४२७ २४७
वैष्णवमात्राणाञ्च यथायोग्यमाराधनं यथेतिहास- समुच्चये-
तस्माद् विष्णुप्रसादाय वैष्णवान् परितोषयेत् । प्रसादसुमुखो विष्णुस्तेनैव स्यान्न संशयः ॥ ७३७॥ इति, व्यतिरेकेणापि पाद्मोत्तरखण्डे –
“अर्चयित्वा तु गोविन्दं तदीयान् नार्चयेत्तु यः । न स भागवतो ज्ञ ेयः केवलं दाम्भिकः स्मृतः ॥७३८ इति
४२८ २४६
अनन्तर भा० ४।६।१२ के द्वारा महाभागवत सेवा से सिद्ध व्यक्ति का दृष्टान्त उपस्थित करते हैं-
(२४५) " ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मत्यं
ये चान्वदः सुत - सुहृद्गृह-वित्त-दाराः।
ये त्वब्जनाभ भवदीयपदारविन्द-
सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसक्ताः ॥ ७३६ ॥
टोका-कथामृत पानस्य मादकत्वमाह । ते अतितरां प्रियमपि मत्स्यं देहं न स्मरति, तन्नानुसन्दधते । ये च सुतादयः अदः मर्त्यमनु सम्बन्धाः, तानपि, के ते न स्मरन्ति ? ये कृत प्रसङ्गाः । वेषु ? भवदीय पदार विन्द सौगन्ध्ये लुब्धं हृदयं येषां तेषु । तु शब्दन न्येषां केवलयोगादिनिष्ठानां देहाद्यभिमानानिवृत्ति दर्शयति ।
श्रीध्रुव, - पद्म पलाश लोचन श्रीहरि को कहे थे । हे कमल नाम । जो आप के चरणारविन्द सौगन्ध्य प्राप्त हेतु लुब्ध चित्त हैं, वे सब महा भागवत गण के प्रसङ्ग जिन्होंने किया है, वे अत्यन्त प्रिय निज मदेहकी एवं देह सम्बन्ध से जो सब प्रिय हैं, इस प्रकार पुत्र सुहृद् गृहवित्त स्त्री प्रभृति का स्मरण कभी भी नहीं करते हैं ।
ध्रुव श्रीध्र ुवप्रिय को कहे थे ॥ २४६ ॥ ।
४२९ २४७
इतिहास समुच्चय नामक ग्रन्थ में वैष्णवमात्र की ही आराधना का वृत्तान्त वर्णित है-
“तस्माद् विष्णुप्रसादाय वैष्णवान् परितोषयेत् ।
प्रसादसुमुखो विष्णुस्तेनंव स्यान्न संशयः ॥ ७३७॥
J
अतएव श्रीविष्णु की प्रसन्नता हेतु वैष्णव वृन्द को सन्तुष्ट करना कर्तव्य है । भगवान् श्रीविष्णु, वैष्णव सन्तोष के द्वारा ही प्रसन्न होते हैं । इस में कुछ भी सन्देह नहीं है। अतएव निषेध के द्वारा पाद्मोत्तर खण्ड में लिखित है ।
“अच्चयित्वा तु गोविन्दं तदीयान् नार्चयेत्तु यः ।
न स भागवतो ज्ञ ेयः केवलं दाम्भिकः स्मृतः ॥७३८ ॥
जो, श्रीगोविश्व देव की अर्चना करके उनके भक्त वृन्द की अर्चना नहीं करता है, वह भगवद् भक्त
तत्र (भा० ४।२१।१२)
[[५०३]]
“सर्व्वत्र स्खलिता देशः सप्तद्वीपक दण्डधृक् ।
अन्यत्र ब्राह्मणकुलादन्यत्राच्युत गोत्रतः ॥ " ७३६ ॥
इति श्रीपृयुचरितानुसारेण यत् किचिज्जातावप्युत्तमत्वमेव मन्तव्यम्, (भा० ७ १११३५) -
“यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ७४०॥
नारदोक्तिदृष्टान्तेन वा, यथोक्तं पाद्म-
क
“किमत्र बहुनोक्त ेन ब्राह्मणा येऽप्यवैष्णवाः । न द्रष्टव्या न स्प्रष्टव्या न वक्तव्याः कदाचन ॥ ७४१ ॥
नहीं हो सकता है । उस को दाम्भिक, अभिमानी व्यक्ति जानना चाहिये । भा० ४।२१।१२ में उक्त है-
“सव्वं त्रास्खलितादेशः सप्तद्वीपक दण्डधृक् ।
