२३७

४१० २३७

तदेवं शरणापत्तिविवृता । अस्याश्च पूव्वंत्वम्-तां विना तदीयत्वासिद्धेः । तत्त्र यद्यपि शरणापत्त्यैव सव्वं सिध्यति

" शरणं तं प्रपन्ना ये ध्यानयोगविवज्जिताः ते वै मृत्युमतिक्रम्य यान्ति तद्वैष्णवं पदम् ॥ ७०२ ॥

“हे नाथ ! मैं तुम्हारा हूँ” इस प्रकार उक्ति-वाक्य के द्वारा, मन में भी उसी प्रकार भावना करना, शरीर के द्वारा निज अभीष्ट प्रिय के स्थान को आश्रय करने से शरणागत जन सुखी हो सकता है। ऐसा होने पर पूर्वोक्त प्रकार से जिस की शरणागति परिपूर्णाङ्ग होती है । उस को फल लाभ अतिसत्वर ही होता है । और जिस को सर्वाङ्ग पूर्ण शरणागति नहीं हुई है, अंश विशेष में त्रुटि रह गई है । उस की शरणा गति की तरतमता के अनुसार फल प्राप्ति की तरतमता भी होती है। इस प्रकार समझना होगा ।

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श्रीमद्भागवत के ११ १९१६ में भीभगवान् के निकट श्रीउद्धव ने इस प्रकार शरणागति को प्रशंसा की है-

(२३६) “तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे, सन्तप्यमानस्य भवाध्वनीश ।

पश्यामि नान्यच्छरणं तवाङ्घ्रि, द्वन्द्वातपत्रादमृताभिवर्षात् ॥ ७०१ ॥ टोका - महद्विमृग्यत्वमभिनयेनाह । तापत्रयेणेति । तापत्रयेणाभितो हतस्य अतः सन्तप्यमानस्य अङ्घ्रिद्वन्द्व मेवातपत्रं तस्मात् ।

हे ईश ! इस संसार पथ में त्रितापसन्तप्त मानव के पक्ष में अमृत वर्षण कारी तुम्हारे चरण युगल रूप आतपत्र (छत्र) को छोड़कर और कोई रक्षक नहीं है । शरणागत जन के समस्त दुःख विदूरित करना एवं शरणागत जन को सर्वतो भावेन अमृत वर्षण द्वारा अभिषिक्त करना ही तुम्हारे चरण युगल का अवदान है । अतः अमृताभिवर्षुक का उल्लेख भीचरणों का विशेषण रूप में हुआ है ।

उद्धव श्रीभगवान् को कहे थे ॥२३६॥

४११ २३७

पूर्वोक्त प्रकार से शरणापत्ति का वर्णन विस्तृत रूप से हुआ । सर्व प्रथम शरणापत्ति का ही प्रयोजन है, कारण, शरणापत्ति के विना तबीयत्व की सिद्धि नहीं होती है। अर्थात् जो श्रीभगवान् का होना चाहता है-उस के पक्ष में भगवत् शरणापत्ति परम आवश्यक है । यद्यपि शरणापत्ति के द्वारा ही समस्त भजन निष्पन्न होते हैं- इस का वर्णन गरुड़ पुराण में हैं-

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“शरणं तं प्रपन्ना ये ध्यानयोगविवज्जिताः ।

तदुद्वेष्णवं परम् ॥ ७०२॥

ते वै मृत्युमतिक्रम्य यान्ति तद्वेष्णवं परम् ॥ ७०२ ॥

जिन्होंने श्रीभगवान् की शरण ग्रहण किया है, उन के द्वारा ध्यान योग के बिना भी मृत्यु ग्रस्त संसार का अतिक्रम हो जाता है। एवं विष्णु पद लाभ भी होता है। इस में कोई संशय नहीं है । तथापि – भजनानुष्ठान का आस्वादन वैशिष्टय लाभ हेतु यदि समर्थ हो तो, श्रीभगवत् प्रति पादक शास्त्रोपदेष्टा

४-२ ]

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इति गारुडात्, तथापि वैशिष्टय लिप्सुः शक्तश्चेत्ततो भगवच्छास्त्रोपदेष्टृ णां भगवन् मन्त्रोपदेष्टृ णां वा श्रीगुरुचरणानां नित्यमेव विशेषतः सेवां कुर्य्यात् । तत्प्रसादो हि स्व-स्व- नानाप्रतीकार- दुस्त्यजानर्थ- हानौ परमभगवत्प्रसादसिद्धो च मूलम् । पूर्व्वत्र यथा सप्तमे श्रीनारदवाक्यम्

(भ्रा० ७।१५।२२–२५)

