४०७ २३६
एवमेकादशी - जन्माष्टम्यादिगतोऽपि ज्ञेयः । अथ वैधीभेदाः शरणापत्ति- श्रीगुर्वादिसत्सेवा-श्रवणकीर्तनादयः । एते च प्रत्येकमपि द्विवादयः समुदित्यापि कारणानि
पूर्वोक्त प्रकार से जो मेरी पूजा करता है, वह अहैतुक भक्ति योग प्राप्त करता है । उस विधि का वर्णन भी भा० ११।२७८-६ में किया है ।
“यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पुरुषः ।
यथा यजेत मां भक्तया श्रद्धया तन्निबोध मे ॥ ६८६ ॥ अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे ।
द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरु माममायया । " ६८७ ।
टीका- यदा त्रैवर्णिकोयजेत तदा विशेष माह । यदागर्भीष्टमेश द्वादशाब्दादि वाले स्वनिगमेन स्वाधिकार प्रवृत्तेन वेदेनोक्तं द्विजत्वमुपनयनम् । (८) अर्चायां - प्रतिमादौ । (६)
जिस समय वैर्वाणक मानव - अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य - निज अधिकार के अनुरूप शास्त्रोक्त विधि से द्विजत्व अर्थात् उपनयन संस्कार प्राप्त कर विश्वास पूर्वक भक्ति युक्त हृदय में जिस प्रकार मेरा अर्चन करेगा, उसकी रीति को कहता हूँः अवहित चित्त से श्रवण करो, अच्च विग्रह में स्थण्डिल में अग्नि में सूर्य, जल, हृदय, द्विज, निज गुरु में निष्कपट भाव से भक्ति युक्त अन्तः करण से पूजोपयोगि विहित द्रव्य के द्वारा मेरी पूजा करे । इत्यादि प्रकरणोक्त विधि के द्वारा जो मानव मेरी पूजा करता है। वह अहैतुको भक्ति योग को प्राप्त कर सकता है ।
प्रकरण प्रवक्ता श्रीभगवान् हैं ॥ २३५॥ कथन हुआ है, उस प्रकार एकादशी, जन्माष्टमी वर्त्तव्य है, उस प्रकार एकादशी जन्माष्टमी
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जिस प्रकार अच्चन विषयक विधि का प्रभृति भी विहित है । अर्थात् श्रीभगवदर्चन जिस प्रकार प्रभृति श्रीभगवद् व्रतादि भी अवश्य पालनीय है ।
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अनन्तर वैधी के भेद निरूपण करते हैं । श्रीभगवत् शरणापत्ति, श्रीगुरु प्रभृति साधु वृन्द की सेवा एवं श्रवण कीर्तन प्रभृति को जानना होगा। यह शरणापत्ति प्रभृति भक्तयङ्ग समूह - एकक - अथवा दो व तीन अङ्ग एकत्र मिलित होकर भाव प्राप्ति के प्रति कारण होते हैं। इस का वर्णन शास्त्र में है। उक्त भक्तग्रङ्ग समूह के मध्य में प्रथमउक्त शरणापति का लक्षण वर्णन करते हैं। काम क्रोध लोभ, मोह, मद, मात्सर्य - यह बड़ वर्ग रिपुकृत संसार भय से बाध्यमान मानव अनन्योपाय होकर श्रीभगवच्चरणारविन्द में शरण ग्रहण करता है। भक्ति में जिस की कामना है वे भी काम क्रोधादि कृत भगवद् वंमुख्य दोष के द्वारा बाधित होकर श्रीभगवच्चरणों में शरण ग्रहण करते हैं। अर्थात् साधारण
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भवन्ति, तथा श्रवणात् । तत्र प्रथमतः शरणापत्तिः, - षड़ वर्गाद्यरिकृत संसारभयबाध्यमान एव हि शरणं प्रविशत्यनन्यगतिः । भक्तिमात्र कामोऽपि तत्कृत - भगवद् द्वैमुख्य बाध्यमानः । अनन्यगतित्वञ्च द्विधा दर्श्यते, –आश्रयान्तरस्याभाव-कथनेन, नातिप्रज्ञया कथञ्चिदा- श्रितस्यान्यस्य त्याजनेन च । पूर्वेण यथा (भा० १०।३।२७)
“मय मृत्युव्यालभीतः पलायन, लोकान् सर्वान् निर्भयं नाध्यगच्छत् । त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य, स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादति ॥ ५८८ ॥ इति ।