अन्यत्र ब्रह्मणकुलादन्यत्र च्युत गोत्रतः ॥ ७३६ ॥
टोका - अस्खलितः अप्रतिहतः, आदेश आज्ञा यस्य, सप्तदीपेषु एक एव दण्डं धारयतीति तथा, कि सर्व न ? नेत्याह । ब्राह्मण कुलं व्यतिरेकेण, अच्युतो गोत्रप्रवर्त्तक तुल्यो येषां वैष्णवानां तद्वयतिरेकेण च । आदिराज पृथु - सप्तद्वीपाधीश्वर होकर सब के प्रति शासन दण्ड धारण किये थे । उन का आदेश लङ्घन किसी ने भी नहीं किया था । किन्तु पृथुमहाराज, कभी भी ब्राह्मण बुन्द के प्रति एवं अच्युत गोत्र श्रीभगवद् भक्त के प्रति दण्ड विधान नहीं किये थे । पृथु महाराज के चरित्र के अनुसार जानना होगा कि- भगवद् भक्त जिस किसी जाति के क्यों न हों, उनको उत्तम जाति मानना चाहिये । भा० ७७११।३५ में लिखित है-
“यस्थ यल्लक्षणं प्रोक्त पूसो वर्णाभिव्यञ्जकम् । यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥”७४० ॥
टीका - शमादिभिरेव ब्राह्मणादि व्यवहारो मुख्यः, न जाति मात्रादित्याह । यस्येति । यद् यदि अन्यत्र वर्णान्तरेष्वपि दृश्येत, बद्वर्णान्तरं तेनैव लक्षण निमित्तेनेव वर्णेन विनिद्दिशेत् न तु जाति निमित्तेनेत्यर्थः ।
देवर्षि नारद श्रीयुधिष्ठिर महाराज को कहे थे - वर्णादि परिचायक लक्षण जिस का जो कहा गया है। अन्य वर्ण में भी यदि उसका प्रकाश होता है तो, उस जाति वा वर्ण का निरूपण उस लक्षण के द्वारा ही करना चाहिये । अर्थात् अत्ति होन जाति में यदि उत्तम जाति का उत्तम वर्णोचित लक्षण दृष्ट होता है तो, उस को उस लक्षण के अनुसार ही अभिहित करना कर्त्तव्य है । यदि उत्तम जाति वा वर्ण में हीन जाति वा वर्ण के अनुरूप लक्षण प्रकाशित होता है, उस उत्तम जाति वा वर्ण को हीन जाति गत लक्षण के द्वारा निरूपण करना चाहिये । अर्थात् उत्तम में होन लक्षण दृष्ट होन से उत्तम को होन कहना कर्त्तव्य है, और हीन में उत्तम लक्षण प्रकाशित होने पर उस को उत्तम कहना कर्त्तव्य है । यहाँ गुण का प्राधान्य है, जन्म का नहीं। श्रीनारद कथित प्रमाण के द्वारा प्रतिपक्ष होता है कि-हीन जाति में वैष्णवोचित लक्षण प्रकाश होन से उस की होन जाति न मानकर वैष्णवोचित सम्मान प्रदान करना कर्तव्य है ।
श्रीनारदोक्ति प्रमाण के द्वारा भी उक्त सिद्धान्त प्रतिपादित होता है। पद्म पुराण में लिखित है
“किमत्र वहुतोक्तेन ब्राह्मणा येऽष्य वैष्णवाः ।
न द्रष्टा ने स्त्रष्टव्या न बक्तव्याः कदाचन ॥ ७४१ ॥
1 -
[[५०४]]
तत्र माघ माहात्म्ये च -
" श्वपाकमित्र नेक्षेत लं के विश्रमवैष्णवम् । वैष्णवो वर्णवाह्योऽपि पुनाति भुवनत्रयम् ॥ ७४२॥ न शूद्रा भगवद्भक्तास्ते तु भागवता नराः । सर्व्ववणेषु ते शूद्रा ये न भक्ता जनार्द्दने ॥ ७४३॥ इतिहाससमुच्चये -
“स्मृतः सम्भाषितो वापि पूजितो वा द्विजोत्तस । पुनाति भगवद्भक्तश्चाण्डालोऽपि यदृच्छया ।” ७४४ अन्यथा दोषश्रवणञ्च तत्रैक
[[1]]
g
