२४८

४३० २४८

अथ क्रमप्राप्त श्रवणम् । तच्च नाम-रूप-गुण-लीलामय शब्दानां श्रोत्रस्पर्शः । तत्र नामश्रवणं यथा ( भा० ६।१६।४४)

(२४८) “न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान्नृणाम खिलपापक्षयः ।

यन्नामसकृच्छ्रवणात्, पुक्कशोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥ ७५८ ॥

तादृशस्यापि सकृच्छ्रवणेऽपि मुक्ति फलप्राप्तेरुत्तमस्य तच्छ्रुवणे तु परमभक्तिरेव फलमित्यभि-

प्रेतम् ॥ चित्रकेतुः श्रीसङ्कर्षणम् ॥

४३१ २४६

अथ रूप-श्रवणम् (भा० ३।०१५)

(२४६) “ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोषगन्ध'

जिघ्रन्ति कर्णविवरेः श्रुतिवातनीतम् ।

भक्तया गृहोतचरणः परया च तेषां

नापेषि नाथ हृदयाम्बुरुहात् स्वपुंसाम् ॥” ७५६॥

तु-शब्दो ( भा० ३०६४) “योऽनादृतो नरकभाग्भिरसत् प्रसङ्गः” इति पूर्वोक्त-निन्दितानां निबन्धन चित्रा मालिन्य, आगामी संसार भय, अर्थात् संसार जाल में आबद्ध होना पड़ेगा, इस प्रकार भय एवं संसार का मूल - भगवत् वहिर्मुखता रूप अज्ञान विनष्ट होता है । श्रीभगवान् कहे थे ॥ २४७ ॥

४३२ २४८

अनन्तर क्रम प्राप्त श्रवणादि भक्ति का विचार करते हैं । नाम, रूप, गुण लीलामय शब्द समूह का श्रवणेन्द्रिय गोचर होना ही श्रवण है। नाम श्रवण का उदाहरण भा० ६।१६।४४ में है- rp (२४८) “न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान्नृणामखिलापापक्षयः ।

यन्नामसकृच्छ्रवणात्, पुक्कशोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥ ७५८ ॥

टीका - एवम्भूतस्य भागवतधर्म्म प्रवर्त्तकस्य तवदर्शनात् सर्वपापक्षयो भवतीति किचित्रमित्याह महीति ।

चित्र केतु महाराज, श्रीसङ्कर्षण देव को कहे थे । हे भगवन् ! आप के दर्शन से मानव वृन्द के अखिल पाप विनष्ट होते हैं, यह अमम्भव नहीं है । कारण, आप के नाम का श्रवण एकवार मात्र होने से अति हीन जाति पुक्कश भी संसार से मुक्त हो जाता है। एकवार मात्र श्रीहरिनाम श्रवण से अतिनीच जाति

पुक्कश भी यदि मुक्त होता है तो, उत्तम जाति वा उत्तम चित्त सम्पन्न मानव, नाम श्रवण करके आप के चरणों में अवश्य भक्ति लाभ करेगा। । उक्त कथन का यह अभिप्राय है ।

चित्रकेतु श्रीसङ्कर्षण को कहे थे ॥ २४८ ॥