१४६

४२४ २४५

व्यतिरेकेणाह (भा० १०२८४११३) –

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(२४५ ) " यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके, स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।

यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि-, ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ॥ “७३५।

परिचर्या का फल वर्णन करते हैं - भा० ३।७ १६ में उक्त है-RE & PLE PI (२४४) “यत् सेवया भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विषः ।

रतिरासो भवत् तीव्रः पादयोर्व्यसनार्दनः ॥७३३॥

अन्वय । यत् सेवया - येषां साधूनां सेवया, कूटस्थस्य - नित्यस्य भगवतो मधुद्विषोः पादयोः व्यसनार्दनः, तीव्रः, - रतिरासोभवेत् ।

टीका- मधुद्विषः पादयो रतिरासः प्रेमोत्सवः तीव्रो दुर्वारः स्वाभाविकः । व्यासनं- संसारम् अई यति-नाशयतीति तथा ।

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श्रीविदुर, श्रीमैत्रेय की कहे थे महाभागवत की परिचर्या के द्वारा अविकृत नित्य स्वरूप भगवान् मधुसूदन के चरण युगल में तीव्र प्रेमोत्सव होता है। यहाँ ‘तीव्र’ शब्दोल्लेख होने के कारण, महाभागवत वृन्द की प्रसङ्ग मात्र सेवा से भी परिचर्थ्या रूप सेवा से फल वैशिष्टय सूचित हुआ है। उस परिचर्य्यारूप सेवा का आनुसङ्गिक फल “व्यसनादन’’ अर्थात् संसार नाश है । कारण, भा० ११।१६।२१ में श्रीभगवान् कहे हैं - मेरी पूजा से भी मेरे भक्त जन की पूजा सर्वतो भावेन अधिका है, अर्थात् यह पूजा प्रीति दायिनी है । इस प्रकार ही पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में उक्त है-

“आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम् ।

तस्मात् परतरं देवि ! तदीयानां समर्च्चनम् ॥ " ७३४ ॥

मेरी अत्यन्त

अर्थात हे देवि ! निखिल देव देवी की आरधना के मध्य में श्रीविष्णु की आराधना ही श्रेष्ठ है, और श्रीविष्णु की आराधना से भी श्रीविष्णु भक्त की आराधना श्रेष्ठ है ।

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विदुर श्रीमंतेय को कहे थे ॥ २४४॥

४२५ २४५

भा० १०।६४।१३ में उक्त श्लोक द्वारा व्यतिरेक मुख से कहते हैं अर्थात् महाभागवत की सेवा

न करने से जो महान् दोष उपस्थित होता है-उस को कहते हैं-

॥(२४५ ) " यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके, स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।

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Es

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श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[५०१]]

जड़त्वात् कुणपे स्वयं मृततुल्ये शरीरे, चिद्योगेऽपि त्रिभिर्वातपित्तादिभिर्धातुभिर्दूषित इत्यर्थः । भौमे देवताप्रतिमादौ यत् यस्य अभिज्ञेषु तत्त्ववित्सु ता बुद्धयो न सन्ति, तत्रात्म बुद्धिः परमप्रीत्यास्पदत्वम् । स एव गोखरो गोनिकृष्ट उच्यते, यद्वा, सिन्धुसौवीरप्रसिद्धौ वन्यगद्द भजाति- विशेषो म्लेच्छजातिविशेषो वा सः, न त्वन्यः प्रसिद्धः । विवेकित्वाभि- मानितायां सत्यामप्यविवेकित्वात् । ततोऽपि निकृष्टत्वं तस्येति । भौम इज्यधीरिति साधारण देवताविषयकमेव, पूर्व्वं तथैवोपक्रान्तत्वात्ः (भा० ११२४७) ‘अर्चायामेव हरये” इत्यादि- विरोधाच्च । तदेवं (भा० ४।३१ । १४) “यथा

नावतारयितव्यम् ॥ श्रीभगवान् मुनिवृन्दम् ॥

तरोर्मूलनिषेचनेन” तरोर्मूलनिषेचनेन”

इत्यादिवाक्यमत्र

यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि, –ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ॥ ७३५॥