उत्तरेण यथा ( भा० ११०१२।१४–१५) -
“तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम् ।
लोहर
प्रवृत्तञ्च निवृत्तञ्च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ॥ ६८६ ॥ मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम् ।
認
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याहि सर्वात्मभावेन मया स्था ह्यकुतोभयः ॥ ६६॥ इति ।
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व्यक्ति, संसार भय से भीत होकर श्रीभगवान् की शरण ग्रहण करता है, और भक्ति कामी व्यक्ति श्रीभगवद् विमुखता निवारण हेतु उन के चरणों में शरण ग्रहण करते हैं। इस प्रकार शरण ग्रहण कारी को अनन्य गति कहते हैं । यह अनन्य गति-दो प्रकार हैं। उस के मध्य में श्रीहरि भिन्न आश्रयान्तर का अभाव कथन के द्वारा प्रथम प्रकार है । अतिशय ज्ञानाभाव के कारण - अर्थात् श्रीहरि ही एकमात्र आश्रय तत्त्व हैं, और सब आश्रित तत्त्व हैं। यह न जानकर अन्य देवता का आश्रय ग्रहण के पश्चात्
शास्त्रादि श्रवण जनित ज्ञान से हो, अथवा महत् के उपदेश से ही हो, आश्रित देवतान्तर को परित्याग करके श्रीभगवान् का आश्रय ग्रहण करना द्वितीय अनन्य गति है । उस के मध्य में पूर्व अनन्य गति अर्थात् अन्य आश्रय का अभाव कथन के द्वारा शरणा गति का दृष्टान्त भा० १०।३।२७ में है-
“मय मृत्युव्यालभीतः पलायन, लोकान् सर्वान् निर्भयं नाध्यगच्छत् । त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य, स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति । " ६८८ ।
टीका - क्षेमधामत्वमेवाह मत्र्त्य इति । लोकान् प्रति यदृच्छया केनापि भाग्योदयेन । हे आद्य । श्रीदेवकी देवी स्तव करके श्रीकृष्ण को कंस कारागार में बोली थीं । हे आद्य ! मरण धर्म परायण मानव मृत्यु रूप काल सर्पभय से भीत होकर सर्वत्र पलायन करके कहीं पर निर्भय स्थान प्राप्त नहीं किया, कारण, आब्रह्म स्तम्ब पर्यन्त समस्त लोक ही काल कवलित हैं । सुतरां कहीं पर मृत्यु भय निवारित नहीं होता है। किसी अनिर्वचनीय भाग्योदय के कारण महत् सङ्ग वा महत् कृपा से सौभाग्योदय होने से तुम्हारे चरणारविन्द में आश्रय प्राप्तकर निश्चिन्त होकर शयन करता है एवं मृत्यु उस मानव को देखकर पलायन करती है। आश्रयान्तर त्याग पूर्वक श्रीकृष्ण को आश्रय रूप में ग्रहण करने का प्रमाण अर्थात् अनन्यगति के द्वितीय कल्प का प्रमाण भा० ११।१२।१४–१५ में है-
“तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम् ।
प्रवृत्तश्च निवृत्तञ्च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ॥ ६८६ ॥
मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम् ।
याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः ॥ ६६०॥ (9)
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“चोदनां श्रुतिम् प्रतिचोदनां स्मृतिम्” इति टीका च । श्रीगीतासु च (१८ ६६) “सर्व- धर्मान् परित्यज्य” इत्यादि । तस्याः शरणापत्तेर्लक्षणं वैष्णवतन्त्रे-
SBI
“आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यविवर्जनम् । रक्षिप्यतीति विश्वासी गोप्तृत्वे वरणं तथा ॥६६१॥