“शूद्रं वा भगवद्भक्तं निषाद स्वपचं तथा । वीक्षते जातिसामान्यात् स याति नरकं ध्रुवम् ॥ ७४५ ॥ भक्तिवैशिष्टेच तु वैशिष्टयमपि दृश्यते, यथा गारुड़ े-
क
“मद्भक्तजन वात्सल्यं पूजायाश्चानुमोदनम् । मत्कथा श्रवणे प्रीतिः स्वर-नेवादि विक्रिया ॥७४६॥
बहु भाषण की आवश्यकता हो क्या है ? अवैष्णव ब्राह्मण गण को देखना पूछना एवं उन सब के सहित वार्तालाप करना कर्तव्य नहीं हैं । पद्म पुराण के माघ माहात्म्य वर्णन प्रसङ्ग में लिखित है-
“श्वपाकमिव नेक्षेत लोके विप्रमवैष्णवम् ।
को
वैष्णवो वर्णव ह्योऽपि पुनाति भुवनत्रयम् ॥७४२॥
न शूद्रा भगवद्भक्तास्ते तु भागवता नराः । सर्व्ववर्णेषु ते शूद्रा ये न भक्ता जनार्द्दने ॥ ७४३॥
"
वैष्णव, अर्वाणिक होने पर भी भक्ति के द्वारा त्रिभुवन को पवित्र करने में सक्षम है, किन्तु ब्राह्मण वंश में उत्पन्न रोकर भी यदि विष्णु भक्त नहीं होता है तो, उस को अति हीन जाति श्वपाक के समान भी देखना नहीं चाहिये। जो ऐकान्तिक भगवद् भक्त हैं, वे शूद्र नहीं हैं, अर्थात् जाति वर्ण के अतीत है । कारण, जाति एवं वर्ण, मायिक गुणमय है, किन्तु भगवत् भक्ति निर्गुण है, जिस में भगवद् भक्ति है, उस को जाति वर्ण के अन्तर्भूत मानना अपराध है । इस अभिप्राय से ही मूल श्लोक में कहा गया है— ते तु भागवता नराः " वे सब मनुष्य भागवत हैं । अर्थात् भागवत संज्ञा से अभिहित हैं । श्रीभगवान् के निजजन हैं । समस्त वर्णों के मध्य में वे ही शूद्र हैं, जो भक्ति हीन जीवन धारण करते हैं । इतिहास समुच्चय में भी लिखित है-
“स्मृतः सम्भाषितो वापि पूजिनो वा द्विजोत्तम
पुनाति भगवद्भक्तश्चाण्डालोऽपि यदृच्छया ॥ ७४४ ॥
।
चण्ड ल जाति में उत्पन्न होकर भी यदि श्रीभगवान् में भक्तिमान् होता है तो, उसका स्मरण करने से उस के सहित सम्भाषण करने से अथवा उसकी पूजा करने से, हे द्विजोत्तम ! हृदय में श्रीहरिस्मृति उबुद्ध होकर जीवन पवित्र होता है। यदि होन कुल में उत्पन्न होने के कारण, वैष्णव की अवज्ञा जाति बुद्धि से को जाती है तो - इतिहास समुच्चय ग्रन्थ में दोष का वर्णन हुआ है।
“शूद्र’ वा भगवद्भक्त निषादं श्वपचं तथा ।
वीक्षते जातिसामान्यात् स जाति नरकं ध्रुवम् ॥ ७४५॥
न
जो साधरण जाति दृष्टि से शूद्र, व्याध, किंवा श्वपच जाति में समुत्पन्न भगवद् भक्त को हीन जाति बुद्धि से देखता है, उसका नरक गमन सुनिश्चित है, इस में संशय ही हो नहीं । जहाँ भक्ति का वैशिष्टय है, उसका सम्मान को भी वैशिष्ट्य दृष्ट होता है। इस का वर्णन गरुड़ पुराण में है-
“मद्भक्तजन वात्सल्यं पूजयाञ्चानुमोदनम्
मतकथा श्रवणे प्रीतिः स्वर–नेत्रादि-विक्रिया ॥७४६ ॥
[[५०५]]
“विष्णोश्च कारणं नृत्यं तदर्थे दम्भवर्जनम् । स्वयमभ्यर्चनं चैव यो विष्णु ं नोपजीवति ॥७४७ ॥ भक्तिरष्टविधा ह्य ेषा यस्मिन् म्लेच्छेऽपि वर्त्तते । स विप्र ेन्द्रो मुनिश्र ेष्ठः स ज्ञानी स च पण्डितः ॥
तस्मै देयं ततो ग्राह्य
ं स च पूज्यो यथा हरिः ॥ ७४८ ॥ इति
अतएवाह भगवान्
பிரா
!