असङ्कल्पाज्जयेत् कामं क्रोधं कामविवर्जनात् । अर्थानर्थेक्षया लोभं भयं तत्त्वावमर्शनात् ॥७०३॥ अन्विक्षिक्या शोक-मोहौ दम्भं महदुपासया । योगान्तरायान् मौनेन हिंसां कामाद्यनीया ॥ ७०४ ॥

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कृपया भूतजं दुःखं देवं जह्यात् समाधिना । आत्मजं योगवीर्येण निद्रां सत्त्वनिषेवया ॥७०५ ॥

रजस्तमश्च सत्त्वेन सत्त्वञ्चोपशमेन च ।

एतत् सर्वं गुरौ भक्तचा पुरुषो ह्यञ्जसा जयेत् ॥ " ७०६ ॥

अथवा भगवन्मन्त्रोपदेष्टा श्रीगुरु चरण की विशेष सेवा नित्य करे । कारण, श्रीगुरु कृपा से ही विभिन्न प्रतीकार के उपायों के द्वारा जो सब अनर्थ निवृत्त नहीं होते हैं, वह सब अनर्थ अनायास निवृत्त हो जाते हैं । एवं श्रीभगवान् के परम अनुग्रह लाभ का भी एक मात्र उपाय, श्रीगुरु कृपा ही है। शास्त्रोपदेष्टा गुरु की अनुकम्पा से जो सर्वानर्थ विदूरित होते हैं, उस का वर्णन भा० ७।१५।२२-२५ में हैं-

“असङ्कल्पाज्जयेत् कामं क्रोधं कामविवर्जनात् । अर्थानर्थेक्षया लोभं भयं तत्त्वावमर्शनात् ॥७०३॥ आन्विशिक्या शोक–मोहौ दम्भं महदुपासया । योगान्तरायान् मौनेन हिंसां कामाद्यनीहया ॥७०४ ॥

कृपया भूतजं दुःखं देवं जह्यात् समाधिना । आत्मजं योगवीर्येण निद्रां सत्त्वनिषेवया ॥७०५ ॥ रजस्तमश्च सत्वेन सत्वञ्चोपशमेन च ।

एतत् सर्वं गुरौ भक्तया पुरुषो ह्यञ्जसा जयेत् ॥१७०६ ॥

टीका-इदानों कामादि जयोपायानाह असंपादिति चतुभिः । जयेदिति यथापेक्षमन्वेति । अर्थेऽनर्थ दर्शनेन । तत्रावमर्षणात् अद्वैतानुसन्धानेन । २। आन्वीक्षिक्या आत्मानात्मविवेकेन । महतां सात्त्विकानां सेवया । योगस्यान्तरायान् लोकवार्त्तादीन् ॥२३॥ येभ्यो भूतेभ्यो भयं जायते तेष्वेव कृपया हिताचरणेन देवं देवोपसग निमित्तं वृथा मनः पीड़ादि । तदुक्त’ याज्ञवल्क्येन, विमला विफलारम्भः संसीदत्यनिमित्तत इति । आत्मजं–देहजं योग वीर्येण प्राणायामादि बलेन सत्त्व निषेवया सात्त्विकाहारादिना ॥ २४२५ ।

श्रीयुधिष्ठिर महारज के प्रति देवर्षि नारद कहे थे - हे राजन् ! सङ्कल्प परित्याग के द्वारा कामजय करे । काम त्याग के द्वारा क्रोध को, विदूरित करे । अर्थ में अनर्थ दृष्टि के द्वारा लोभ को जय करे । दुःख के हेतु है, इस बुद्धि से अथवा सर्वथा अद्व ेत अनुसन्धान द्वारा, किंवा लोभनीय वस्तु में भविष्यत् काल में अनर्थ दृष्टि रखकर लोभ को विदूरित करे । आन्वीक्षिकी विद्या द्वारा अर्थात् आत्मानात्म जड़ चेतन विचार

उत्तरत्र वामनकल्पे ब्रह्मवाक्यस्-

[[४८३]]

’ यो मन्त्रः स गुरुः साक्षाद् यो गुरुः स हरिः स्वयम् । गुरुर्यस्य भवेत्तुष्टस्तस्य तुष्टो हरिः स्वयम् ॥”७०७०

अन्यत्र -

“हरौ रुष्टे गुरुम्बाता गुरौ रुष्टे न कश्चन । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन गुरुमेव प्रसादयेत् ॥ ७०८ ॥ इति । अतएव सेवामात्रन्तु नित्यमेव, यथा चान्यत्र परमेश्वरवाक्यम्-

“प्रथमन्तु गुरु पूज्य तनश्चैव ममार्चनम् । कुर्वन् सिद्धिमवाप्नोति ह्यन्यथा निष्फलं भवेत् ॥ ७०६ ॥ इति । अतएव नारदपञ्चरात्रे-

