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अथ गुण-श्रवणम् (भा० १२।३।१४–१५) -

(२५०) “कथा इमास्ते कथिता महात्मनां विताय लोकेषु यशः परेयुषाम् ।

विज्ञान-वैराग्यविवक्षया विभो, बचो विभूतीने तु पारमार्थ्यम् ॥७६० ॥

प्रापितम् । नापेषि- नापयासि । ये त्वत् कथा श्रवणमत्यादरेण कुर्वन्ति तेषां हृदि नित्यं प्रकाशस इत्यर्थः । ब्रह्मा श्रीगर्भोदकशायी को कहे थे - हे प्रभो ! आदर पूर्वक तुम्हारा भजन करने से ही भजन कारी कृतार्थ जाता है । जो तुम्हारे चरण पङ्कज के सौरभ का आघ्राण वेद रूप समीरण के द्वारा प्राप्त कर कर्ण विवर द्वारा करते हैं, अर्थात् अतिशय आदर पूर्वक तुम्हारी कथा श्रवण करते हैं, एवं परम भक्ति के सहित तुम्हारे चरण कमल को सर्व पुरुषार्थ सार मानकर ग्रहण करते हैं, वे तुम्हारे निज जन होते हैं हे नाथ ! तुम, उनके हृदय कमल को कभी भी परित्याग नहीं करते । अर्थात् नित्य ही उन के

हृदय में विद्यमान रहते हो। मूल श्लोक में ‘ये तु’ ‘तू’ शब्द का उल्लेख होने के कारण, इस प्रकार अर्थ प्रकाश होता है । पूर्व श्लोक में उक्त है - (भा० ३३६४) “योऽनादृतो नरक भाग्भिरसत् प्रसङ्गः "

अर्थात् जो असत् प्रसङ्ग अर्थात् निरीश्वर कुतर्क निष्ठ है, वह तुम्हारी परमानन्दमय परम पुरुषार्थ- सार सर्वार्थ रूप इस मूर्ति को आदर नहीं करता है । अर्थात् इस मूर्ति को मायामय कहकर अनादर करता है । उस अवज्ञा के फल से वह निश्चय ही नरक गमन करेगा, इसमें अनुमात्र भी संशय नहीं है । उल्लिखित श्रीमूर्ति की अवज्ञा कारी व्यक्ति की जो निन्दा की गई है । उस के प्रतियोगी अर्थ में ‘तु’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इस से सुस्पष्ट होता है कि जो श्रीमूर्ति की अवज्ञा करते हैं, ‘असत् प्रसङ्गः’ वे ही असत् सङ्गी हैं। उक्त श्लोक में “गृहीत चरणः " शब्द का प्रयोग हुआ है । वह भक्ति का आतिशय्य प्रकटन निबन्धन प्रयुक्त हुआ है । अर्थात् केवल चरण धारण नहीं है, किन्तु प्रेम भक्ति के द्वारा जिन्होंने तुम्हारी मूर्ति को हृदय में धारण किया है । “चरणाम्बुज कोषगन्धं” यहाँ ‘गन्ध’ शब्द प्रयोग का तात्पर्य यह है कि- जिस प्रकार परम सुगन्धि वस्तु का आस्वादन नासा विवर के द्वारा किया जाता है, उस प्रकार महाभागवत गण, कर्ण विवर के द्वारा तुम्हारे वर्ण आकारादि माधुर्य्य का आस्वादन करते रहते हैं। मूल श्लोक में उक्त है-

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‘श्रुति वातनीतं’ अर्थात् वेद एवं वेदानुगत शब्द समूह ही समीरण हैं, उस समीरण के द्वारा कर्ण विवर प्राप्त हैं । अतएव परम भागवत वृन्द कर्त्तृक प्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा ग्रहीत चरण होकर तुम उनके हृदय से विदूरित होने में सक्षम नहीं हो अर्थात् अविचल रूप से विराजित होते हो।

ब्रह्मा - श्रीगर्भोदशाथि को कहे थे ॥ २४६ ॥ २५० । अनन्तर गुण श्रवण का दृष्टान्त आ० १२।३।१४-१५ के द्वारा प्रस्तुत करते हैं-

( २५० ) " कथा इमास्ते कथिता महात्मनां विताय लोकेषु यशः परेयुषाम् ।

विज्ञान-वैराग्यविवक्षया विभो, वचो विभूतीर्न तु पारमार्थ्यम् ॥७६०॥

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यस्तूत्तमश्लोक-गुणानुवादः, संगीयतेऽभीक्ष्णममङ्गलध्नः ।

