२३८

४१२ २३८

श्रीगुर्वाज्ञया तत्सेधना बिरोधेन चान्येषामपि वैष्णवानां सेवनं श्रेयः । अन्यथा दोषः स्यात्, यथा श्रीनारदोक्तौ-

“गुरौ सन्निहिते यस्तु पूजयेदन्यमग्रतः । स दुर्गतिमवाप्नोति पूजनं तस्य निष्फलम् ॥ ७१५॥ इति । यः प्रथमं ( भा० १११३ । १२) “शाब्दे परे च निष्णातम्” इत्याद्य क्त-लक्षणं गुरु नाश्रितवान्, तादृशगुरोश्च मत्सरादितो महाभागवत-सत्कारादावनुर्मात न लभते स प्रथमत एव त्यक्तशास्त्रो न विचार्य्यते । उभयसङ्कटपातो हि तस्मिन् भवत्येव । एवमादिकाभिप्रायेणैव-

“यो वक्ति न्याय रहितमन्यायेन शृणोत्ति यः । तावुभौ नरक घोरं व्रजतः कालमक्षयम् ॥ ७१६ ॥

ज्ञान, उस के मध्य में श्रीधर स्वामि पादने ब्रह्म निष्ठ ज्ञान को लक्ष्य करके उस प्रकार व्याख्या की है । भगवनिष्ठ ज्ञान की व्याख्या को निम्नोक्त रूप से जानना होगा। इज्या-पूजा, प्रजाति-वैष्णव दीक्षा, तपस्या-समाधि, उपशम-भगवन्निष्ठा ।

४१३ २३८

श्री गुरुदेव को आज्ञा से एवं श्रीगुरु सेवा करना मङ्गलकर है । उस प्रकार आचरण न उक्ति इस प्रकार है -

श्रीभगवान् श्रीदाम विप्र को कहे थे ॥२३७॥ देव की सेवा के अविरोध से हो अन्य वैष्णव वृन्द की करने से दोष होता है । इस विषय में देवर्षि नारद की

“गुरौ सन्निहिते यस्तु पूजयेदन्यमग्रतः । स दुर्गतिमवाप्नोति पूजनं तस्य निष्फलम् ॥” ७१५॥ श्रीगुरुदेव निकट में विद्यमान होने पर जो पहले अपर व्यक्ति की पूजा करता है, वह दुर्गति को प्राप्त करता है, एवं उस के द्वारा अनुष्ठित श्रीहरि की पूजा निष्फल होती है।

ने

जो व्यक्ति, प्रथमतः शब्द ब्रह्म वेद में विचार निपुण, एवं परब्रह्म भगवदनुभव में निपुण- भा० ११।३।२१ " शाब्दे परे च निष्णातम्” इस प्रकार लक्षणाक्रान्त सद् गुरु चरणाश्रय ग्रहण जिस ने नहीं किया है, सुतरां वह अशास्त्रीय असत् गुरुचरणाश्रय ग्रहण किया है । उक्त लक्षण हीन गुरु अर्थात् अशास्त्रीय गुरु शास्त्रज्ञ महत् व्यक्ति के प्रति स्वाभाविक द्वेष करता है, अतएव वह गुरु परश्री कातरता- मात्सर्य्यादि दोषाकान्त होने के कारण शिष्य को महाभागवत को सेवानुकूल्य करने में अनुमति प्रदान नहीं करता है । अतः शिष्य नहीं जान सकता कि शास्त्रीय महाभागवत वृन्द की सेवा करना परम कर्तव्य है । इस प्रकार शिष्य के सम्बन्ध में विचार शास्त्र नहीं करेगा। कारण, जो व्यत्ति, पहले शास्त्र विधि लङ्घन पूर्वक लौकिक गुरु चरणाश्रय किया है-उस के पक्ष में इस प्रकार सङ्कट उपस्थित होना स्वाभाविक ही है । एक और गुरुचरण को आज्ञा लङ्घन, एक सङ्कट, दूसरी ओर महदनादर वा महत् सेवा न करने से सङ्कट । इस प्रकार अभिप्राय को सुस्पष्ट करने के निमित्त नारद पञ्चरात्र में उक्त है-

यो वक्ति न्यायरहितमन्यायेन श्रृणोति यः ।

तावुभौ नरकं घोरं व्रजतः कालमक्षयम् ॥ ७१६ ॥

[[४८६]]

