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अनन्तर मुख्य वशीकरण का वर्णन करते हैं-जो सत्सङ्ग व्यतीत अपर किसी भी साधनों से सम्भव नहीं है । गोपीवृन्द के द्वारा उस विषय का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं । अर्थात् गोपीवृन्द के साधु सङ्ग व्यतीत अपर कुछ भी साधन नहीं था, एक मात्र साधुसङ्ग के प्रभाव से ही उन्होंने श्रीकृष्ण को अनायास ही प्राप्त किया था, इस का वर्णन म ० ११ ११३८ में करते हैं ।

(२४१) “केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नमा मृगाः ।

येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा ॥७३०॥

टीका - तत्र वृत्रादीनां भवतु नाम कथञ्चित् साधनान्तरं गोपी प्रभृतीनान्तु नान्यदस्तीत्याह, केवलेनेति । सत्सङ्गलब्धेन केबलेनैव भावेन - प्रीत्वा नमा- यमलार्जुनादयः नागाः- कालियादयः । यद्वा, तदानीन्तनानां सर्व तरु गुल्मादीनामपि भगवति नावोऽस्तीति गम्यते । तदुक्त’ भगवतैव । अहो अमीदेववरामराच्चितं पादाम्बुजं ते सुमनः फल र्हणम् । नमन्त्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतमित्यादि । सिद्धाः कृतार्थाः सन्त ईयुः प्रापुः ।

ஈர்

श्रीकृष्ण, उद्धव को कहे थे, - व्रज में गोपीगण, धेनुगण, वृक्षगण, मृगगण, एवं अपर मूढ़ बुद्धि सर्प गण. एकमात्र मदीय सङ्ग जनित भाव अर्थात् प्रीति लक्षण भक्ति द्वारा कृतार्थ होकर सुख पूर्वक मुझ को

[3 (9199199999 [ ४६७ भावेन प्रकरणप्राप्तसत्सङ्गमात्र जन्मना प्रीत्या, भावोऽत्र वशीकारमुख्यत्वे चिह्नम (भा० ६।४।६६) " वशे कुर्वन्ति मां भक्तया सत्स्त्रियः सत्पति यथा” इत्यादेः, (भा० ११।१४।२१) “भक्तयाहमेकया ग्राह्यः” इत्यादेश्च । गावोऽपि गोपीवदागन्तुक्य एव ज्ञेयाः, नगा यमलार्जुनादयः, मृगा अपि पूर्व्ववत्, नागाः कालियादयः, यमलार्जुन - कालिययोः प्राप्ति- स्तदानीन्तन- तत्क्षणिक-भगवत्प्राप्त्यावश्यम्भावि-नित्य-प्राप्तिमपेक्ष्योक्ता, सिद्धाः पूर्ववद् द्विविधात् सत्सङ्गात् स तु तेषां भावो योगादिभिरप्राप्य एवेति, (भा० ११।१२।२) “यथावरुन्धे’ इत्यत्र यथा-शब्दार्थस्य पराकाष्ठा ॥

प्राप्त किये थे । ‘भावेन’ मूलस्य भाव शब्द के द्वारा प्रकरण प्राप्त श्रीकृष्ण सङ्ग जनित जो प्रीति-उस प्रीति से मुझ को प्राप्त किये हैं। यहाँ पर भाव ही वशीकरण मुख्यत्व के प्रति हेतु है । कारण, “मत सङ्गान्मामुपा गताः” अर्थात् मेरा सङ्ग प्रभाव से ही मुझ को प्राप्त किये हैं, इस प्रकार उल्लेख होने के कारण, भावोत्पत्ति के प्रति अपर किसी साधन का निद्दश नहीं किया जा सकता है। अतएव भाव ही श्रीकृष्ण वशीकरण के मुख्य हेतु है । कारण, भा० ६।४।६६ भगवान् दुर्वासा को कहे हैं-

" वशे कुर्वन्ति मां भक्तचा सत्स्त्रयः सत् पतिं यथा ॥”

