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तदेवं महाभागवत-प्रसङ्ग फलमुक्तम् । तत्परिचर्या फलमाह, (भा० ३।४।१६) -

अतिदृढेन भावेन प्रेम्णा अनुरक्तानि स सक्तानि चित्तानि यासां ताः । (१०) तीव्राधित्वं व्यनक्ति तास्ता इति । मयासह या एवं क्षतारात्रयः, क्षणार्द्धवन्नीतास्ता एवं पुनर्मया होनास्तासां कल्पसमा बभूवुः । कथम्भूताः, तास्ताः, वाचामगोचरा इत्यर्थः ।

श्रीकृष्ण कहे थे - हे उद्धव ! जिस समय अक्र ूर, मुझ को बलराम के सहित मथुरा ले आए थे, उस समय, मुझ में अनुरक्त चित्त गोपीगण, मेरा विच्छेद रूप दुःसह दुःखसे कातर होकर मुझ को न पाकर दृढ़ प्रेम हेतु किसी प्रकार सुखी नहीं हुईं।

वृन्दावन में प्रेष्ठतम स्वरूप मैंने जिस असंख्य रात्रियों को उन सब के सङ्ग में अति वाहित किया था,- वे सुदीर्घ होने पर भी क्षण काल के समान प्रतीत हुई थीं, किन्तु मेरा वियोग होने पर क्षण काल भी उन सब को कल्प काल के समान प्रतीत होने लगा । ८००० युग में ब्रह्मा का एकदिन होता है, उस एकदिन का नाम ही कल्प है । महाभाव का स्वभाव यह है - जिस अवस्था में क्षण काल प्रिय वियोग भी कल्प काल के समान बोध होता है । एवं प्रिय दर्शन में कल्प काल भी क्षण कालवत् बोध होता है । यही महाभाव की पराकाष्ठा है ।

श्रीभगवान् कहे थे ॥ २४२ ॥

४२३ २४३

साधु सङ्ग इस प्रकार शक्ति सम्पन्न है-कि–ज्ञान पूर्वक सत्सङ्ग न करने पर भी अर्थात् अननुसन्धान से भी सत्सङ्ग होने पर सत्सङ्ग फल प्रदान करने में सक्षम है। कारण, वस्तु शक्ति को बुद्धि की अपेक्षा नहीं है । इस अभिप्राय से ही भा० ३।२२।५५ में जननी देवहूति ने कही है-

(२४३) “सङ्गो यः संसृतेर्हेतु रसत्सु विहितोऽधिया ।

स एव साधुषु कृतो निःसङ्गत्वाय कल्पते ॥ ७३३॥

टीका - प्रसङ्गः कथमभयायास्तु, तत्राह सङ्ग इति । अधिया–अज्ञानेन ।

शास्त्र में कथित है - असत्सङ्ग हो संसार का हेतु है । वह सङ्ग यदि साधु के सहित होता हैं, और वह यदि अज्ञान पूर्वक भी होता है। तो भी वह आसक्ति छेदन के हेतु होता है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि- पूर्व ग्रन्थ में कहा गया है कि - श्रीनारद प्रभृति भक्ति सिद्ध महापुरुष वृन्द के प्रति यदि साधारण मुनि बुद्धि होती है तो, उस से भगवदुन्मुखता नहीं होती है । तब कैसे कहा जा सकता है । कि- “यह महापुरुष हैं। इस प्रकार बुद्धि शून्य होकर भी यदि साधु सङ्ग करने पर कैसे भगवदुन्मुखता हो सकती है ? उत्तर में कहते हैं-ज्ञान लव दुर्विदग्ध व्यक्ति के पक्ष में एवं रुक्षस्वभाव वहिर्मुख व्यक्ति के पक्ष में ही उस प्रकार सिद्धान्त प्रयोज्य है । किन्तु जो स्निग्ध हृदय एवं मुर्खाभिमानी है, उस के पक्ष में अज्ञान से भी साधुसंग होने पर भी फलद वह होता है ।

श्रीदेवहूति भगवान् कपिल को कही थीं ॥ २४३ ॥ २४४ । पूर्वोक्त प्रकार से महाभागवत प्रसङ्ग रूप सेवा का फल वर्णन हुआ। सम्प्रति महाभागवत

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(२४४) “य सेवया भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विषः ।

रतिरासो भवेत्तीव्रः पादयोर्व्यसनाद्दनः ॥७३३ ॥

येषां युष्माकं महाभागवतानां सेवया परिचर्य्यया कूटस्थस्य नित्यस्य भगवतः पादयो रतिरासः प्रेमोत्सवो भवेत् । तीव्र इति विशेषणं प्रसङ्गमात् परिचर्य्यायां विशिष्ट फलं द्योतयति । आनुषङ्गिकं फलमाह – व्यसनाद्दन इति, व्यसनं ससारः, यत एवोक्तम् (भा० ११।१६।२१) “मद्भक्त-पूजाभ्यधिका” इति मम पूजातोऽप्यभि सर्व्वतोभावेनाधिका अधिकमत्प्रीतिकरीत्यर्थः । एवं पाद्मोत्तरखण्डे

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“आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधन १२म् । तस्मात् परतर देवि तदीयानां रुमर्चनम् ॥ ७३४ ॥ इति विदुरः श्रीमैत्रेयम् ॥