" न मे भक्तश्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्वपचः प्रियः ।
तस्मै देयं ततो ग्राह्यं स च पूज्यो यथा ह्यहम् ॥ ७४६ । इति ।
अतएव ज्ञातभक्ति महिम्ना सता दुर्वाससापि श्रीमदम्बरीषस्य पादग्रहणमप्याचरितम्, किन्तु अम्बरीषस्यानभीष्टमेव तदिति तत्रव व्यक्तत्वात्, श्रीभगवता श्रीमदुद्धवादिभिश्च
विष्णोश्च कारणं नृत्यं तदथ वम्भवर्जनम् स्वयमभ्यर्चनं चैव यो विष्णु ं नोपजीवति ॥७४७ ॥ भक्तिरष्टविधा ह्येषा यस्मिन् म्लेच्छेऽपि वर्त्तते । स विप्रेन्द्रो मुनिश्रेष्ठः स ज्ञानी स च पण्डितः ॥
तस्मै देयं ततो ग्राह्यं स च पूज्यो यथा हरिः ॥ " ७४८ ।
(१) मेरा भक्त जन में वात्सल्य, (२) मेरी पूजा का अनुमोदन, (३) मेरी कथा श्रवण में प्रीति, (४) कथा श्रवण कीर्त्तनादि से रबर, नेत्र, मुख प्रभृति में प्रेमज विकृति (५) श्रीविष्णु सन्तोषार्थं नृत्य, (६) श्रीविष्णु सन्तोषार्थ निरभिमान (७) स्वयं सब की पूजा करना (८) श्रीविष्णु विग्रह को जीविका रूप में* अवलम्बन न करना, यह अष्टविधा भक्ति, यदि किसी म्लेच्छ मैं भी देखी जाति हैं, तो वह म्लेच्छ होने पर भी ब्राह्मण कुल के मध्य में इन्द्र तुल्य, गृहस्थ होकर भी मुनि वृन्द में श्रेष्ठ एवं मूर्ख होकर पण्डित है । उस को दान देना चाहिये, उस से ग्रहण करना चाहिये, एवं श्री हरि जिस प्रकार श्रेष्ठ हैं, वह म्लेच्छ भी उस प्रकार पूज्य है । अतएव भगवान् कहे थे
“न मे भक्तश्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्वपचः प्रियः ।
तस्मै देयं ततो ग्राह्यं स च पूज्यो यथा ह्यहन् ॥ ७४६
चतुर्वेदाभ्यासी ब्राह्मण, यदि मेरा भक्त नहीं होता है तो, वह मेरा प्रिय नहीं है । किन्तु चण्डाल • यदि मेरा भक्त होता है तो, वह मेरा प्रिय है । उस को सत् पात्र मानकर दान करे एवं उस के निकट से ग्रहण भी करना चाहिये । अर्थात् भक्ति सम्बन्ध के बिना कोई भी मेरा प्रिय नहीं हो सकता हैं । मैं जिस प्रकार पूज्य हूँ, उस प्रकार मेरा भक्त श्वपच भी पूज्य है ।
[[15]]
अतएव दुर्वासा ऋषि भक्ति महिमा को अवगत होकर श्रीमान् अम्बरीष के चरण ग्रहण करने का अभिलाषी हुये थे । किन्तु महाराज अम्बरीष के पक्ष में वह आचरण अनभीष्ट था। कारण, श्रीभगवान् कदापि ब्राह्मण की अमर्यादा को सहन नहीं करते हैं, अतः भक्त स्वभावसुलभ ब्राह्मण मर्यादा कारित्व गुण मण्डित महाराज अम्बरीष निज चरण ग्रहण करने नहीं दिये थे । श्रीभगवान् भक्त श्रेष्ठ श्रीउद्धव प्रभृति के द्वारा ब्राह्मणों के चरण वन्दन कराये थे । अन्यान्य वैष्णव वृन्द को अवैष्णव ब्राह्मण के द्वारा भी निज चरणों में प्रणाम करना नहीं चाहिये । अर्थात् दुर्वासा अम्बरीष महाराज के चरण स्पर्श करने के निमित्त उद्यत हुये थे। हार में उक्त है-
RP 18
“तस्य सोद्यममावीक्ष्य पादस्पर्शविलज्जितः ।
अस्तावीत् तद् धरेरस्त्रं कृपया पीड़ितो भृशम् ॥”
[[५०६]]
ब्राह्मणमात्रस्य वन्दनाच्च, इतरवैष्णवैस्तु तत् सर्वथा न मन्तव्यम्, (भा० १०६३/४१ ) -
“विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः ।
घनन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ॥ " ७५०॥
इति भगवदा देशभङ्गप्रसङ्गाच्च । “श्वपाकमिव नेक्षेत’ इत्यादिकन्तु तद्दर्शनासक्तिनिषेधपरत्वेन समाधेयम्, दृश्यते च युधिष्ठिर द्रौपद्यादीनामश्वत्थाम्नि तथा व्यवहारः । वैष्णवपूजकेरतु चंष्णवानामाचारोऽपि न विचारणीयः, ( गी० ६।३०) “अपि चेत् सुदुराचारः” इत्यादेः । यथोक्तं गारुड़ -