इति श्रीनारदपश्चरात्रे । अतएव दूरत एवाराध्यस्तादृशो गुरुः, वैष्णवविद्वेषी चेत् परित्याज्य एव-

‘गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्य्याकार्य्यम जानतः । उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ॥ ७१७ ॥

इति स्मरणात्, तस्य वैष्णवभावराहित्येना वैष्णवतया “अवैष्णवोपदिष्ठ ेन” इत्यादिवचन- विषयत्वाच्च । यथोक्त-लक्षणस्य श्रीगुरोरविद्यमानतायान्तु तस्यैव महाभागवतस्यैकस्य नित्य सेवनं परमं श्रेयः । स च श्रीगुरुवत् समवासनः स्वस्मिन् कृपालुचित्तश्च ग्राह्यः- “यस्य यत्सङ्गतिः पुंसो मणिवत् स्यात् स तद्गुणः । स्वकुल द्ध्य ततो धीमान् स्वयूथ्यानेव संश्रयेत् । ७१८ इति श्रीहरिभक्तिसुधोदयदृष्ट्या, कृपां विना तस्मिन् चित्तारत्या च ।

अथ सर्वस्यव भागवतचिह्नधारिमात्रस्य तु यथायोग्यं सेवाविधानम् तत्र महाभागवत सेवा द्विविधा - प्रसङ्गरूपा, परिचयरूपा च । तत्र प्रसङ्गरूपा यथा ( भा० ११ १२।१–२)

जो नीति विरुद्ध कहता है, एवं जो नीति रहित कथा सुनता है, उभय हो अक्षय काल पर्य्यन्त घोर नरक में निवास करते हैं। अतएव तादृश अन्याय वक्ता अर्थात् अशास्त्रीय उपदेष्टा गुरु की आराधना दूर से ही करनी चाहिये । अर्थात् अन्याय वक्ता गुरु के निकट उपस्थित होष र उपदेशादि ग्रहण न

करे । दूर

से प्रणाम वन्दनादि द्वारा सम्मान करे । यदि गुरु, वैष्णव विद्वेषी हो तो, उस को परित्याग ही करे। कारण,- उक्त है- “गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्य्यम जानतः ।

उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ॥ ७१७

अवलिप्त– कुकार्यरत विषयासक्त कार्य्याकार्य्यं में कर्त्तव्याकर्त्तव्य में अनभिज्ञ, उत्पथ प्रतिपन्न–शास्त्र गर्हित पथावलम्बी गुरु को परित्याग ही करे । गुरु वैष्णव भावापन्न न होने से अवैष्णव होता है, अतएव अवैष्णवता निबन्धन

“अवैष्णवोपदिष्ट ेन मन्त्रेण निरयं व्रजेत् । तस्माच्च विधिना सम्यग् ग्राह्येद् वैष्णवाद् गुरोः ॥

अवैष्णव के निकट मन्त्र ग्रहण करने से नरक गमन होता है, अतएव शास्त्र विधि के अनुसार पुनर्वार वैष्णव गुरु के निकट से मन्त्र ग्रहण करे। इत्यादि प्रमाण के द्वारा वैष्णव द्वेषी गुरु को परित्याग करना चाहिये । यथा कथित लक्षणयुक्त अर्थात् शास्त्रीय लक्षणाक्रान्त गुरु विद्यमान न होने पर किसी परम भागवत की नित्य सेवा परम कल्याण दायिनी है । किन्तु उक्त महाभागवत में श्रीगुरु देवकी समान वासना एवं साधक के प्रति कृपालुचित्त गुण विद्यमान होना आवश्यक है । कारण, श्रीहरि भक्ति सुधोदय में लिखित है-

“यस्य यत्सङ्गति, पुसो मणिवत् स्यात् स तद्गुणः ।

स्वकुलद्वैच ततो धीमान् स्वयूथ्यानेव संश्रयेत् ॥ ७१८ ॥

जिस का जिस जिस जातीय व्यक्ति का सङ्ग होता है । मणि के समान वह सङ्गकारी व्यक्ति, उस के गुणों से निज को रञ्जित कर लेता है। अतएव बुद्धिमान व्यक्ति, निज निज कुल वृद्धि हेतु निज यूथस्थित वैष्णव को ही अवलम्बन करे । साधक के प्रति महाभागवत की कृपा एवं चित्त की प्रीति व्यतीत सत्वर सिद्धि लाभ की सम्भावना नहीं हो सकती है। अनन्तर समस्त भागवत चिह्नधारी व्यक्ति की ही यथा योग्य सेवा करनी चाहिये । इस का वर्णन करते हैं । उस के मध्य में महाभागवत की सेवा प्रसङ्ग रूपा एवं परिचर्य्या रूपा भेद से द्विविधा हैं । प्रथम प्रसङ्ग रूपा सेवा का वर्णन भा० ११।१२।१–२ में

