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तेषां सत्सङ्गव्यतिरिक्त-साधनान्तराभावमाह (भा० ११।१२।७)
(२४०) “ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासित महत्तमाः ।
अव्रतातप्ततपसः मत् सङ्गान्मामुपागताः ॥ ७२६॥
नाधीताः श्रुतिगणा यैः, तदर्थश्च नोपासिता महत्तमा यैः, किञ्च, अकृतव्रता अकृत- तपस्काश्व, पूर्ववदध्ययनादिकं भगवत्प्रीणनमेव ग्राह्यम् । अत्र केषां वृत्रादीनां प्राग्जन्मादी साधनान्तरं यत्, तदपि सत्सङ्गानुषङ्गः सिद्धमित्यभिप्रेत्य सत्सङ्गस्यैव तत्तत् फलमुक्तम् । धर्मव्याधादीनान्तु केवलस्यैच तस्येति ज्ञेयम् । ‘मत्सङ्ग’ - शब्देनात्र मम सङ्गो मदीयादीनाश्च सङ्ग इत्यभिधाप्यते, उभयत्रापि मत्सम्बन्धित्वादित्यभिप्रयेण । तत्र स्वस्यापि सत्त्वात्
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पूर्वोक्त दैत्य प्रभृतियों का सत्सङ्ग व्यतीत अपर कोई साधन नहीं था । भा० ११।१२।७ में स्वयं श्रीकृष्ण कहे हैं ।
(२४०) ‘ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासित-महत्तमाः ।
।
अतातप्ततपसः मत् सङ्गान्मामुपागताः ॥ ७२ ॥
टोका - तेषां सत्सङ्ग व्यतिरिक्त साधनान्तराभावनात इति । न अधीताः श्रुति गणा यैः । तदर्थञ्च नोपासीता महत्तमा यस्ते तथा । किञ्च अव्रतातप्त तपसः । न व्रतानि येषां न तप्तानि तपांसि यस्ते च तथा । सत्सङ्गादिति । सद्भि सङ्गो नाम मयंव सङ्ग इत्यभिप्रेत्योक्तम् । यद्वा स्वसङ्गस्यापि सत्सङ्गत्वं विवक्ष्यते । स्वस्यापि सत्वात् । यद्वा मदीयसङ्गादित्यर्थः ।
हे उद्धव । पूर्वोक्त दैत्य प्रभृति ने वेदादि शास्त्राध्ययन नहीं किया एवं किसी महापुरुष की सेवा भी नहीं की, तपस्या भी नहीं को, केवल मेरा एवं भक्त सङ्ग के प्रभाव से मुझ को प्राप्त किया । यहाँ अध्ययन प्रभृति साधनों का जो उल्लेख है, उस को पुर्व कथित इष्टापूर्त प्रभृति साधन के समान श्रीभगवत् सन्तोषार्थ अनुष्ठित रूप से जानना होगा। यहाँ पर वृत्र प्रभृति के पूर्व जन्म में जो अन्य साधन का उल्लेख दृष्ट होता है । उस को भी जानना होगा कि - आनुषङ्गिक सत्सङ्ग के द्वारा हो वह सिद्ध है । इस अभिप्राय से ही सत्सङ्ग के द्वारा उस उस फल प्राप्ति का उल्लेख किया गया है। धर्मव्याध प्रभृति को किन्तु केवल सत्सङ्ग प्रभाव से ही भगवत् प्राप्ति हुई । यहाँपर “मत् सङ्ग शब्द का अर्थ भगवान् का सङ्ग एवं भक्त का सङ्ग है- उभय सङ्ग को ही कहा गया है। श्रीकृष्ण का अभिप्राय यह है कि-सत्सङ्ग एवं भगवत् सङ्ग उभय सङ्ग में ही श्रीभगवत् सम्बन्ध है । इस अभिप्राय से ही कहीं पर सत् सङ्ग का उल्लेख, कहीं पर भगवत् सङ्ग का उल्लेख किया गया है । तन्मध्य में भगवान् में भी सत्त्व अर्थात् साधुत्व है, अतः सत्सङ्ग प्रकरण में निज सङ्ग को भी अन्तर्भुक्त किया गया है। पूर्व