२३९

४१४ २३६

अथ प्रस्तुतमनुसरामः । वशीकरणमत्र द्विविधम्-मुख्यं गौणश्च । तत्र मुख्येन प्रेम लभ्यते, (भा ५।६।१८) “अस्त्वेवमङ्ग भजतां भगवान् मुकुन्दो, मुक्ति ददाति कर्हिचित्

में विवेचन अर्चन वर्णन प्रसङ्ग में करेंगे । अतएव भा० ११।११।३२ ।

आज्ञायैव गुणान् सर्वान् मयादिष्टानपि स्वकान् ।

धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत सः सत्तमः ॥”

श्लोक की टीका में स्वामि पादने लिखा है- “विद्धैकादश्युपवास कृष्णैकादश्युपवासानिवेद्य श्राद्धादयो ये भक्ति विरुद्धा धर्मा स्तान् सन्त्यज्येन्त्यर्थः ।"

विद्धैकादशी व्रत करना, कृष्णपक्ष की एकादशी में व्रत न करना, श्रीभगवान् में अनर्पित वस्तु के द्वारा श्राद्धादि करना, - प्रभृति जो भक्ति विरुद्ध धर्म है, उस को सम्यग् रूप से परित्याग करके जो मेरा भजन करता है, वह सत्तम है । भा० १।६।२७ भीष्म युधिष्ठिर संवाद में उक्त है-

“दान धर्मान् राजधर्मान् मोक्षधर्मान् विभागशः ।

स्त्रीधर्मान् भगवद्धर्मान् समास व्यास योगतः ॥ " (२७)

टीका - पुनस्तत्रैव विशेषमाह दानेति । मोक्षधर्मान् शमदमादीन् भगवद्धर्मान् हरितोषकान् द्वादश्यादि नियमरूपात् । समास व्यासौ सङ्क्षेप विस्तारौ तावेव योगाबुपायौ ततस्ताभ्याम् ॥

श्रीहरि सन्तोष हेतु द्वादशी व्रत नियम प्रभृति भागवत धर्म है । यह स्वामि पादने लिखा है । भा० ३०११६६ में लिखित है-

“गां पर्यटन मेध्य विविक्त वृत्तिः, सदाप्लुतोऽधः शयनोऽवधूतः ।

अलक्षितः स्वैरवधूत वेशो व्रतानि चेरे हरितोष णानि ॥”

इस की टीका में स्वामिपादने लिखा है- ‘हरितोषणानि व्रतानि चेरे-अचरत् । यहाँपर हरितोषण रूप व्रत की व्याख्या करके श्रीधर स्वामिपादने ‘एकादशी व्रत पर’ व्याख्या की है। अतएव श्रीभगवान् के महाप्रसाद आस्वादन करना ही जिस का एकान्त व्रत है, उन महानुभव श्रीअम्बरीष महाराज का आचरण प्रदर्शन हेतु एकादशी प्रभृति व्रत की अवश्य कर्त्तव्यता निश्चित हो रही है । अर्थात् जो अम्बरीष महाराज. “श्रीमत्तुलस्या रसनां तदपते” अर्थात् महाराज अम्बरीष, श्रीतुलसी के सहित भगवदपित नैवेद्य भोजन में निज रसना को अर्पण किये थे । श्रीअम्बरीष नियमित रूप से श्रीएकादशी व्रतानुष्ठान करते थे । अतएव शास्त्र से एवं सदाचार से श्रीएकादश्यादि व्रत का नित्यत्व उपलब्ध होता है । अर्थात् एकादशी प्रभृति वैष्णव व्रत करना अवश्य कर्त्तव्य है ॥ २३८ ॥

FI

४१५ २३९

अनन्तर प्रकरण प्राप्त विषय का वर्णन करते हैं । भगवद् वशीकरण, मुख्य गौण भेद से द्विविध हैं। उस के मध्य में मुख्य वशीकरण में प्रेम लाभ होता है । भा० ५।६।१८ में उक्त है—

। “अस्त्वेवमङ्ग भजतां भगवान् मुकुन्दो, मुक्ति ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगम्”

P

[[४६२]]

स्म न भक्तियोगम्” इति न्यायेन । अतएव गौणेनान्यत् फलम् । अत्र मुख्यं श्रीगोप्यादौ, गौणं वाणादौ । उत्तरत्र वशीकरणत्वञ्च फलदानोन्मुखीकरणतयोपचर्यते । तदेतद् वशीकरणे दृष्टान्तानाह, (भा० ११।१२।३–६) -

( २३६) “सत्सङ्गेन हि देतेया यातुधाना मृगाः खगाः 1

गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः ॥७२५ ॥ विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोऽन्त्यजाः । रजस्तमः प्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन् युगे युगे ॥ ७२६ ॥ बहवो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्र- कायधिवादयः । वृषपर्वा बलिर्वाणो मयश्चाथ विभीषणः ॥७२७॥

सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः ।

[[1]]

व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथापरे ॥ ७२८ ॥

व्याधः कुब्जा

दैतेयास्तदुपलक्षितासुर दानवाश्च यातुधाना राक्षसाः, तज्जातिषु दिग्दर्शनम् - त्वाष्ट्र त्यादि,

श्रीशुक - परीक्षित महाराज को कहे थे - हे राजन् ! भगवान् मुकुन्द, भजन कारी भक्त को मुक्ति दान करते हैं, किन्तु यथा योग्य न होनेसे अर्थात् अन्यावेश शूभ्य न होने से प्रेम प्रदान नहीं करते हैं। इत्यादि नियम से साधारण भजन से प्रेमलाभ नहीं होता है । अतएव गौण वशी करण से अन्य फल स्वर्ग मोक्ष प्रभृति फल लाभ होता है। मुख्य वशीकरण मन्त्र से प्रेम लाभ होता है। मुख्य वशी करण मन्त्र ही साधु सङ्ग है। यहाँ मुख्य वशीकरण - श्रीगोपी प्रभृति में है, एवं गौण वशी करण - वाण - बलि प्रभृति में है । फल प्रदान हेतु श्रीभगवान् को उन्मुख करना गौण वशीकरण का कार्य है । अर्थात् सत्सङ्ग व्यतीत स्थल विशेष में अन्य साधना का भगवद् वशीकरणत्व का उल्लेख है-वह वशीकरण निबन्धन उन्मुखता सम्पादक होने के कारण उपचार है, मुख्य नहीं है। उक्त उभयविध वशीकरण विषय में दृष्टान्त उपस्थित करते हैं। ( भा० ११।१२।३-६)

के

(२३) “सत्सङ्गेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः ।

गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः ॥७२५॥ विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोऽन्त्यजाः । रजस्तमः प्रकृतयस्तस्मस्तस्मिन् युगे युगे ॥ ७२६ ॥ बह्वो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्र-कायाधवादयः । वृषपर्वा बलिर्वाणो मयश्चाथ विभीषणः ॥७२७॥ सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः ।

व्याधः कुब्जा ब्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथापरे ॥”७२८॥

"

श्रीकृष्ण, उद्धव को कहे थे - हे उद्धव ! सत्सङ्ग के प्रभाव से दितिनन्दन दैत्यवृन्द एवं तदुपलक्षित देव-दानव वृन्द, धातु धान, राक्षस, उस का दिक दर्शन–त्वाष्ट्र वृत्र, मृग, खग, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, विद्याधर, मनुष्य के मध्य में वैश्य, शूद्र, स्त्री, अन्त्यज प्रभूति राजस, तामस स्वभाव सम्पन्न व्यक्ति गण उस उस युग में मुझ को प्राप्त किये हैं ।

[[1]]

वृष पर्वा, बलि, वाण, मय, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, ऋक्ष ‘जाम्बवान्’ गजराज, गृध्र (जटायु )

श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[४६३]]त्वाष्ट्रो वृत्रासुरः, वृत्रासुरस्य प्राग्जन्मनि श्रीनारदाङ्गिरसोः सङ्गः श्रीसङ्कर्षणसङ्गश्व प्रसिद्धः कायाधवः कयाधुपुत्रः प्रह्लादः, अस्य गर्भे श्रीनारदसङ्गः, आदि शब्द गृहीतान् पूर्वोक्त-जाति- क्रमेण कतिचिद्गणयति, -वृषेति, वृषपर्वा दानवः, अयं हि जातमात्रमातृ परित्यक्तो मुनिपालितो विष्णुभक्तो बभुवेति पुराणान्तर- प्रसिद्धिः, बलेः श्रीप्रह्लादसङ्गः श्रीवामनसङ्गश्च- तदनन्तरमेव भक्त्युद्बोधदर्शनात् । वाणस्य बलि-महेश- भगवत्सङ्गः, - अस्य भुजकर्त्तनानन्तरं ज्ञात विष्णुमहिम्नो महाभागवत - महेशप्राप्तिरिव स्वप्राप्ति-रित्युच्यते, मयो दानवः, -अस्य सभा- निर्माणादौ पाण्डवसङ्गो भगवत्सङ्गश्व, अन्ते तत्प्राप्तिस्तु ज्ञेया, विभीषणो यातुधानः,- अस्य हनुमत्सङ्गो भगवत्सङ्गश्च सुग्रीवाद्या गजान्ता मृगाः, तत्र ऋक्षो जाम्बवान्, अस्य व्याध – ( धर्मव्याध) कुब्जा, व्रजोय गोपीबृन्द, यज्ञस्थल में यज्ञ पत्नी गण, इन सबने मुझ को प्राप्त किया है। उस के मध्य में वृत्रासुर के पूर्व जन्म में अर्थात् महाराज चित्रकेतु अवस्था में - श्रीनारद - अङ्गिरा का