“विष्णु भक्तिसमायुक्तो मिथ्याचारोऽप्यनाश्रमी । पुनाति सकलान् लोकान् महस्रांशुरिवोदितः ॥ ७५१॥
इस प्रकार आदर्श से प्रेरित होकर मैं वैष्णव हूँ, ब्राह्मणों से श्रेष्ठ हूँ इस प्रकार अभिमानी होकर कदापि ब्राह्मणों का असम्मान वा अनादर न करे । ब्राह्मण के प्रति सर्वदा पूज्य बुद्धि रखनी चाहिये । कारण, भगवान् स्वयं ही कहे हैं - “अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकीतनुः ‘‘मूर्ख हो वा पण्डित ही हो ब्राह्मण मेरा शरीर है । भा० १०।६४।४१ में भगवान् यादवगण को कहे थे-
“विप्र ं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः ।
घनन्तं बहु शरन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ॥ ७५०॥
ब्राह्मण यदि अपराध भी करते हैं, तथापि मदीय जन ब्राह्मणों के प्रति द्रोह आचरण न करे । ब्राह्मण, आघात करने पर भी एवं अभिशम्पात करने पर भी उन सब को नित्य प्रणाम करे । इस प्रकार श्रीभगवदादेश लङ्घन करने से दोष होता है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि पहले कहा गया है कि– अवैष्णव ब्राह्मण को नीच जाति श्वपाक के समान भी न देखे । प्रस्तुत स्थल में कहते हैं कि - ब्राह्मण जंसा भी क्यों न हों, उनको नमस्कार करना चाहिये । विरुद्ध वाक्य द्वय का समाधान क्या है ? उत्तर में कहते हैं । तद्
दर्शनासक्ति निषेध परत्वेन समाधेयम्” अर्थात् अवैष्णव ब्राह्मण के दर्शन में आसक्ति नहीं करनी चाहिये। इस प्रकार समाधान कर लेना चाहिये । तात्पर्य यह है कि-ब्राह्मण, अवैष्णव होने पर, उनको दूर से प्रणाम करे ।
THIS
किन्तु उन सहित इस प्रकार प्रसङ्ग के देखने में भी आता है कि- वैष्णव द्रोही अश्वत्थामा के प्रति परम भागवत श्रीयुधिष्ठिर द्रोपदी का प्रणामादि व्यवहार । वैष्णवों की पूजा करना ही जिनका स्वभाव है, उन के पक्ष में वैष्णवों का आचरण पर विचार करना उचित नहीं है। कारण, भगवान् ( गी० ९1३०) में कहे हैं-
“अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् "
जो एकान्त भाव से श्रीहरि का भजन करता है, एवं अन्य देव देवी का भजन स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धि से नहीं करता है, वह एकनिष्ट भजन शोल भक्त यदि इस के पहले दुष्कर्मनिरत एवं असढाचार परायण था, ऐसा होने पर भी उसको साधु मानने का आदेश श्रीभगवान् का है । किन्तु सतता के सहित एकनिष्ठ भजन परावण न होने से उस के पक्ष में ‘अपिचेत् सुदुराचारः” उपदेश प्रयोज्य नहीं होगा । कारण, भक्तत्व एवं सुदुराचारत्व का सामानाधिकरण्य असम्भव ही है । दुराचारत्व की निवृत्ति होने से ही भजन में प्रवृत्ति होती है, भजन में प्रवृत्ति होने से स्वतन्त्र वर्णित शरणागत अवस्था उपस्थित होती है, उस से स्वेच्छाचारिता नहीं रहती है । स्वेच्छाचारिता का ही फल है, सुदुराचारत्व । गरुड़ पुराण में लिखित है-
“विष्णु भक्तिसमायुक्तो मिथ्याचारोऽप्यनाश्रमी ।
एक
[[५०७]]
तदेतदुदाहृतमेव, (भा० ३।३३ ७) “अहो वत श्वपचोतो गरीयान्, यजिह्वाग्रं वर्तते नाम तुभ्यम्” इत्यादौ - अत्र श्वपच शब्दो यौगिकार्थ- पुरस्कारेणैव वर्त्तते । ततो दुर्जातित्वेन दुराचारत्वेनापि नावमन्तव्यस्तद्भक्तजनः, स्वावमःतृत्वेन तु सुतराम् । अतएवोक्तं गारुड़ -