तमेव नित्यं शृणुयादभीक्ष्णं, कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः ॥ ७६१॥ कोटीका च - “राजवंशानुकीर्त्तनस्य तात्पर्यमाह, - कथा इमा इति । विज्ञानं विषयः- सारताज्ञानम्, ततो वैराग्यम्, त्योविवक्षया । परेयुषां मृतानां बचो विभूती विलासमात्र- रूपाः, पारमाध्यं परमार्थयुक्तं कथनं न भवतीत्यर्थः । कस्तहिं पुरुषाणामुषा देयः परमार्थः ? तमाह, यस्त्विति । नित्यं प्रत्यहं तत्राप्यभीक्ष्णम्” इत्येषा । अत्र यत् क्वचित् श्रीराम- लक्ष्मणादयोऽपि तेषां राज्ञां मध्ये वैराग्यार्थं छत्त्रिन्यायेन पठद्यते, तशिरस्यते । अतो यद्यपि (भा० १/१/३) “निगमकल्पतरोः” इत्याद्यनुसारेण सर्व्वस्यैव प्रसङ्गस्य रसरूपत्वम्, तथापि

यस्तूत्तमश्लोक गुणानुवादः, संगीयतेऽभीक्ष्णममङ्गलघ्नः ।

तमेव नित्यं शृणुयादभीक्ष्णं, कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समान ॥ ७६१॥

श्रीशुक - श्रीषरीक्षित् महाराज को कहे थे– राजन् ! मैं ने राजवंश का चरित्र वर्णण किया है, श्रीशुक-श्रोपरीक्षित् उसका तात्पर्य यह है कि - जो सब महापुरुष इस जगत् में यश विस्तार करके शरीर त्याग किये हैं । उन के जीवन चरित्र श्रवण करने से विषयों की असारता ज्ञान होता है । एवं उस से विषय वैराग्योदय होगा, इस अभिप्राय से हो चरित्र वर्णन मैंने किया । अर्थात् जो सब राजन्य वृन्द एकच्छत्राधिपत्य प्राप्त किये थे, वे भी विषयासक्ति हेतु अशान्ति प्राप्त कर विषय भोगोपकरण प्रिय वेह को भी परित्याग कर मृत्यु को वरण किये हैं । यह सब सुनकर मानव की विषयासक्ति निवृत्ति होगी इस उद्देश्य से ही राजवंश कह चरित्र वर्णन किया है। यह सब वाक् विलास मात्र ही है, किन्तु परमार्थ युक्त वादय नहीं हैं। इस में जिज्ञासा हो सकती है कि-परमार्थ वस्तु क्या है ? उत्तर में कहते हैं- जो श्रीकृष्ण में अमलाभक्ति लामेच्छ है, उस के पक्ष में प्रत्यह एवं प्रतिक्षण उत्तमः श्लोक श्रीकृष्ण के गुणानुवाद श्रवण करना ही कर्तव्य है । जिस से प्रतिक्षण निखिल अमङ्गल विनष्ट होते हैं। यही पारमार्थिक वस्तु है । अर्थात् श्रीहरि कथा, कीर्तन एवं श्रवण करना ही मानव वृन्द के पक्ष में परमोपादेय परमार्थ वस्तु है ।

भगवत्

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इस प्रसङ्ग में ज्ञातव्य विषय

विषय यह है कि राज वंश वर्णन प्रसङ्ग के मध्य में श्रीराम लक्ष्मण प्रभृति चरित कथा भी वर्णित है । किन्तु यह भगवत् चरित्र जो अपारमार्थिक नहीं है, उसका निरसन हुआ है । अर्थात् स्थान विशेष में राजन्य वृन्द के मध्य में वैराग्य हेतु छतिन्याय के अवलम्बन से जो श्रीरामादि चरित्र वर्णित हुआ है, उसका निरास हुआ। ‘छत्री’ न्याय यह है । छत्रधारी गमन कर रहा है, कहने से छत्र होन व्यक्ति का एवं छत्र धारि व्यक्ति का गमन प्रतीत होता है । यहाँपर श्रीरामादि भगवान् की कथा भी राज वंश कीर्तन के समय हुई है । वैराग्य शिक्षा हेतु राजवंश वर्णन एवं श्री रामादि भगवत् चरित्र वर्णन छत्रिन्याय से एकार्थ बोधक है, किन्तु इस प्रकार समझना नहीं चाहिये। कारण, वैराग्य शिक्षा हेतु राजवंश वर्णन हुआ है, एवं श्रीकृष्ण में निर्मल भक्ति लाभ हेतु श्री रामादि भगवदवतार के गुणानुवाद श्रवण है । इस प्रकार समझना होगा ।

अतएव यद्यपि भा० १।११३ श्लोक में उक्त है-

‘निगम कल्पतरोगलितं फलं शुक मुखादमृतद्रवसंयुतम् ।009 पिवत भागवतं रसमालयं मुहरहोरसिका भुविभाबुकाः ॥”

