रक ।
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जीव वा मर बा साधो व्याध मा जीव मा मर ॥ " ७६५॥
राज पुत्र ! तुम चिर काल जीवित रहो, कारण, तुम्हारा इह काल ही है, परकाल नहीं है । जब तक जीवित रहोगे तब तक ही राज्य सुख भोग होगा। मरने के बाद दुःख मय जन्म ग्रहण करना पड़ेगा हे मुनि पुत्र ! तुम जीवित न रहो, कारण, तुम्हारा इहकाल नहीं है, किन्तु परकाल है, जब तक जीवित रहोगे तब तक यज्ञादि कर्मानुष्ठान हेतु कष्ट प्राप्त करोगे । मृत्यु होने से पुण्यार्जित सुख भोग करोगे । साधु को देखकर कहा- हे साधो ! तुम जीवित रहो, वा मरो, अर्थात् जीवित अवस्था में भी परमानन्द है, एवं मृत्यु के बाद भी परमानन्द ही है। जब तक जीवित रहोगे, तब तक दुःखसय जड़ीय विषय में मन की आसक्ति न होने से निरन्तर श्रीहरि चरण कमल सेवा रस में निमग्न रहोंगे, देहान्त में भी सेवा परमानन्द में विभोर हो जाओगे । अतएव तुम्हारे पक्ष में जीवित रहना वा मरणा दोनों ही समान है
व्याध ! तुम, न तो जीवित ही रहो, न तो मरो, कारण, तुम्हारे पक्ष में इस जगत् एवं पर जगत् ही नहीं। जब तक जीवित रहोगे तब तक वैषयिक सुख भोग नहीं होगा। परलोक में हिंसा जनित पाप फल भोग अनिवार्य है । कारण, हिंसा विद्ध हृदय में हरि कथा माधुर्य्यास्वादन नहीं होता है । श्रीहरि कथा माधुर्य्य अति निगूढ़ है, उस को ग्रहण करने की सामर्थ्य हिंसा परायण व्याध हृदय में है ही नहीं ।
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उभयथापि तद्वहिर्मु खेभ्यो गालिप्रदान एव तात्पर्य्यम्, यथा तृतीये श्रीमैत्रेयस्य ( भा० ३।१५।५०
॥” को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्, पुराकथानां भगवत्कथा-सुधाम् ।
आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवा पहा, –महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥” ७६६ ॥ इति । राजा श्रीशुकम् ॥