श्रीभगवान् कुरुक्षेत्र में मिलित मुनिवृन्द को कहे थे - हे मुनिवृन्द ! शरीर जड़ वा अचेतन होने के कारण कुणप है, अर्थात् स्वयं मृत तुल्य है । यद्यपि शरीर में चैतन्य का संयोग है, तथापि बात पित्त कफ- त्रिधातु दोष दुष्ट शरीर में जो आप बुद्धि करता है। जिस की, स्त्री पुत्र प्रभृति में निज बुद्धि है, मृण्मय साधारण देवता प्रतिमादि में आराध्य बुद्धि है, साधारण जलादि में तीर्थ बुद्धि है, किन्तु कभी भी भगवत्तत्वाभिज्ञ भक्त में उस प्रकार परम प्रीत्यास्पद बुद्धि, वा निज जनता बुद्धि अथवा पूज्य बुद्धि, वा तीर्थ बुद्धि नहीं है, अर्थात् भगवद् भक्त हो एकमात्र प्रीत्यास्पद है, भगवद् भक्त के समान आत्यन्तिक हित कारो अपर कोई नहीं हैं, भगवद् भक्त के समान पूज्य श्रीभगवान् भी नहीं हैं । भगवद् भक्त के तुल्य पवित्र कारक कोई भी तीर्थ नहीं हैं, इस प्रकार बुद्धि जिस मानव में नहीं है, वही मानव, गोखर है, अर्थात् गो जाति के मध्य में अति निष्कृष्ट जन्तु है। किंवा सिन्धु सौवीरदेश में वन्य गर्दभ जाति विशेष अथवा म्लेच्छ जाति विशेष है। प्रसिद्ध गो जाति, गो जाति नहीं है । किन्तु भगवद् भक्त में जिस की आराध्य बुद्धि नहीं है, वह आकृति में मनुष्य होने पर भी स्वभाव में गो जाति से भी अति होन है । मैं उत्तम समझता हूँ। इस प्रकार अभिमान के कारण, वस्तु विचार में वह अविवेकी है, कारण, भगवद् भक्त तत्त्व अतिमहत् एवं निगूढ़ है, अथच भगवद् भक्त की कृपा व्यतीत किसी भी साधन से भगवत तत्त्वानुभव होने की सम्भावना नहीं है । यह भगवद् भक्त तत्त्व ज्ञान होन जन हो यथार्थतः मूर्ख एवं अविवेकी पशु से भी हेय है । मूल में कथित है। “भौम इज्यधीः” अर्थात् मृण्मय देवता में जो पूज्य बुद्धि करता है, वह, पशु

है। तुल्य हेय है । यहाँ देवता शब्द से साधारण देवता को जानना होगा। किन्तु श्रीविष्णु विषयक नहीं ।

। कारण, पूर्व प्रकरण का वृत्तान्त इस प्रकार ही है । भा० ११।२।४० में कनिष्ठ भागवत लक्षण में उक्त है–

“अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते " अर्थात् जो श्रीहरि सन्तोषार्थ प्रतिमा में श्रद्धा पूर्वक पूजन करता है, वह कनिष्ठ भागवत है। ऐसा होने पर श्रीविष्णु प्रतिमा पूजन को जब कनिष्ठ भागवत कहा गया गया है, तब यहाँपर मृण्मयी श्रीविष्णु प्रतिमा पूजक को गो, गद्दभ कहने से पूर्वापर विरुद्ध होता है । अतएव भा० ४।३१।१४ में उक्त है – “यथा तरोर्मूल निषेचनेन तृप्यन्ति तत् स्कन्धभुजोपशाखा ।

प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥

अर्थात् वृक्ष के मूल देश में जल सिञ्चन करने से जिस प्रकार स्कन्ध भुज उपशाखा प्रभृति की तृप्ति होती है, उस प्रकार ही श्रीविष्णु की पूजा करने से समस्त देवता सन्तुष्ट होते हैं । यह वाक्य यहाँपर उल्लेख योग्य नहीं है । यह विषय भिन्न है ।

श्रीभगवान् मुनिवृन्द को कहे थे ॥ २४५ ॥

[[५०२]]

४२६ १४६

अथ महाभागवतसेवासिद्धलक्षणम् (भा० ४१६१२) -

(२४६) “ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मत्यं

ये चान्वदः सुत- सुहृद्गृह-वित्त-दाराः ।

ये त्वब्जनाभ भवदीयपदारविन्द-

सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसङ्गाः ॥ ७३६॥

परमप्रियमपि मत्त्र्यं वपुः, ये चादो वपुरनु लक्षीकृत्य सुतादयो वर्त्तते तानपि न स्मरन्ति । के त इत्यपेक्षायामाह - वे त्विति ॥ ध्रुवः श्रीध्र वप्रियम् ॥