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४३५ २५१

किञ्च, (भा० ५।१२।१४)

(२५१) “यत्रोत्तमश्लोकगुणानुवादः, प्रस्तूयते ग्राम्यकथा विद्यातः ।

निषेव्यमाणोऽनुदिनं मुमुक्षो,मति सहीं यच्छति वासुदेवे ॥”७६३॥

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मुमुक्षोरपि, कि पुनर्भक्तिमात्रेच्छोः, सतीं मुमुक्षाद्यन्य कामनारहिताम् तदन्या तु व्यभिचारिणीति भावः ॥ श्रीब्राह्मणो रहूगणम् ॥

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व्यतिरेकेण च ( भा० १०।१।४ ) -

(२५२) " निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्–, भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात् ।

क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्, पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥ ७६४ ॥ निवृत्तेत्यादि विशेषणत्रयेण मुक्त-मुमुक्षु विषयिजनानां ग्रहणम् । पशुघ्नो व्याधः, तस्य हि-

महिमा है, यह जानना चाहिये । मूल श्लोक में उक्त है – ‘कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः । यहाँ अमला शब्द का अर्थ है - अर्थ मोक्ष प्रभृति बाञ्छा रहिता एवं भक्तिःशब्द का अर्थ है - प्रेम भक्ति । अर्थात् जो श्रीकृष्ण चरणों में मोक्ष प्रभृति कामना शून्य होकर प्रेमभक्ति लाभेच्छ है, उसके पक्ष में निरन्तर निखिल अमङ्गल विनाशक श्रीहरि गुणानुवाद श्रव । कीर्तन करना चाहिये । श्रीशुक कहे थे । २५० ॥

४३७ २५१

भा० ५।१२।१३ मैं और भी कथित है—

(२५१) “यत्रोत्तमश्लोकगुणानुवादः, प्रस्तूयते, ग्राम्यकथाविघातः ।

निषेव्यमाणोऽनुदिनं मुमुक्षो–, मति सतों यच्छति वासुदेवे ॥” ७६३॥ टीका - महत् सेवायास्तत् प्राप्त्युपायतामाह यत्र - येषुमहत्सु । ग्राम्य कथानां विधातो यस्मात् ॥ श्रीभरत, सौवीर देशाधिपति रहूगण को कहे थे - हे राजन् ! जहाँपर उत्तम श्लोक श्रीभगवान् के भक्त वात्सल्य गुणादिका नियत कीर्त्तन होता है, वहाँ पर ग्राम्य कथा हो ही नहीं सकती। जो प्रतिदिन प्रीति एवं आदर के सहित हरिगुणानुवाद श्रवण करते हैं, वे यदि मुक्ति कामी भी होते हैं, तो भी हरि गुण श्रवण के प्रभाव से भगवान् वासुदेव में मुक्ति इच्छा प्रभृति कामना शून्य मति लाभ करते हैं । अर्थात् हरि गुण श्रवण का इस प्रकार प्रभाव है कि - यदि कोई व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, यह चतुर्वर्ग कामना के मध्य में किसी एक कामना लेकर भी श्रीहरि गुणानुवाद श्रवण करता है, तो श्रीहरि गुण श्रवण प्रभाव से चित्त से समस्त कामना वासना विदूरित हो जाती है, एवं श्रीहरि चरणों में प्रेम भक्ति लाभ होती है।

मुक्ति कामी व्यक्ति को भी जब हरिगुणानुवाद श्रवण उत्तम मति, (सती मति) प्रदान करता है, तब केवल भक्ति कामना से यदि हरिगुणानुवाद श्रवण कोई करता है, उस की सती मति होगी, इस विषय में कहना ही क्या है ? मुमुक्षादि अन्य कामना रहित मति को सती मति कहते हैं। उस से अन्य मति को अर्थात् मुमुक्षादि युक्त मति व्यभिचारिणी मति कहते हैं । यही भावार्थ है ।

श्रीब्राह्मण रहूगण को कहे थे ॥ २५१ ॥