" रुक्षाक्षरन्तु शृण्वन् वै तथा भागवतेरितम् ।
वै
।
प्रणामपूर्वं तं क्षान्त्या यो वदेद् वैष्णवो हि सः ॥७५२ ॥
तदेवं महदादिसेवा दर्शिता । अस्याश्च श्रवणादितः पूर्वत्वम्, – (भा० ५।५।२) “महत् सेव द्वारमाहुर्विमुक्ते, स्तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम्” इत्युक्तेः । तेभ्यो महद्भ्यस्त्वन्यदपि किमपि
पुनःति सकलान् लोकान् सहस्रांशुरिवोदितः ॥ " ७५१ ॥ इति ।
मिथ्याचार परायण अनाश्रमी होकर भी जो श्रीविष्णु में भक्तिमान् होता है. वह समस्त लोकों को पवित्र करने में समर्थ है । सहस्रांशु सूर्य जिस प्रकार अन्धकार विदूरित करके वस्तु प्रकाश करते हैं, उस प्रकार विष्णु भक्त को भी जानना चाहिये। इस विषय का उदाहरण पूर्व ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है । भा० ३।३३।७ में उक्त है ॥
अहोवत श्वपचोऽतो गरीयान् ।
यज्जिह्वाग्र े वर्त्तते नामतुभ्यम् ।
ते पुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नु राय ।
ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति येते ॥
जननी देवहूति कपिल को बोली थीं- कपिल ! तुम्हारे सुख हेतु जिस की जिह्वा के अग्रभाग में तुम्हारा नाम रहता है, वह यदि श्वपच भी होता है तो, तुम्हारे सुख हेतु तुम्हारा नामग्रहण करने के कारण- वह श्रीगुरु देव के तुल्य पूज्य होता है । यह अतीव आश्चर्य एवं आनन्द का संवाद है, जो तुम्हारे नाम को कर्ण से रसना से एवं मन से श्रवण, कीर्तन, स्मरण रूप से ग्रहण करते हैं, वे तपस्या न करने पर भी तपस्या हो गई है, यज्ञ न करने पर भी यज्ञ समूह में आहूति दान सम्पन्न हुआ है। तीर्थ भ्रमण न करनें पर भी समस्त तीर्थ स्नान भ्रमण सम्पन्न हुआ है । अनार्य वंश में जन्म ग्रहण करके भी सब के निकट वे पूज्य हुये हैं । वेद वेदान्त अध्ययन न करने पर भी समस्त अध्ययन पूर्ण हुआ है । यहाँ ‘श्वपच’ शब्द का प्रयोग यौगिकार्थ में हुआ है । अर्थात् ‘श्व’ शब्द का अर्थ- कुक्कुर है, ‘पच’ शब्द का अर्थ है पाक करना । जो भोजन हेतु कुक्कुर मांस पाक करता है, इस प्रकार श्वपच भी श्रीहरिभक्त होने पर उस को अवज्ञा करना दोषावह है। अतः दुर्जातित्व दुराचारत्व का अनुसन्धान करके भक्त का अनादर करना नहीं चाहिये । भक्ति मार्ग में प्रविष्ट व्यक्ति की स्थिति जब वैसी है तब स्वयं को यदि कोई अपमान करता है, तो भी विष्णु भक्त को प्रत्याचरण से अपमान करना निषिद्ध ही है, उस को तो सुतरां ही जानना होगा । अतएव गरुड़ पुराण में लिखित है-
‘रुक्षाक्षरन्तु शृण्वन् वै तथा भागवतेरितम् ।
प्रणाम पूर्वं तं क्षान्त्या यो वदेद् वैष्णवो हि सः ॥ " ७५२ ॥ ०
किसी भगवद् भक्त के मुख से उच्चारित रुक्ष वाक्य को सुनकर जो उन को प्रणाम पूर्वक क्षमा गुण सम्पन्न होकर उन रुक्षभाषी वैष्णव के सहित मधुर भाषा से आलाप करता है, वही वैष्णव है ।
।
पूर्व कथित प्रकार से महापुरुष प्रभृति की सेवा का वर्णन हुआ। श्रवण कीर्त्तनादि भक्तचङ्ग साधन के पूर्व में महापुरुष प्रभृति की सेवा का जो कथन हुआ है, उस का उद्देश्य यह है कि भा० ५।५।२ में
[[५०८]]
परममङ्गलायनं जायते, यथा ( भा० ११।२६।२८–३१)
( २४७ ) " तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः ।
सम्भवन्ति हि ता नृणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम् ॥७५३॥