में सङ्ग लाभ हुआ था । अनन्तर श्रीसङ्कर्षणदेव का सङ्ग लाभ भी हुआ । श्रीमद् भागवत यह प्रसङ्ग सुप्रसिद्ध है । कायाधव - कयाधु पुत्र प्रह्लाद, गर्भ में अवस्थित होने के समय श्रीनारद मुनि का सङ्ग लाभ प्रह्लाद की माता को हुआ था ।

मूल श्लोक में “त्वाष्ट्र कायाघवादयः” बहु वचन का उल्लेख है । यहाँ आदि शब्द से उक्त जातिक्रम से- अर्थात् दैतेययातुधान खग मृग प्रभूति के मध्य में कतिपय नामोल्लेख करते हैं। उसके मध्य में वृषपर्वा एक दानव है, यह दानव, जन्म मात्र से ही जननी कर्तृक परित्यक्त होकर अनन्तर मुनि कर्ता के प्रति पालित होकर विष्णु भक्ति परायण हुआ । पुराणान्तर में यह वृत्तान्त प्रसिद्ध है । श्रीप्रह्लाद एवं वामन देव का सङ्ग लाभ - ब ल महाराज को हुआ था । कारण, उन दोनों के सङ्ग प्रभाव से ही बलिमहाराज में भक्ति का उदय हुआ था। वामन महाराज को श्रीबलि, महादेव एवं भगवत सङ्ग लाभ हुआ था, इनके भुजच्छेदन के पश्चात् श्रीविष्णु महिमा ज्ञान भी हुआ था । एवं महाभागवत चूड़ामणि श्रीमहादेव की प्राप्ति को श्रीकृष्ण प्राप्ति मानकर उल्लेख है । मय नामक एक दानव है, सभानिर्माणादि कार्य के समय इन को पाण्डव सङ्ग एवं भगवत् सङ्ग भी हुआ था । एवं देहावसान के पश्चात् भगवत् प्राप्ति भी हुई थी । जानना होगा । विभीषण, राक्षस होकर भी श्रीहनुमान का सङ्ग एवं श्रीरामचन्द्र का सङ्ग प्राप्ति किया था । एवं राम चन्द्र का परम भक्त भी हुआ था। सुग्रीव से आरम्भ कर गज पर्यन्त सभी मृग अर्थात् पशु जाति के हैं । उस के मध्य में ऋक्ष-जाम्बवान् है, इन को श्रीराम चन्द्र का सङ्ग लाभ हुआ था । गज शब्द से गजराज को जानना होगा । पूर्व जन्म में इन को सत्सङ्ग प्राप्त था । पूर्व जन्म में यह पाण्डयदेशीय नृपति थे, एवं विष्णु व्रत परायण होकर कालातिपात करते थे । एक समय कुलाचल पर्वताश्रम में मौन व्रत धारण पूर्वक भगवदाराधना कर रहे थे, उस समय स शिष्य अगस्त्य मुनि का आगमन उस आश्रय में हुआ था। महाराज मुनि को देखकर भी मौनव्रती होकर ही रहे थे। किसी प्रकार आदर अभ्यर्थना नहीं किये थे, यह देखकर मुनि क्षुब्ध होकर शाप प्रदान कियथे। उस अभिसम्पात से उनको गज देह लाभ हुआ, प्रतीत होता है कि-इन्द्रद्युम्न शरीर में ही सत्सङ्ग हुआ था, अन्तिम समय में गजराज शरीर में भी भगवत् सङ्ग लाभ हुआ था, यह विवरण सुस्पष्ट है । गृध्र-जटायु नामक पक्षी है, श्रीगरुड़, दशरथ प्रभृति का सङ्ग लाभ इन को था, सीतादर्शन श्रीभगवद् दर्शन लाभ भी था । गन्धर्व प्रभृति का प्रसङ्ग यहाँ पर न होने के कारण, अर्थात् अति प्रसिद्ध न होने के कारण, मनुष्य के मध्य में वंश्यादि का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं- वणिक पथ - तुलाधार, महा भारत में जाजली मुनि एवं गन्धर्व के प्रसङ्ग में इस की

[[४६४]]

भगवन् सङ्गः, गजो गजेन्द्रः, - अस्य पूर्वजन्मनि सत्सङ्ग उन्नेयः, उत्तरजन्मान्ते भगवत्सङ्गश्व गृधो जटायुनामा खगः अस्य श्रीगरुड़-वशरथादिसङ्गः श्रीसीतादर्शनं श्रीभगवद्दर्शनञ्च । गन्धर्वादींस्त्वनतिप्रसिद्धत्वेनानुदाहृत्य मनुष्येषु वंश्यादीनुदाहरति-वणिक्पथस्तुलाधारः, अस्य भारते जाजलिमुनिगन्धर्व प्रसङ्गे प्रोक्तमहिम्नः सत्सङ्गोऽन्वेषणीयः, व्याधो धम्र्मव्याधः शूद्रोऽन्त्यजोऽपि ।