F

(२३८)

(२३८) " न रोधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म एव च ।

T) P

न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्त्ततं न दक्षिणा ॥७१६ ॥ बूतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः । यथावरुन्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम् ॥ ७२०॥

पूर्वाध्याये (भा० ११ १२२४१) —

“इष्टापूर्त्तेण मामेवं यो यजेत समाहितः

लभते मयि सद्भक्त मत्स्मृतिः साधुसेवया ॥ ७२१॥

[[४८७]]

इत्यनेन साधुसेवया भक्तिनिष्ठा - जनने साधनान्तर सव्यपेक्षत्वमिवोक्तम् । तत्रेष्ट शब्देन

इस प्रकार है-

(२३८) " न रोधयति मां योगोन सांख्यं धर्म एव च ।

न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो ने पूत्तं न दक्षिणा ॥ ७१६ । व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः ।

यथावन्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापही हि माम् ॥” ७२० ॥

टीका- न रोधयति । न वशीकरोति । योग-आसन प्राणायामादिः । सांख्यं सत्त्वानां विवेकः १ धर्मः, सामान्यतोऽहिंसादिः " स्वाध्यायो वेदजपः १ तपा कुच्छादि त्यागः - सन्यासः । इष्टापूर्त्तम् इष्ट पूर्त्तञ्च । तनेष्टम् अग्निहोत्रादि । पूर्त्तं कृपारामादि निर्माणम् । दक्षिणाशब्देन सामान्यतो दानं लक्ष्यते ।(१) व्रतानि - एकादश्युपवासादीनि । यज्ञो देव पूजा । छन्दांसि - रहस्यमन्त्राः, अवरुन्ध-वशी करोति । (२)

उद्धव के प्रति श्रीभगवान् कहे थे - आसन प्राणायामादि योग, तस्व विवेक, अहिंसादि धर्म, वेद पाठ, तपस्या, सन्न्यास, अग्निहोत्रादि यज्ञ, वापी कूपतड़ागादि निर्माण, एकादश्यादि बूत, यज्ञ, छन्द, तीर्थ, नियम, यम, - यह सब मुझ को उस प्रकार वशीभूत कर नहीं सकते हैं, जिस प्रकार सर्वासक्ति विनाशक सत्सङ्ग मुझ को वशी भूत करता है । पूर्वाध्याय के अन्तिम भा० ११ । १।४७ में उक्त है-

“इष्टापूर्तेन मामेवं यो यजेत समाहितः ।

OFF

"

लभते मयि सद्भक्त मत्स्मृतिः साधुसेवया ॥ ७२११।

HPR

टोका-भक्ताया । भक्ते फलमाह । इष्टापूर्तेनेति । सद् भक्त- दृढां भक्तिम् । अस्या भक्त रन्तरङ्ग साधनमाह । इत्थं मस्स्मृतिः सधु सेवया भवति । यद्वा स्मृतिर्ज्ञानम् । ततश्च दृढभक्ति मतः पुंसः साधु सेवया यज्ज्ञानं भवतीत्यर्थः ।