में कहा गया है । कि, भागवत सङ्ग प्रभाव से ही श्रीभगवान् की कृपा होती है, वह श्रीभगवत् चरणों में उन्मुखता प्राप्त करने का हेतु है, तज्जन्य ही कहा गया है । अर्थात् भागवत सङ्ग के विना स्वतन्त्र रूप से श्रीभगवान् की कृपाका उदय हो ही नहीं सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि - अनादि वहिम्मुख जीव के प्रति श्रीभगवत् कृपा का उद्गम होना असम्भव है । कारण, भगवान् के हृदय में प्रेमवान् भक्त भिन्न अपर किसी का स्थान नहीं हैं । अतएव पर दुःख कातरता लक्षण भगवत् कृपा उद्गम की सम्भावना की नहीं जा सकती है । तब भक्त कृपा से भगवद् वहिर्मुख जीव जब श्रीभगवान् के और उन्मुख होता है, तब उस के प्रति श्रीभगवत कृपा का उदय होता है । यहाँपर उस भागवत सङ्ग को ही विशेष साधन रूप से उल्लेख किया
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श्री भक्तिसन्दर्भः सत्सङ्गप्रकरणे स्वसङ्गोऽप्यन्तर्भावितः । यत्तु पुरा भागवतसङ्गेनैव भगवत्कृपा भवतीत्युक्तम्, तत्तु तत्साम्मुख्यजन्मन्येव । अत्र तु स एव भागवतसङ्गः साधनविशेषत्वेनोच्यत इति न दोषः । यदि वात्र कुत्रचित् साम्मुख्यजन्मकारणमपि भगवत्सङ्गो भवेत्, तदाप्येवमाचक्ष्म हे- सच्छब्दार्थ-मवतारमङ्गीकृत्य यत् कदाचित् सर्वत्र कृपां वितनोति भगवात् तच्च सत् सम्बन्धेनैवेत्यतो नाभ्युपगमहानिरिति ॥ नाभ्युपगमहानिरिति ॥
श
शि २४१ । अथ मुख्यं वर्गीकरणमसम्भावित साधनान्तरेण सत्सङ्गमात्रेण श्रीगोप्यादीन दर्शयति, (भा० ११।१२८)
(२४१) “केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः ।
येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा ॥७३०॥
गया है। अतएव प्रकरण अर्थात् उद्देश्य मत भेद विद्यमान होने के कारण सिद्धान्तांश में दोष की सम्भावना नहीं है। ।
F)
कदाचित् बहिर्मुख जन का भगवत् साम्मुख्य के प्रति कारण - भगवत् सङ्ग होता है । अर्थात् भगवत् सङ्ग प्रभाव से ही श्रीभगवच्चरणों में उन्मुखता होती है । उस का समाधान निबन्धन इस प्रकार कहेंगे। श्रीभगवान् साधुवृन्द के निमित्त अर्थात् साधु दृन्द के रक्षणावेक्षण प्रेमास्वादन हेतु अवतीर्ण होकर कदाचित् जो सर्वत्र कृपा विस्तार करते हैं, वह भी साधु वृन्द के सम्बन्ध द्वारा ही होता है । अर्थात् साधु वृन्द के निमित्त अवतीर्ण होकर भगवदुन्मुख एवं भगवद् वहिर्मुख उभय विध जीव के प्रति कृपा विस्तार करते हैं । अतएव साधु वृन्द के निमित्त हो जब श्रीभगवान् का अस्तार है, तव कहना पड़ेगा कि भगवत् कृपा के मूल कारण ही साधु वृग्द हैं। अतएव साधु सङ्ग ही भगवत् प्राप्ति का उपाय है, इस प्रकार कहने से ‘अभ्युपगम’ सिद्धान्त को हानि नहीं होती है । अस्वीकृत विषय को स्वीकार करके जो निज पक्ष पोषण किया जाता है। उस को ‘अभ्युपगम सिद्धान्त’ कहते हैं ॥ २४०॥