“वैष्णवं ज्ञानवक्तारं यो विद्याद्विष्णुवद्गुरुम् । पूजयेद्वाङ मनः कायैः स शास्त्रज्ञः स वैष्णवः ॥७१०॥ के द्वारा शोक मोह को अतिक्रम करे । महापुरुष की सेवा के द्वारा दम्भ को जय करे। मौनावलम्बन के द्वारा साधन का अन्तराय लोकवार्त्तादि को जय करे। विषय भोगादि के प्रति चेष्टा को परित्याग करके हिंसा को जय करे । जिस प्राणी से दुःख उपस्थित होता है, उस के प्रति कृपा करके दुःख जय करे । श्रीभगवान् में चित्त की एकाग्रता रूप समाधि द्वारा देव दुःख को विदूरित करे । प्राणायामादि योग बल से दैहिक दुःख विदूरित करे । सात्त्विक भोजनादि के द्वारा निद्राजय करे । सत्त्व गुण के द्वारा रजस्तमो गुण को जय करे। उपशमात्मक सत्त्व गुण के द्वारा विक्षेपात्मक सत्त्व गुण को जय करे। श्रीगुरुचरणों में अचला भक्ति के प्रभाव से उल्लिखित अन्तराय समूह को मानव, सुख पूर्वक विदूरित कर सकता है । श्रीभगवान् की परमानुग्रह प्राप्ति का परम उपाय एकमात्र श्रीगुरुचरण कृपा ही है । मन्त्रोपदेष्टा गुरु सेवा के विषय में वामन कल्प में श्रीब्रह्माने कहा है-

“यो मन्त्रः स गुरुः साक्षाद् यो गुरुः स हरिः स्वयम् ।

गुरुर्यस्य भवेत्तुष्टस्तस्य तुष्टो हरिः स्वयम् ॥ ७०७॥

ि

मन्त्र ही साक्षात् श्रीगुरु हैं, जो गुरु वही स्वयं श्रीहरि हैं, जिस के प्रति श्रीगुरु सन्तुष्ट होते हैं, स्वयं श्रीहरि–उस के प्रति सन्तुष्ट होते हैं । अन्यत्र भी वर्णित है-

“हरौ रुष्टे गुरुस्वाता गुरौ रुष्टे न कश्चन ।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन गुरुमेव प्रसादयेत् ॥” ७०८ ॥

श्रीहरि रुष्ट होने पर श्रीगुरुदेव रक्षा कर सकते हैं। किन्तु श्रीगुरुदेव रुष्ट होने से कोई भी रक्षा करने से समर्थ नहीं हैं। अतएव कायिक वाचिक, मानसिक प्रयत्न के द्वारा श्रीगुरु चरण की सेवा करनी चाहिये। एकमात्र श्रीगुरु चरण की सेवा के द्वारा साधक पूर्णता एवं प्रकृष्ट शान्ति को प्राप्त कर सकता है । अन्यत्र श्रीपरमेश्वर जो कुछ कहे हैं - उस में भी सुस्पष्ट है कि-श्रीगुरु चरण की सेवा के द्वारा ही जीव सर्वार्थ लाभ कर सकता है-

“प्रथमन्तु गुरु पूज्य ततश्चैव ममार्चनम् ।

कुर्वन् सिद्धिमवाप्नोति ह्यन्यथा निष्फलं भवेत् ॥७६॥

प्रथमतः श्रीगुरुदेव की पूजा करके, अनन्तर मेरी पूजा करने से ही साधक सिद्धि लाभ कर सकता है । ऐसा न करने पर अच्र्च्चन निष्फल होता है । अतएव नारद पञ्चरात्र में उक्त है—

“वैष्णवं ज्ञानवक्तारं यो विद्याद्विष्णुवद्गुरुम् ।

पूजयेद्वाङ्मनः कार्यः स शास्त्रज्ञः स वैष्णवः ॥ ७१०॥

[[४८४]]

पाद्म देवद्य ति–स्तुतौ-

श्लोकपादस्य वक्तापि यः पूज्यः स सदैव हि

॥ ।

किं पुनर्भगवद्विष्णोः स्वरूपं विरुनोति यः ॥ ७११॥ इत्यादि ।

“भक्तिर्यथा हरौ मेऽस्ति तदवरिष्ठा गुरौ यदि । ममास्ति तेन सत्येन सन्दर्शयतु मे हरिः ॥ ७१२ ॥ इति । तस्मादन्यद्भगवद्भजनमपि नापेक्षते, यथोक्तमागमे पुरश्चरणफलप्रसङ्गे-

“यथा सिद्धरसस्पर्शात् ताम्र भवति काञ्चनम् । सन्निधानाद्गुरोरेवं शिष्यो विष्णुमयो भवेत् ॥ ७१३ ॥ तदेतदाह (भा० १० ८०1३४) -