साधु

जो संयत चित्त से इष्टापूर्त द्वारा मेरी पूजा करता है, वह मुझ में सद् भक्ति प्राप्त करता है । सेवा के द्वारा मेरी स्मृति लाभ होती है। इस में साधु सेवा द्वारा अन्तरङ्ग भक्त के प्रति निष्टा उत्पन्न होने का विधान करने के समय अन्य साधन को अपेक्षा की कथा भी कही गई है । अर्थात् केवल साधु सेवा के द्वारा ही भगवत् स्मृति नहीं होती है, इस के सहित -इष्टापूर्त की सहायत्ता का भी उल्लेख है । यहाँपर प्रयुक्त इष्ट शब्द के द्वारा श्रीमद् भागवतोय सप्तम स्कन्ध के पञ्चदशोऽध्याय में कथित रीति का अनुस्मरण करना कर्त्तव्य है । अतएव उस के अनुसार इष्ट शब्द से अग्निहोत्र, दर्श पौर्णमास्य, चातुर्मास्य याग, वैश्व देव बलि हरण रूप अर्थ को जानना होगा । ‘पू’ शब्द से देवालय, फलोद्यान, कूप, वापी, तड़ाग, जल पानसत्र को समझना पड़ेगा । एवं यहाँपर अर्थात्— ‘नेष्टा पूर्त्तं न दक्षिणा’ यह भा० ११।१२।४३ में उक्त

[[४८८]]

सप्तम-स्कन्धोक्त- रीत्या ग्निहोत्र दर्शपौर्णमास-चातुर्मास्ययाग पशुयाग - वैश्वदेव बलिहरणान्युच्यते । पूर्त-शब्देन सुरालयाराम - कूप वापीतडाग प्रपान सत्राण्युच्यन्ते । अत्र तु दृष्टम् (भा० ११।१२।३) " हविषाग्नौ यजेत मा” इत्यादावग्निहोत्राद्य पलक्षितम्, पूर्त्तम् (भा० ११।११।३८) “उद्यानोप- बनाक्रीड़-” इत्याद्य ुपलक्षितं ज्ञेयम् । एवं पूर्वोक्तप्रकारेणेष्टापूर्त्तेन यो मां यजेत् स मत्- स्मृतिस्तत्र साधुसेवया सतां प्रसङ्गेन सद्भक्ति-मन्तरङ्ग भक्तिनिां प्राप्नोतीत्यर्थः । तत्राग्नि- होत्रादीनां भक्तौ प्रवेशोऽग्न्यन्तर्यामिरूप भगवव धिष्टानत्वेनाग्न्यादि सन्तर्पणात् । कूपारामादीनाञ्च तत्परिचय्र्यार्थं क्रियमाणत्वासत्र प्रवेशः । तदेवं सत्सङ्गस्य सव्यपेक्षत्वमुक्तम्, पुनश्च तत्रैव तस्य स्वातन्त्र्येण यथेष्टफलदातृत्वं सर्वापेक्षया । परमसः मर्थ्यश्च ववतु परम- गुह्यत्वमुपदिष्टम् (भा० ११।११।४६।-

“अर्थतत् परमं गुह्यं श्रृण्वतो यदुनन्दन ।

" (=FF)

सुगोध्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत् सखा ॥”७२२॥

एतादृशम हिमत्वेनानुक्तत्वात्तदेतत् परमगुह्यत्वमाह, (भा० ११ १२ १) “न रोधयति”

‘दृष्ट’ शब्द का अर्थ - “हविषाग्नौ यजेत मां” अग्नि में घृताहुति के द्वारा मेरी पूजा करे । यह अग्नि होत्रादि शब्दोपलक्षित यज्ञ रूप अर्थ को जानना होगा । एवं पूतं’ शब्द से “उद्यानोपवना क्रीड़ापुर मन्दिर कर्म्मणि” भा० ११।११।३८ में उक्त भगवत् सेवोपयोगी पुष्प प्रधान, फल प्रधान, श्रीविग्रह का विहार स्थान, पुर ‘चक्रवेष्टन’ मन्दिरादि कर्म उपलक्षित अनुष्ठान को जानना चाहिये । इस प्रकार इष्ट एवं पूतं द्वारा जो मेरी पूजा करता है, वह मेरी स्मृति को प्राप्त करता है । उस के मध्य में अग्निहोत्र प्रभृति याग के द्वारा भक्ति में प्रविष्ट होने कारण - अन्तर्यामी भगवान् के अधिष्ठान रूप अग्नि प्रभृति में समर्पण करना है । यदि अग्नि प्रभृति में श्रीभगवान् अधिष्ठित हैं, इस प्रकार बुद्धि न करके केवल घृत के द्वारा आहुति प्रदान करने से भगवद् भक्ति में प्रवेश नहीं हो सकता है । और यदि भगवत् परिचर्या के उद्देश्य से कूप आराम प्रभृति का निर्माण होता है तो, ‘पूर्त’ कर्म के द्वारा ही भगवद् भक्ति में प्रवेश होगा । तद्भिन पुण्यादि उद्देश्य से कूपारागादि कर्मानुष्ठान से भगवन् भक्ति प्राप्ति नहीं हो सकती है। ऐसा होने पर पूर्व वर्णित प्रकारानुसार सत् सङ्ग का सर्व साधन सापेक्षत्व वर्णित हुआ पुनर्वार साधु सङ्ग का स्वतन्त्र रूप से यथेष्ट फल दातृत्व एवं सर्व साधन की अपेक्षा से परम सामर्थ्य युक्तत्व कहने के निमित्त परम गोपनीय विषय को कहते हैं- भा० ११।११।४६ में उक्त है-