आत्मनिक्षेप-कार्पण्ये षड् विधा शरणागतिः ॥ ६६२॥ इति । अङ्गाङ्गि-भेदेन षड़ विधा, तत्र गोप्तृत्वे वरणमेवाङ्गि, -शरणागति शब्देनैकार्थ्यात्, अन्यानि त्वङ्गानि, तत्परिकरत्वात्, आनुकूल्य प्रातिकूल्ये तद्भक्तादीनाम्, शरणागतस्य भावग्य वा, रक्षिष्यतीति विश्वासः ( भा० ३।१६।३७ ) - “क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्रयधीशः” इत्यादि
टीका - यस्मादेवम्भूतो मद् भजनप्रभावस्तस्मात् त्वं चोदनां श्रुति प्रति चोदनां स्मृतिश्च यद्वा, विधिञ्च निषेधश्व उत्सृज्य मां शरणं याहि मयैव अकुतोभयः स्याः भव ॥१४- १५॥
श्रीकृष्ण उद्धव को कहे थे - हे उद्धव ! श्रौत विधि एवं स्मार्त्तविधि अथवा, विधिनिषेध, प्रवृत्ति निवृत्ति, एवं श्रोतव्य-श्रुत विषय परित्याग पूर्वक सर्वदेहिवृत्व का आत्मा एकमात्र मेरी सर्वान्तः करण से तुम शरण लो । मेरेद्वारा तुम अकुतोभय हो जाओगे । अर्थात् भय शून्य हो जाओगे । श्रीमद् भगवद् गीता के १८ः३६ में भी उक्त है-
“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
हे अर्जुन ! तुम समस्त धर्मो को परित्याग करके अर्थात् समस्त धर्मानुष्ठान के प्रति आवेश को छोड़कर एवं मात्र मेरी शरण लो। मैं तुम को निखिल अन्तराय से रक्षा करूँगा । ज्ञातिबध हेतु शोक मत करो। उस शरणापत्ति के लक्षण, वैष्णव तन्त्र में उक्त है ।
“आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यविवर्जनम् ।
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तत्वे वरणं तथा ॥ ६६१॥
आत्मनिक्षेप-कार्पण्ये षड् विधा शरणागतिः ॥ " ६६२ ॥
इन षट् लक्षणों के मध्य में गोप्तृत्व में वरण अर्थात् श्रीभगवान् को रक्षक रूप में वरण करना, भगवान् ही रक्षा करेंगे। इस प्रकार निर्भरता ही शरणा गति का अङ्गी है, एवं अपर पाँच अङ्ग हैं । शरणा गति शब्द के सहित ‘गोप्तत्वेवरणं’ गोप्तारूप में वरण, को एकार्थता है, अतः यह अङ्गी है । और अन्य पञ्चाङ्ग उस के परिकर होने के कारण अङ्ग स्थानीय हैं । आनुकूल्य का ग्रहण, अर्थात् जो करने से श्रीभगवान् सन्तुष्ट होते हैं, काय, वाक्य मन के द्वारा उस प्रकार आचरण करना, अथवा शरणागत भाव के जो जो प्रतिकूल हैं, उस को काय वाक्य मन के द्वारा परित्याग करना । ‘रक्षिष्यतीति विश्वासः’ अर्थात् वही रक्षा कर्त्ता हैं, मेरी रक्षा करेंगे, इस प्रकार दृढ़ विश्वास करना । “क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्रयधीशः " निर्गुण माया नियन्ता भगवान् मङ्गल विधान करेंगे इस प्रकार विश्वास करना । आत्मनिक्षेप - अर्थात् श्रीभगवान् में आत्मसमर्पण कर। इस का प्रकार गौतमीय तन्त्र में लिखित है- ‘केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि । मेरे हृदय में अवस्थित किसी देवता के द्वारा में जिस प्रकार नियुक्त हो रहा हूँ। इस प्रकार ही कार्य्यं कर रहा हूँ। इस विषय में मेरा कुछ भी स्वातन्त्र्य नहीं है । इस प्रकार भावना का नाम आत्मनिक्षेप वा आत्मसमर्पण है । उस का संक्षेप यह है-
(१) श्रीभगवद् भजनानुकूल्य करने का सङ्कल्प, अर्थात् भगवद् भजन ही कर्तव्य है - इस प्रकार नियम करना । (२) भगवद् भजन के प्रतिकूल आचरण न करना । (३) श्रीभगवान् मेरी रक्षा करेंगे-
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प्रकारः, आत्मनिक्षेपः - “केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि " इति गौतमीयतन्त्रोक्त प्रकारः, यथोक्तं पाद्मोत्तरखण्डे चाष्टाक्षरस्य नमः शब्द- व्याख्याने, -
