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तदेवं बहुधा साधितेषा अकिञ्चना आत्यन्तिकोत्यादिसंज्ञा भक्तिद्विविधा बंधी, रागानुगा चेति । तत्र वंधी शास्त्रोक्तविधिना प्रवत्तिता, स च विधिद्विविधः, तत्र प्रथमः प्रवृत्तिहेतुः, तदनुक्रम- कर्त्तव्याकर्त्तव्यानां ज्ञानहेतुश्च । प्रथमस्तूदाहृतः, (भा० १ २०१४) -

“तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः ।

श्रोतव्यः कोत्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा ॥” ६८४॥

इत्यादिना । द्वितीयश्चार्चनवृतादिगतः, तमाह, (भा० ११/२७/५३) -

(२३५) “मामेव नैरपेक्षेपण भक्तियोगेन विन्दति ।

भक्तियोगं स लभते एवं यः पूजयेत माम् ॥” ६८५॥

करने से जो निज हित साधित होता है । तज्जन्य ही श्रीहरि का भजन करे ।

श्रीकपिल देव कहे थे ॥ २३४ ॥

४०६ २३५

अकिञ्चना, मात्यन्तिको प्रभृति नामों से अभिहिता भक्ति का विचार अनेक प्रकारों से करके स्थिर सिद्धान्त किया गया है। उक्त भक्ति, वैधी रागानुगा भेद से द्विविधा हैं। तन्मध्ये रुचिविहीन केवल मात्र शास्त्रोक्त विधि के अनुसार जो अनुष्ठित होती है, उसका नाम वैधी भक्ति है । उक्त शास्त्रोत्थ विधि भी दो प्रकार हैं । जिस में भजन अनुष्ठान के अनुक्रम से कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य का बोध का हेतु विधि है । अर्थात्, शास्त्रीय विधि के अनुसार भजन करने की प्रवृत्ति का उद्गम होने पर, उस अनुष्ठेय भजनाङ्ग के मध्य में किस अङ्ग का अनुष्ठान पहले करना होगा ।, किस का अनुष्ठान बाद में करना होगा, एवं उसका प्रकार भी किस प्रकार है, इस प्रकार बोध हेतु विधि की अपेक्षा है । उस के मध्य में प्रथम प्रवृत्ति हेतु विधि का उदाहरण भा० ११२।१४ में है-

“तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः ।

श्रोतव्यः कीर्त्तितव्यश्व ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा । ६८४ ॥

"

श्रीसूत कहे थे - हे शौनक ! धर्मानुष्ठान का मुख्य फल श्रीहरि सन्तोष है। श्रीहरि सन्तोष के विना समस्त साधनानुष्ठान विफल होते हैं । अतएव परम्परा रूप से श्रीहरि सन्तोष का पथ को अवलम्बन न करके जिसे भक्ति योग के द्वारा श्रीहरि सन्तुष्ट होते हैं, उस भक्ति योग को अवलम्बन करना एकान्त कर्तव्य है । उस भक्ति योग का अनुष्ठेय प्रकार यह है । श्रीभगवशिष्ठ सङ्कल्प से भक्त जन प्रिय श्रीभगवान् कथा का नित्य श्रवण करना, कीर्त्तन करना, एवं उनका ध्यान करना, एवं पूजा करना अवश्य कर्त्तव्य है । इस प्रकार श्लोकों के द्वारा अवश्य कर्त्तव्य विधि का उल्लेख हुआ है। द्वितीय प्रकार में-भजन की क्रम परिपाटी बोध के हेतुरूप विषय-अर्चन एवं व्रतादि भजनाङ्ग पर है। उस का वर्णन भा० ११।२७।५७ में है-

(२३५) “मामेव नंरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति ।

भक्तियोगं स लभते एवं यः पूजयेत माम् ॥ " ६८५ ॥ नंरपेक्ष्य - शब्द से अहैतुक को जानना होगा, अहैतुक भक्ति योग - कैसे होगा ? उत्तर में कहते हैं ।

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नरपेक्ष्येण अहेतुकेन । अहैतुक भक्तियोग एवं कथं स्यात् ? तत्राह-भक्तियोग मिति । एवं

(भा० ११।२७८-६)

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“यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पुरुषः

यथा यजेत मां भक्तया श्रद्धया तन्निबोध मे ॥६८६ ॥ अर्वायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्य्ये वाप्सु हृदि द्विजे ।

द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेन स्वगुरु माममायया ॥ ६८७॥

इत्याद्य ुक्त - विधिना ॥ श्रीभगवान् ॥