एव

ope

“अर्थतत् परमं गुह्यं शृण्वतो यदुनन्दन ।

सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत् सखा ॥ १२२ ॥ इति ।

टीका - इदानीं साङ्ख्य योगादीनि साधनान्तर सापेक्षाणि सम्यभिचाराणि च सत् सङ्गस्तु स्वतन्त्र समर्थः फलाव्यभिचारी चेति वर्णयितुमाह अथेति । एतद्वक्ष्यमाणं परमं गुह्यम् अतः श्रृण्वित्यर्थः ॥

श्रीकृष्ण उद्धव को कहे हैं - हे यदुनन्दन उद्धव ! अनन्तर परम गोपनीय वृत्तान्त का वर्णन तुम्हारे निकट करता हूँ । श्रवण करो, कारण, तुम मेरा भृत्य हो, सुहृत एवं सखा हो, भा० ११।१२ में इस प्रकार साधु सङ्ग की महिमा का कथन नहीं हुआ है । किन्तु सम्प्रति भा० ११ १२ १ २ श्लोक द्वारा परम गोपनीय तत्त्व का वर्णन करता हूँ । अर्थात् साधु सङ्ग जो अति सु गोप्य है, उसका वर्णन कर रहा हूँ ।

[[४८६]]

[[૪૨]]

इति । त्यागः सन्न्यासः, दक्षिणा दानमात्रम्, यज्ञो देवपूजा, छन्दांसि रहस्यमन्त्राः, यथा सत् सङ्गो मामवरुन्धे वशीकरोति, तथा योगो न वशीकरोति, न च साङ्ख्यमित्यादिकोऽन्वयः । ततस्तेऽपि किञ्चिद्वशीकुर्वन्तीत्यर्थ - लब्धे भगवत्परा एव ज्ञेयाः, न च साधारणाः । अतएव च “वृतान्येकादश्यादीनि” इति टीकाकाराः । न चेतावता तेषां नित्यानां वैष्णववृतादीनाम- कर्त्तव्यत्वं प्राप्तमेकस्य फलातिशयसामर्थ्य - प्रशंसयेतरस्य नित्यत्वनिराकरणायोगात् । यथा कर्माधिकारिणः (भा० ७ १४।१७)

(भा० ७ १४।१७) -

“न ह्यग्निमुखतोऽयं वै भगवान् सर्वयज्ञभुक् ।

इज्येत हविषा राजन यथा विप्रमुखे हुतैः ॥”७२३॥

“न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च ।

न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टा पूत्तं न दक्षिणा ॥ (१) व्रतानि यज्ञश्चन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः ।

यथावरुन्धे सत् सङ्गः सर्व सङ्गावहो हि माम् ॥ (२)

टीका-न रोधयति न वशीकरोति । योग आसन प्राणायामादिः साङ्ख्य तत्त्वानां विवेकः । धर्मः सामान्यतोऽहिंसादिः । स्वाध्यायां वेदजपः । तपः कृच्छ्रादि । त्य गः सन्न्यासः । इष्टापूर्त्तम्– दृष्टश्च पूर्त्तञ्च । तवेष्टम्, अग्निहोत्रादि, पूर्त्तं कूपारामादि निर्माणम् । दक्षिणा शब्देन सामान्यतो दानं लक्ष्यते (१)