“अहङ्कृतिर्मकारः स्यान्न कारस्तान्निषेधकः । तस्मात्तु मनसा क्षेत्रि स्वातन्त्र्यं प्रतिषिध्यते ॥ ६६३॥ भगवत्परतन्त्रोऽसौ तदायत्तात्मजीवनः । तस्मात् स्वसामर्थ्याविधि त्यजेत् सर्वमशेषतः । ६६४॥ ईश्वरस्य तु सामर्थ्यान्नालभ्यं तस्य विद्यते । तस्मिन् न्यस्तभरः शेते तत्कर्मैव समाचरेत् ॥६६५॥ इति । अतएव ब्रह्मवैवर्ते-
“अहङ्कारनिवृत्तानां केशवौ न हि दूरगः । अहङ्कारयुतानां हि मध्ये पर्वतराशयः ॥” ६६६ ॥ इति । अतएव तृतीये ब्रह्मस्तवे स्वातन्त्र्याभिमानिनः संसारः श्रूयते, (भा० ३।६।६)
" यावत् पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ -
मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।
तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसंक्रमेत
व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रियार्था ॥ ६६७॥ इति ।
इस प्रकार सुदृढ़ विश्वास (४) रक्षक रूप में उन को स्वीकार करना वा उन के निकट प्रार्थना करना (५) श्रीभगवान् में आत्म समर्पण’ (६) कार्पण्य दैन्य-प्रकटन - अर्थात् हे भगवन् ! ‘मेरी रक्षा करो, कहकर कातरता प्रकटन । पाद्मोत्तर पुराण के अष्टाक्षर मन्त्र व्याख्यान प्रसङ्ग में लिखित है-
“अहङ्कृतिर्मकारः स्यान्नका रस्तन्निषेधकः ।
तस्मात्तु मनसा क्षेत्रि स्वातन्त्र्यं प्रतिषिध्यते ॥ ६६३ ॥ भगवत्परतन्त्रोऽसौ तदायत्तात्मजीवनः ।
तस्मात् स्वसामर्थ्यविधि त्यजेत् सर्वमशेषतः ॥ ६६४॥
ईश्वरस्य तु सामर्थ्यानालभ्यं तस्य विद्यते ।
तस्मिन् न्यस्तभरः शेते तत्कर्मैव समाचरेत् ॥” ६६५॥
‘नमस्’ जो ‘मकार’ है उस का अर्थ है-अहङ्कार, ‘नकार’ का अर्थ है उस का निषेध । अर्थात् अहङ्कार शून्यता । अतएव ‘नमस्’ शब्द के द्वारा जीव का स्वातन्त्र्य निषिद्ध हुआ है । जीव– नित्य ही परतन्त्र है, जीव का जीवन, सर्वदा ही भगवान् के अधीन है। अतएव अशेष प्रकार से निज समस्त सामर्थ्य विधि को परित्याग करे । अर्थात् मैं ही सब कुछ करूंगा, मेरी सामर्थ्य सब कुछ करने की ही - इस प्रकार चिन्ता न करे। ईश्वर की सामर्थ्य से जोव का कुछ अलभ्य नहीं रह जाता है । श्रीभगवान् में निर्भरता रखकर चले एवं श्रीभगवान् का हो कर्म्म करे। अतएव ब्रह्मवैवर्त में उक्त है-
“अहङ्कारनिवृत्तानां केशवो न हि दूरमः ।
अहङ्कारयुतानां हि मध्ये पर्वतराशयः ॥ " ६९६
।
अहङ्कार शून्य व्यक्ति वृन्द के पक्ष में केशव दूरगामी नहीं हैं। अहङ्कार युक्त व्यक्ति वृन्द के मध्य में राशि राशि पर्वत विद्यमान हैं। अर्थात् श्रीहरि उन से बहुदूर में विद्यमान हैं। श्रीहरि सान्निध्य लाभ करना उन के पक्ष में बहु काल साध्य है । अतएव भा० ३।६।६ के ब्रह्मस्तव में स्वातन्त्र्याभिमानी का संसार
वणित है ।
“बावत् पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ -
मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।
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कार्पण्यम् (पद्यावली ६६), – “परमकारुणिको न भवत्परः, परमशोच्यतमो न च मत् परः” इत्यादि–प्रकारम्, गोप्तृत्वे वरणञ्च यथा नारसिंहे-
त्वां प्रपन्नोऽस्मि शरणं देवदेवं जनार्द्दनम् । इति यः शरणं प्राप्तस्तं क्लेशादुद्धराम्यहम् ॥” ६६८ ॥ इति प्रकारम्, तदपि विप्रकारं कायिकत्वादि-भेदेन, यथोक्तं ब्रह्मपुराणे - 1