श्रीमद् भागवत - वेद रूप कल्पतरु के रस मय फल है । अतः श्रीमद् भागवत के समस्त प्रसङ्ग ही

[

सानाद्भक्तिमयशान्तादिरसरूपत्वं

(IIT) [५१३ क्वचित्तदुपकरण- शान्तादिरसरूपत्वश्च

क्वचित् समर्थनीयम् । अस्ति हि तत्र तत्र भक्तिरसेष्वपि तारतम्यमिति । गुणाः कारुण्यादयः । तद्गुणकीर्तेः स्वभाव एवासाविति श्रीगीतास्वपि दृष्टम् ( गी० ११।३६ ) - " स्थाने हृषीकेश तव प्रकी, जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च " इत्यादौ । अत्र महाभागवतानामपि भगवत इव गुणश्रवणं मतम्, ( गा० १११६/६ ) -

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(१०))

“तत् कथ्यतां महाभाग यदि कृष्णकथाश्रयम् । अथवास्य पदाम्भोज - मकरन्द लिहां सताम् ॥ " ७६२ ॥

(59)

इति शौनकोक्तेः । यद्यप्यत्र गुण-शब्देन रूप- लीलयोरपि सौष्ठवं गृह्यते, तथापि तत् प्राधान्यनिद्दशात् पृथग् ग्रहणम् । एवमुत्तरत्रापि । भक्ति प्रेमाणम्, अमलां कैवल्यादीच्छा- रहिताम् ॥ श्रीशुकः ॥

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रस रूप है, तथापि किसी प्रसङ्ग में साक्षात् भक्तिमय शान्त दास्य प्रभृति रसमयत्व वर्णित है, एवं किसी प्रसङ्ग में शान्त दास्यावि, भक्ति रस के उपकरण रूप में वर्णित हैं। इस रीति से श्रीमद् भागवत के वर्णित समस्त विषय का ही रसरूपत्व है - इस प्रकार सिद्धान्त को जानना कर्त्तव्य है । शान्तादि रस के मध्य में भी तारतम्य है। मूल श्लोक में लिखित- ‘गुणानुवादः’ है, गुणानुवाद श्रवण करना चाहिये । यहाँ हरिगुण शब्द का अर्थ है कारुण्यादि । भगवद् गुण कीर्तन का स्वभाव ही यह है कि जो गुण कीर्तन वा श्रवण करता है, उसका हृदय आनन्द से उल्लसित हो उठता है, एवं श्रीभगवान् के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है । श्रीगीता में वर्णित है- ( गी० ११०३६)8

“स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्त्या जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च " ॥

हे हृषीकेश ! तुम्हारे गुण कीर्तन द्वारा जगत् वासी जन निकर आनन्दित होते हैं, एवं तुम्हारे प्रति अनुरक्त होते हैं । यह युक्ति युक्त ही है ।

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जिस प्रकार भगवान् के गुण श्रवण परम मङ्गल कर है, उस प्रकार महाभागवत वृन्द के गुण कीर्त्तन भी श्रीभगवान् में प्रीत्युत्पादक है, एवं उस से विषय वैराग्योदय भी होता है । इस अभिप्राय से ही भा० १।१६।६ में श्रीशौनक श्रीसूत को कहे थे-

तत् कथ्यतां महाभाग यदि कृष्ण कथा श्रयम् ।

अयवास्य पदाम्भोज - मकरन्द लिहां सताम् ॥ ७६२॥

टीका - अस्य विष्णोः पदाम्भोजयोर्यो मकरन्दस्तं लिहन्ति आस्वादयन्ति ये तेषां सतां महतां वा कथाश्रयमिति समासान्निष्कृष्यानुषङ्गः " तहि कथ्यताम् ।

हे महाभाग ! यदि कृष्ण कथाश्रय प्रसङ्ग हो, अथवा उस में यदि श्रीविष्णु के पाद पद्म मकरन्द आस्वादनकारिभक्त वृन्द की कथा हो तो, उस का वर्णन आप करे । यद्यपि “यस्तुत्तम श्लोकगुणानुवादः श्लोक में गुणवाद विहित है। उपलक्षण में रूप एवं लोला कथा का सौष्ठव भी गृहीत होता है, तथापि गुण कीर्तन का निर्देश प्रधान रूप से होने के कारण, पृथक् रूप से गुण शब्द का ग्रहण हुआ है । इस प्रकार जहाँ पर एक भक्ति के अङ्ग का वर्णन है, वहाँ अन्य भक्ति के अङ्ग को समझ लेना चाहिये । अभिप्राय यह है कि- जिस प्रकार भगवत् गुण कीर्तन की महिमा है, उस प्रकार ही नाम, रूप, लीला, कीर्तन की भी

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