हे मुनिवर ! सती रमणीवृन्द सत् पति को जिस प्रकार वशीभूत करती हैं, उस प्रकार ही साधुभक्त गण भक्ति के द्वारा मुझ को वशीभूत करते हैं । भा० ११।१४ २१ में उक्त है -

“भक्तचाहमेक्या ग्राह्यः” हे उद्धव ! मैं एक मात्र अव्यभिचारिणो भक्ति के द्वारा ही वशीभूत होता हूँ। यह सब प्रमाणों से प्रतिपन्न होता है कि — श्रीभगवान् श्रीकृष्ण एकमात्र भक्ति से ही वशीभूत होते हैं। यहाँ ‘धेनु’ शब्द से गोपी वृन्द के समान ग्रामान्तर से समागता धेनु को ही जानना होगा । कारण, श्रीगोविन्द की जिस प्रकार नित्यसिद्धा गोपी वृन्द हैं, उस प्रकार ही नित्यसिद्धा धेनु वृन्द भी हैं, एवं उन सब की नित्य प्रीति श्रीकृष्ण में ही है । उन सब के पक्ष में श्रीकृष्ण के सङ्ग प्रभाव से प्रेमोदय होना सिद्धान्त विरुद्ध है । नग शब्द से अर्थात् वृक्ष शब्द से यमलार्जुन प्रभृति को ग्रहण करना चाहिये । कारण, वृन्दावनस्थ वृक्ष समूह नित्यसिद्ध हैं, एवं उनके नित्य प्रेम श्रीकृष्ण में ही है। यहाँ पर उक्त ‘मृग’ शब्द से भी देशान्तर से समागत पशु वृन्द को जानना होगा। कारण, वृन्दावनीय पशु वृन्द श्रीकृष्ण में नित्य प्रेमवन्त हैं । नित्य सिद्ध नाग, अर्थात् कालीय प्रभृति हैं । यहाँ यमलार्जुन एवं कालीय नाग की भगवत् प्राप्ति हुई थी, इस विवरण से यह जानना होगा कि - जिस समय उन्होंने श्रीकृष्ण को प्राप्त किया था। वह क्षणिक होने पर भी नित्य रूप से श्रीकृष्ण को प्राप्त करेंगे - इस को सूचित करने के निमित्त उन दोनों का अर्थात् यमलार्ज्जुन कालिय का उल्लेख किया गया है। अभिप्राय यह है कि - यमलार्जुन एवं कालिय नाग ने श्रीकृष्ण की प्रकट लीला के समय श्रीकृष्ण को दर्शन एवं स्पर्शन किया था । उस से ही उन्होंने सिद्धि लाभ, अर्थात् श्रीकृष्ण में प्रेमलाभ किया था, उस प्रेम लाभ के फल से ही देहान्तर के द्वारा नित्य लीला में प्रवेश किया था, एवं नित्य ही श्रीकृष्ण सङ्ग से एवं सेवालाभ से अपने को धन्य किया था । मूल श्लोकोक्त ‘सिद्ध’ पद का अर्थ है - प्रेम प्राप्ति । यह प्रेम प्राप्ति, श्रीभगवत् सङ्ग एवं साधु सङ्ग- इन दोनों प्रकार सङ्ग से ही हुई थी - यह समझना होगा । अर्थात् किसी ने श्रीभगवत् सङ्ग से प्रेम प्राप्त किया था, और किसी ने साधुसङ्ग से प्रेम लाभ किया था । उन सब सिद्ध एवं सिद्धा वृन्द को जो श्रीकृष्ण में प्रेम लाभ हुआ था, वह किसी साधन से नहीं हो सकता है । भा० ११।१२।२ में कथित “यथावरुन्धे सत्सङ्गः श्लोकस्थ ‘यथा’ शब्दके द्वारा उस को दर्शाया गया है । यहाँ यथा शब्दार्थ की पराकाष्ठा भाव प्राप्ति में ही

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