( २३७ ) " नाह मिज्या – प्रजातिभ्यां तपसोपशमेन वा ।

तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा ॥ ७१४॥

W टीका च-ज्ञानप्रदाद् गुरोरधिकः सेव्यो नास्तीत्युक्तम् । अतएव तद्भजनादधिको धर्मश्व

तु

श्लोकपादस्य वक्तापि यः पूज्यः स सदैव हि ।

कि पुनर्भगवद्विष्णोः स्वरूपं वितनोति यः ॥ ” ७११॥

जो ज्ञानोपदेष्टा वैष्णव गुरु को विष्णु तुल्य जानता है, एवं कायवाक्य मन से श्रीगुरु देव की करता है । वही शास्त्रज्ञ एवं वैष्णव है। जो भागवतीय श्लोक के एकपाद का भी उपदेश करते हैं, वह जो पूजा सर्वथा पूज्य हैं, इस में संशय क्या है ?

पद्म पुराण की देवडा ति स्तुति में वर्णित है-

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“भक्तिर्यथा हरौ मेऽस्ति तद्वरिष्ठा गुरौ यदि ।

ममास्ति तेन सत्येन सन्दर्शयतु मे हरिः ॥ " ७१२ ॥

श्रीहरि में मेरी जिस प्रकार निष्ठा है श्रीगुरुदेव में यदि उस से अधिक परिमाण में निष्ठा हो तो उस सत्य से श्रीहरि मुझ को दर्शन दान करें। अतएव श्रीगुरुचरणों में एकान्त अनुरागी की उक्ति से प्रतीत होता है कि श्रीगुरुचरणानुरागी के पक्ष में अन्य भगवद् भजन की अपेक्षा नहीं है ।

जिस प्रकार आगम में पुरश्चरण फल प्रसङ्ग में उक्त है-

“यथा सिद्ध रसस्पर्शात् ताम्रं भवति काञ्चनम् ।

सन्निधानः गुरोरेवं शिष्यो विष्णुमयो भवेत् ॥ ७१३॥

जिस प्रकार सिद्धरस-पारद- स्पर्श से ताम्र सुवर्ण होता है। उस प्रकार श्रीगुरु के सन्निधान में स्थित शिष्य भी विष्णुमय होता है।

उस विषय का वर्णन भा० १०१८७।३४ में इस प्रकार है-

२३७) " नाहमिन्या–प्रजातिभ्यां तपसोपशमेन चा

तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा ॥ ७१४ ॥

श्रीकृष्ण भी श्रीदाम विप्र को कहे थे — मैं इज्या - गृहस्थधर्म प्रजाति -प्रकृष्ट जन्म उपनयन, अर्थात् ब्रह्मचारिधर्म, तपस्या-अर्थात् वनस्थ धर्म, उपशम– सन्न्यासधर्म, अथवा यतिधर्म द्वारा परमेश्वर मैं उस प्रकार सन्तुष्ट नहीं होता हूँ, जिस प्रकार सर्व भूतात्मा होकर भी मैं गुरु सेवा से सन्तुष्ट होता हूँ । स्वामिपाद कृत टीका का मर्म्मार्थ यह है-ज्ञान प्रद श्रीगुरुदेव से अधिक सेव्य और नहीं है। इसका वर्णन पहले हुआ है। अतएव श्रीगुरुचरण के सेवा से अधिक धर्म नहीं है। उक्त टीका का सारार्थ यह है। ज्ञान प्रद अधिक सेव्य नहीं है - यहाँ ज्ञान शब्द से द्विविध अर्थ बोध होते हैं, एक ब्रह्म ज्ञान निष्ठ, अपर भगवन्निष्ठ । ज्ञान प्रद गुरु से

श्रोभक्तिसन्दर्भः

[[४८१]]

नास्तीत्याह नाहमिति । इज्या गृहस्थधर्मः, प्रजातिः प्रकृष्ट जन्मोपनयनम्, तेन ब्रह्मचारि- धर्म उपलक्ष्यते, ताभ्याम्, तथा तपसा वनस्थधर्मेण, उपशमेन यतिधर्मेण वा । अहं परमेश्वर- स्तथा न तुष्येयम्, यथा सर्वभूतात्मापि गुरुशुश्रूषया ।” इत्येषा । अत्र ज्ञानं ब्रह्मनिष्ठ भगवनिष्ठञ्चेति द्विविधम् । अत्र पूर्वत्र तथैव व्याख्या, उत्तरत्र त्वेवम्, -इज्या पूजा, प्रजाति- वैष्णवदीक्षा, तपः समाधिः, उपशमो भगवन्निष्ठेति ॥ श्रीभगवान् श्रीदामविप्रम् ॥