- ये शृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चाहताः ।
त्ता
सत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्ति विन्दन्ति ते मयि । ७५४ ॥
- । भक्ति लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते ।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि ॥७५५॥ यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम् ।
शीतं भयं तमोऽध्येति साधून संसेवतस्तथा ॥७५६॥
fatory “posp
[[1]]
तेषु (भा० ११३२६।२७) “सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः” इत्याद्य क्त-लक्षणेषु, भक्ति प्रेम ।
श्रीभगवान् ऋषभदेव निज पुत्र भरत को कहे थे-
“मह सेवां द्वारमाहुविमुक्त स्तम द्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम् ॥”
हे भरत ! महापुरुष की सेवा विमुक्ति का द्वार स्वरूप है । और योषित् सङ्ग गण के सङ्ग अर्थात् स्त्रैण पुरुष का सङ्ग-नरक का द्वार है, इस प्रकार उल्लेख होने के कारण, महापुरुष की सेवा से ही परम कल्याण साधित होता है। विशेष कर उन सब महापुरुष से अपर किसी एक अनिर्वचनीय परम मङ्गल भी होता है । भा० ११।२६।२८ - ३१ में उक्त है-
ि
कि
(२४७) “तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः ।
सम्भवन्ति हि ता नृणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम् ॥७५३॥ ता ये शृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चादृताः ।
ता ये शृण्वन्ति गायन्ति
मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्ति विन्दन्ति ते मयि ॥ ७५४ ॥ भक्त लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते ।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यः नन्दानुभवात्मनि । ७५५॥
FF
यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम्
"
शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस्तथा ॥ ७५६॥
g
टीका- न च तेषु उपदेशापेक्षा अपितु केवलं तत् सन्निधिरेव तारयतीत्याह तेष्विति सप्तभिः । २८। श्रवणादिभिरेव मत् पराः । श्रद्दधानाश्च सन्तो भक्ति विन्दन्ति ।२६-३०। विभावसुमग्नि सेवमानस्य अप्येति नश्यति, यथा तथा कर्म जाड्यमागामि संसार भयं तन्मूलमज्ञानञ्च नश्यतीत्यर्थः ॥३१।
भगवान् श्रीकृष्ण - श्रीउद्धव को कहे थे - हे महाभाग ! उक्त लक्षणाक्रान्त महापुरुष वृन्द के सहित नित्य मेरी कथा होती रहती है । जो सब भाग्यवान् जीव उन महापुरुष वृन्द के मुखोच्चारित मेरी कथामृत का आस्वादन करते हैं, वे समस्त पापों से एवं अपराधों से मुक्त होकर पवित्रता को प्राप्त करते हैं । उन सब महतों के मुख से विगलित मेरे कथामृत का श्रवण जो अ. दर के सहित करते हैं, गान करते हैं, अथवा अनुमोदन कर रहे हैं, वह सब मुझ में एकमात्र निष्ठा एवं श्रद्धा युक्त भक्त गण मुझ में पराभक्ति को प्राप्त करते हैं । अनन्त गुण आनन्द एवं अनुभव स्वरूप परम ब्रह्म स्वरूप मुझ में जिसने भक्ति लाभ किया है, उस को कौन अवशेष रह जाता है ? जिस प्रकार विभावसु अग्नि को आश्रय करने से आनुषङ्गिक रूपश्रीभक्ति सन्दर्भः
[[५०६]]
अतएवोक्तं श्रीरुद्र ेण ( भा० ४१२४/५७)
“क्षणार्द्धनापि तुलये न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
भगवत्सङ्गसङ्गस्य मर्त्यानां किसुता शिषः ॥ ७५७ (४१)