अत्रादिवाराह कथेयम्-क्वचित् प्राचीन कलियुगे वसुनाम्ना वैष्णवेन राज्ञा प्राग्जन्मनि मृगान्त्या निहतो ब्राह्मणो ब्रह्मराक्षसतां प्रातस्तस्य राज्ञः प्रापञ्चिक- विष्णुलोकगमन समये तच्छरीरं प्रविष्टः, पुनश्च तस्य तद्भोगान्ते राजसां प्राप्तस्य देहात् तत्कर्त्तृक- ब्रह्मपाराख्य- स्तवपाठतेजसा निर्गतस्तत्कृतधर्म्मव्याधसङ्गो हिंसातिशयविमुखः पर्यवसाने दृष्टनीलाद्रि- नाथस्तञ्च स्तुनवान्, प्राप्त तदा लिङ्गनस्तत् सायुज्यमवापेति ।

कुब्जाया भगवत्सङ्गः पूर्वजन्मनि च नारवसङ्ग इति माथुरहरिवंशप्रसिद्धम्, गोप्योत्र साधारण्यः, श्रीकृष्णव्रजे तदानीं विवाहादिना समागताः, -आसां तन्नित्यप्रेयसीवृन्दसङ्गः श्रीकृष्णदर्शनादिरूपो भगवत्सङ्गश्च यज्ञपत्नीनां श्रीकृष्णगुणकथक लोकसङ्गतत्सङ्गश्च । अपरे देतेयादयोऽन्ये च ॥

[[1]]

प्रचुरतर महिमा वर्णित है। अतएव इस को भी सत्सङ्ग प्राप्त था, यह समझना चाहिये ।

व्याध -धर्मव्याध नाम से प्रसिद्ध है, आदि वराह पुराण में इस का प्रसङ्ग वर्णित है । यह धर्म व्याध- शूद्र एवं अन्त्यज था। किसी प्राचीन कलियुग में वसु नामक वैष्णव नृपति ने मृग भ्रम से एक ब्राह्मण को मारा था, वह ब्रह्मण ब्रह्म राक्षस हो गया । वैष्णव नृपति का जब विष्णु लोक गमन हुआ, तब वह ब्रह्म राक्षस वैष्णव नृपति वसु के शरीर में प्रविष्ट हो गया । वैष्णव महाराज जब वैकुण्ठ लोक के करके पुनर्वार राज देह प्राप्त किये थे, उस समय उन्होंने देखा कि - उन के देह में ब्रह्म राक्षस प्रविष्ट होकर सुख भोग है । ब्रह्म राक्षस को देह से निष्क्रान्त करने के निमित्त ब्रह्मपाराख्य स्तव पाठ आरम्भ किया। उस स्तक पाठ के प्रभाव से ब्रह्म राक्षस राजा के शरीर से निर्गत हो गया। उस समय राजा ने उस ब्रह्म राक्षस को धर्म व्याध नाम प्रदान किया। उस समय से धर्म व्याध अतिशय हिंसा से विमुख होकर जगन्नाथ का दर्शन एवं स्तव किया। स्तव से सन्तुष्ट होकर जगन्नाथ धर्म व्याध को आलिङ्गन दान कर सायुज्य मुक्ति प्रदान किये थे ।

कुब्जा का भगवत् सङ्ग हुआ था । एवं पूर्व जन्म में श्रीनारद सङ्ग लाभ का वर्णन म थर हरिवंश में प्रसिद्ध है ।

इस प्रसङ्ग में गोपी शब्द से साधारण गोषी को जानना होगा । किन्तु नित्यसिद्धा गोपिका का प्रसङ्ग सम्भव नहीं है। कारण, वे सब श्रीकृष्ण वल्लभारूप में नित्यविराजित हैं। यह सब श्रीकृष्ण व्रज में विवाहादि द्वारा आनीता हुई थीं। इन सब को श्रीकृष्ण के नित्य प्रेयसी वृन्द का सङ्ग, एवं श्रीकृष्ण प्रदर्शनादि रूप भगवत् सङ्ग प्राप्त था । यज्ञ पत्नी वृन्द को कृष्ण गुण वर्णन कारिणी तैल विक्रय कारिणी वृन्द का सङ्ग लाभ था, एवं श्रीकृष्ण दर्शनादि रूपसङ्ग भी था। मूल श्लोकस्य ‘अपरे’ अपर शब्द से दितिनन्दन प्रभृति को जानना होगा ॥ २६६ ॥

श्रीभक्ति सन्दर्भः

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