“कर्मणा मनसा वाचा येऽच्युतं शरणं गताः । न समर्थो यमस्तेषां ते मुक्तिफलभागिनः ॥ ६६६॥ इति । व्याख्यातं श्रीहरिभक्तिविलासे (११।६७७) -
“तवास्मीति वदन् वाचा तथैव मनसा विदन् । तत्स्थानमाश्रितस्तन्बा मोदते शरणागतः । । ७०० ॥ इति
तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसंक्रमेत
व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रिया ॥ " ६६७॥
टीका - ननु एवम्भूतायाः संसृतेरपरमार्थत्वात् किमर्थं विषाबः क्रियते ? तत्राह । यावदिति । आत्मन इदं पृथक्त्वं देहादि भावम् भगवत स्तव इन्द्रियार्थ रूपा या माया तथा बलम् - अधिवयं यस्य तत् । प्रति संक्रमेत् नोपरमेत । दुःख समूहं प्रापयन्ती । क्रिय. नामर्थः फलं बस्याम् ।
हे भगवन् ! जब तक ऐन्द्रियक भोग विषय में माया ने जो निज सामर्थ्य प्रकाश कर रखा है, जो मानव, मायाकृत उस देहादि धर्म को श्रीभगवान् से पृथक मानता है, अर्थात् इस में निज स्वतन्त्रता है, इस प्रकार अभिमान करता है, उस के सम्बन्ध में संसार वृथा होने पर भी निवृत्त नहीं होता है, वह संसार निवृत्ति हेतु जो कुछ करता रहता है-उस के द्वारा वह भूरि सूरि दुःख भोग हो करता है । कार्पण्य शब्द से कातरता वा दैन्य निवेदन को जानना होगा । पद्यावली ६६ में कार्पण्य प्रकटन प्रकार का उल्लेख
“परम कारुणिको न भवत् परः, परम शोच्यतमो न च मत्परः ॥ "
है -
नाथ ! आप के समान परम कारुणिक कोई भी नहीं हैं, और मुझ से - अधिक शोच्यतम भी कोई नहीं है । इत्यादि प्रकार निज हृदय की कातरता प्रकटन का नाम कार्पण्य है । गोप्तृत्वेवरणञ्च - श्रीभगवान् को रक्षक रूप में वरण करना नरसिंह पुराण में उक्त है-
“त्वां प्रपन्नोऽस्मि शरणं देवदेवं जनार्द्दनम् ।
इति यः शरणं प्राप्तस्तं क्लेशादुद्धराम्यहम् ॥” ६८
जो वाक्य से भी प्रकाश करता है - “हे देव देव जनार्द्दन ! मैंने आप की शरण ग्रहण किया” इस प्रकार से जो मेरी शरण ग्रहण करता है । मैं उस को क्लेश से उद्धार करता हूँ। इस प्रकार भाव प्रकाश का नाम गोप्तृत्वे वरणम्-अर्थात् रक्षक रूप में वरण करना है । यह ‘गोप्तृत्वेवरणम्’ कायिक, वाचिक, मानस भेद से तीन प्रकार हैं । ब्रह्म वैवर्त पुराण में लिखित है-
“कर्मणा मनसा वाचा येऽच्युतं शरणं गताः ।
न समर्थो यमस्तेषां ते मुक्तिफलभागिनः ॥ ६६९ ॥
जिन्होंने काय, वाक्य एवं मन के द्वारा श्रीहरि की शरण ली है। उनके प्रति दण्ड धारण करने में
यम भी सक्षम नहीं हैं, एवं वे मुक्ति प्राप्त करने के अधिकारी हैं ।
श्रीहरिभक्ति विलास के १११६७७ में शरणागति को व्याख्या हुई है।
“तवास्मीति वदन् वाचा तथैव मनसा विदन् ।
तत्स्थानमाश्रितस्तन्वा मोदते शरणागतः ॥ ७०० ॥
श्रीभक्ति सन्दर्भः
[
४८ १.
तदेवं यस्य सर्व्वाङ्गसम्पन्ना शरणापत्तिस्तस्य झटित्येव सम्पूर्णफला, अन्येषान्तु यथासम्पत्ति यथाक्रमञ्चेति ज्ञ ेयम् । तामेतां शरणापत्त श्लाघते, (भा० ११।१६ ) -
११.१६६)
४०९ २३६
“तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे, सन्तप्यमानस्य भवाध्वनीश ।
पश्यामि नान्यच्छरणं तवाङ्घ्रि, द्वन्द्वातपत्रादमृताभिवर्षात् ॥” ७०१ ॥ शरणागतानां सर्व्वदुःखदुरीकरणं निजमाधुरीणां सर्व्वतोवर्षञ्चत्राभिहितम् । उद्धवः श्रीभगवन्तम् ॥ ncell p
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