श्री शौनकेनापि ( गा० ११ ८ १३) -“तुलयाम लवेनापि न स्वर्गम्” इत्यादि पूर्ववत् । तत्रानुषङ्गिकं फलं सदृष्टान्तमाह, यथेति । विभावसुमग्निम्, उपास्यबुद्धया श्रयमाणस्य हो माद्यर्थं ज्वालयत इत्यर्थः । तस्य यथा शीतादिकमध्येति, भयं दुष्टजीवादिकृनम् । तथा साधून सेवमानस्य कर्मादि जाड्यम्, आगामि-संसारभयं तन्मूलमज्ञानश्च नश्यतीत्यर्थः ॥ श्रीभगवान् ॥
।
से शीत भय विनष्ट होते हैं, मुख्य रूप से पाकादि का निर्वाह भी होता है, उस प्रकार साधु महापुरुष वृन्द की सेवा जो करता है उस को आनुषङ्गिक रूप से अज्ञान, भय, जन्म मृत्यु निवृत्ति एवं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रभृति फललाभ होता है, एवं मुख्य रूप से मेरे चरणों में प्रेम भक्ति रूप फल लाभ भी होता है । यहाँ साधुशब्द से भा० ११।२६।२७ में उक्त लक्षणाक्रान्त को जानना होगा ।
‘सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः ।
निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ॥ "
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साधु लक्षण कथन प्रसङ्ग में श्रीभगवान् उद्धव को कहे थे - जो मुझ को छोड़कर अपर किसी की अपेक्षा नहीं करता है, जिस का चित्त मुझ में ही आसक्त है किसी प्रकार वासना के द्वारा जिस के चित्त विक्षिप्त नहीं होता है समस्त भूतों में मेरी सत्त्वा की उपलब्धि करता है । मुझ को छोड़कर सर्वत्र ममता शून्य है, मायानय ब्राह्मणत्व, पाण्डित्य प्रभृति अभिमान हृदय में नहीं रहते हैं, सुख दुःख, शीत ग्रीष्म, मानापमान में तुल्यभाव है। मा यक किसी भी वस्तु में चित्तका आवेश नहीं रहता है । यह सब ही साधु हैं, एवं यह सब साधु प्रसङ्ग से ही नित्य मेरी कथा का श्रवण सौभाग्योदय होता है । इस प्रकार साधु मुख क्षरित मदीय कथा श्रवण से ही सर्वात विनष्ट होकर एकमात्र मुझ में ही प्रगाढ़ आवेशोत्पन्न होता है ।
भा० ४४।२४ । ५७ में श्रीरुद्र ने भी कहा है-
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मायक ।
“क्षणार्द्धनापि तुलये न स्वर्गं नापुनर्भवम्
भगवत्सङ्गिसङ्गस्य मत्त्र्त्यानां किमुताशिषः ॥”७५७॥
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टोका त्वत् पाद मूले प्रविष्टस्य कृतान्त भयाभावः, कियानयं लाभः, यत स्त्वद् भक्त सङ्ग एव सकल पुरुषार्थ श्रेणि शिरसि नरीन तत्याह । भगवतस्तव स ङ्गनां सङ्गस्य क्षणार्द्धनापि स्वर्गं न तुलये समं न गणयामि । न च अपुनर्भवम् - मोक्षम् । मनामाशिषो र ज्याद्याः किमुतः ?
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श्रीरद्र प्रचेावृन्द को कहे थे - हे प्रचेतागण ! जिस को निविड़ आसक्ति श्रीभगवान् में है, इस प्रकार भगवद् भक्त के क्षणार्द्धकाल सङ्ग से मानव को जो आनन्दास्वादन प्राप्त होता है, उस आनन्दा स्वादन के सहित स्वर्गीय एवं मोक्ष सुख की तुलना नहीं हो सकती है। तद्वघतीत तुच्छ भौम सुख प्रभृति को तो तुलना हो ही नहीं सकती है । भा० ११८।१३ में श्रीशौनक ने भी उस प्रकार ही कहा है । “तुलयाम लवेनापि न स्वर्ग” साधु सङ्ग का अनुषङ्गिक फल का वर्णन स दृष्टान्त करते हैं - यथा । उपास्य बुद्धि से होमादि काय्यं निर्वाह हेतु प्रज्वलित वह्नि, जिस प्रकार आनुषङ्गिक भाव से शीत, दुष्ट जीवादि से भय प्रभृति को विदूरित करता है, उस प्रकार ही साधुवृन्द की सेवा जो करता है, उस का कर्मादि अनुष्ठान
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