व्रतानि एकादश्युपवासादीनि । यज्ञो देव पूजा । छन्दांसि रहस्यमन्त्राः । अवरुन्धे वशीकरोति । (२) त्याग – सन्न्यास, दक्षिणा सत्पात्र में दान, यज्ञ - देवपूजा, छन्द—रहस्य मन्त्र, सत्सङ्ग, जिस प्रकार मुझ को वशीभूत करता है, योग प्रभृतिउस प्रकार वशीभूत करने में सक्षम नहीं हैं। अधिक कहना क्या है, आत्मानात्म विवेक रूप साङ्ख्य प्रभृति भी मुझ को वशीभूत करने में समर्थ नहीं है। उक्त श्लोकद्वय का अन्वय इस प्रकार ही जानना होगा । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि- “उस प्रकार वशीभूत करने में सक्षम नहीं हैं " इस प्रकार उल्लेख होने के कारण - तात्पर्य यह निकलता है कि उक्त साधन समूह किञ्चित् वशीभूत करने में सक्षम हैं। अर्थात् जो साधन भगवद् उद्देश्य में अनुष्ठित होते हैं, वह सब साधनों में भगवद् वशीकरण शक्ति किञ्चित् परिमाण में है, किन्तु तद्भिन्न साधारण योगादि साधन सगवान् को वशीभूत नहीं कर सकते हैं। इस अभिप्राय से ही श्रीधर स्वामि पाद ने व्रत शब्द का अर्थ - एकादशी प्रभृति किया है ।

यहाँ प्रश्न हो सकता है कि - यदि एकादशी प्रभृति वृत में साधुसङ्ग के समान भगवद् वशी कारिणी शक्ति नहीं है, तो एकादशी प्रभृति बूतानुष्ठान की आवश्यकता ही क्या है। उत्तर में कहते हैं—“एकादशी प्रभृति वृत सत् सङ्ग के समान वशीभूत करने में सक्षम नहीं हैं ।” इस प्रकार उल्लेख होने के कारण, एकादशी प्रभृति नित्य वैष्णव वृत्तों को अकर्त्तव्यता नहीं आती है । कारण, एकादश्यादि वृत न करने से वैष्णवता की रक्षा नहीं होती है। जिस का अनुष्ठान न करने से प्रत्यवाय होता है, वही नित्य है । एकादशी प्रभृति व्रत न करने से प्रत्यवाय होता है । यहाँ साधुसङ्ग की प्रशंसा एवं शक्ति का आधिक्य प्रदर्शित हुआ है । भक्ति के किसी एक अङ्ग की प्रशंसा करने पर अन्य अङ्ग का नित्यत्व का निषेध नहीं होता है । जिस प्रकार कर्माधिकारी वृन्द के प्रसङ्ग में (भा० ७।१४।१७ में) कहा गया है-

“न ह्यग्निमुखतोऽयं वै भगवान् सर्वयज्ञभुक् ।

इज्येत हविषा राजन् यथा विप्रमुखे हुतैः ॥ ७२३॥

[[४६०]]

इति श्रुत्वापि पूर्वोक्तम् (भा० ७ ११४ १६) “अग्निहोत्रादिना यजेत्” इति विधि न परित्यक्तु शक्नुवन्ति, तद्वत् । भक्तयधिकारिणश्च यथा ( भा० ११।१६।२१) “मद्भक्तपूजाभ्यधिका” इति श्रुत्वापि दीक्षानन्तरं नित्यतया प्राप्तां भगवत्पूजां त्यक्तुं न शक्नुवन्ति तद्वदिति । अतएव स्कान्दे-

" षड़ भिर्मासोपवासैस्तु यत् फलं परिकीर्तितम् । विष्णोर्ने बेद्यसिक्थेन तत् फलं भञ्जतां व लौ ॥ ७२ इत्यपि न बाधकम् । एकादश्यादौ हि नित्यत्वेऽप्यः नुषङ्गिकमेव महाफलदत्वं तत्र तत्र मतम् । अतएव नित्यत्वरक्षणार्थमपि तादृशं वैष्णवं वृतमवश्यमेव कर्त्तव्यमित्यागतम् । नित्यवैष्णव-

। व्रतत्वादिकञ्चैकादश्यादेरचन प्रसङ्गे किञ्चित् दर्शयिष्यामः । अतएव पूर्वाध्याये टीकाकारैरपि (भा० ११ १११३२) “आज्ञायैवं गुणान् दोषान्” इत्यत्र “विद्धैकादशी-कृष्णैकादश्युपवासानुप-

टोका - न पुनरति निर्बन्धो यज्ञार्थं काय्यं इत्याह नहीति । विप्रमुखे हुतैरन्नादिभि ग्रंथा इज्येत पूज्येत न तथा अग्निमुखतो हविषा इज्येत ।

हे राजन् ! सर्व यज्ञ भुक् श्रोभगवान् ब्राह्मण मुख में आहुति प्राप्त कर जिस प्रकार सन्तुष्ट होते हैं, घृत के द्वारा अग्नि में आहुति प्रदान करने पर उस प्रकार सन्तुष्ट नहीं होते हैं ।

ब्राह्मण के मुख में आहुति दान की महिमा को सुनकर भी जिस प्रकार कर्माधिकारिवृन्द, इस के पहले उक्त है । ( भा० ७ १४।१६ )

“यह्यत्मनोऽधिकाराद्याः सर्वाः स्युर्यज्ञसम्पदः । वैतानिकेन विधिना अग्निहोत्रादिना यजेत् ॥”

अग्निहोत्रादि के द्वारा यजन करे, इस विधि का त्याग नहीं करते हैं । यहाँपर भी उस प्रकार भक्ति अधिकारी वैष्णव, सत्सङ्ग महिमा को सुनकर नित्य विधि एकादशी प्रभृति व्रत को परित्याग करने में सक्षम नहीं होते हैं। भक्ति में अधिकारी के पक्ष में जिस प्रकार भा० ११।१६।२१ में उक्त “मद् भक्त पूजाभ्यधिका” अर्थात् मेरी पूजा से मेरा भक्त की पूजा अधिक है, इस प्रकार भक्त पूजा की महिमा को सुनकर भी दीक्षा ग्रहण के पश्चात् विधि रूप में वर्णित भगवत् पूजा को परित्याग करने में साधक सक्षम नहीं होता है । यहाँपर भी उस प्रकार ही जानना होगा। अतएव स्कन्द पुराण में वर्णित है-

“बड़ भिर्मासोपवासंस्तु यत् फलं परिकीत्तितम् ।

विष्णोर्ने वैद्यसिक्थेन तत् फलं भुञ्जतां कलौ ॥”७२४॥

[[15]]

छं मास उपवास करने का जो फल शास्त्र में उक्त है, विष्णु नैवेद्य भोजन करने से कलिकाल में वही फल होता है । इत्यादि प्रशंसा वाक्य के द्वारा भी एकादशी प्रभृति नित्य व्रत बाधित नहीं होते हैं । कारण, कतिपय व्यक्ति मानते हैं, एकादशी प्रभृति व्रत की महाफल प्रदान सामर्थ्य जब सुनने में आती है, तब वह सब व्रत का नित्यत्व होना कैसे सम्भव होगा ? कारण, फल श्रुति होने कारण, एकादशी व्रत का काम्यत्व ही होता है । उस के उत्तर में कहते हैं - यह सब व्रत नित्य होने पर भी आनुषङ्गिक रूप से महा है । अर्थात् नित्य कर्म का अनुष्ठान करने पर प्रत्यवाय नाश होता

फल प्रदान सामर्थ्य का भी उल्लेख हुन केवल प्रत्यवाय नाश हो नहीं होता है । किन्तु आनुषङ्गिक रूप

है। एकादशी प्रभृति व्रतानुष्ठान

पर

से महाफल लाभ भी होता है । अतएव एकादश्यादि व्रत की नित्यत्व रक्षा हेतु यह सब वैष्णव व्रतानुष्ठान करना अवश्य कर्त्तव्य है । यह सिद्धान्त समीचीन है। एकादश्यादि वैष्णव व्रत का नित्यत्व के सम्बन्ध

[[४६१]]वासानिवेद्य श्राद्धादयो ये भक्ति-विरुद्धा धर्मास्तान् संत्यज्येत्यर्थः’ इत्युक्तम् । प्रथमे च श्री भीष्मयुधिष्ठिरसंवादे (गा० १६।६७) “भगवद्धर्मान्” इत्यत्र “हरितोषकान् द्वादश्यादिनियम- रूपान् " इति, (३।१।१६) “व्रतानि चेरे हरितोषणानि” इत्यत्र तृतीये च “एकादश्यादीनि " इति व्याख्यातम् । अतएव भगवन्महाप्रसादकव्रतस्य श्रीमदम्बरीषस्य सच्छिरोमणेराचार- दर्शनात् तदेव निश्चीयत इति ॥