२३४

४०३ २३४

अथ यस्या एवोत्कर्षज्ञानार्थमेते भक्तिभेदा निरूपिताः, सा भक्तिमात्रका मत्वान्निष्काम निर्गुणा केवला स्वरूप सिद्धा निरूप्यते । इयमेवाकिञ्चनाख्यत्वेन सब्र्वोद्धवं पूर्व्वमप्यभिहिता तामाह, (भा० ३।२६।११-१४) -

(२३४) “मद्गुणश्रुतिमात्रेण मथि सर्व्वगुहाशये ।

मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥६७८॥ लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य हुदाहृतम् । अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥६७६ ॥ सालोक्य- साष्टि- सामीप्य - सारूप्येकत्वमप्युत । दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥ ६८० ॥ स एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः । येनातिवृज्य त्रिगुणं मद्भावायोपपद्यते ॥ ६८१ ॥

मद्गुणश्रुतिमात्रेण, न तु तत्रोद्देश्यान्तरसिद्ध्यभिप्रायेण । प्राकृतगुणमयकरणानां सर्वेषां गुहा करणागोचरपदवी तस्यां शेते गुह्यतया निश्चलतया च तिष्ठति यस्तस्मिन् मयि

“कर्म निहोर मुद्दिश्य परस्मिन् वा तदर्पणम् ।

यजेद् यष्टव्यमिति वा पृथग् भावः स सात्त्विकः ॥ ६७७॥

‘यजेद् यष्टव्यमिति वा’ यह उद्धरार्द्ध हो इस विषय का उदाहरण है ॥२३३॥

है

४०४ २३४

अनन्तर जिस का उत्कर्ष बोध हेतु भक्ति का विविध भेद निरूपित हुए हैं। उस भक्ति की कामना एकमात्र भक्ति विषय में ही होने के कारण, वह निष्कामा, निर्गुणा, केवला, स्वरूप सिद्धा, प्रभृति नामों से अभिहिता होती है। इस स्वरूप सिद्धा भक्ति का सर्व प्रथम ‘अकिञ्चना” शब्द से सर्व श्रेष्ठ रूप में उल्लेख किया गया है । उस अकिञ्चना भक्ति का लक्षण भगवान् श्रीकपिलदेव ने जननी को भा० ३।२६।११–१४। में कहा है ।

(२३४) ‘मद्गुणश्रुणिमात्रेण मयि सर्व्वगुहाशये ।

२३४)

मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥६७८ ॥ लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य हुदाहृतम् । अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥६७६॥ सालोक्य साष्टि–सामीप्य- सारूप्येकत्वमप्युत । दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥६८०॥ स एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः । येनातिव्रज्य त्रिगुणं मद्भावाबोपपद्यते ॥ ६८१ ॥

जननि ! निर्गुण भक्ति योग का वर्णन करता हूँ, श्रवण करें। भक्ति को जिस अवस्था में किसी प्रकार उद्देश्य सिद्धि का अभिप्राय शून्य होकर मेरा गुण में - अर्थात् मेरी गुण कथा का श्रवण मात्र से ही सर्व गुहाशय मुझ में, गङ्ग प्रवाह की सिन्धु में निर्वाध गति के समान, अविच्छिन्ना मानसगति प्रवाहित होती है, उस अवस्थापन भक्ति का नाम निर्गुणा है । यहाँपर ‘गुहाशय’ शब्द का अर्थ है - प्राकृत गुणमय

[[४७२]] अविच्छिन्ना विषयान्तरेण विच्छेत्तुमशक्या या मनोगतिः सा । अविच्छिन्नत्वे दृष्टान्तः, यथेति । गतिरिति पूर्व्वस्मादाकृष्यते, छान्दसत्वात्, लक्षणं स्वरूपम् । ननु तस्या गुणश्रुतेः का वार्त्ता, उद्देश्यान्तराभावेन मनोगतित्वाभावेन च द्विधापि निर्देष्टुमशक्यत्वात् ? तत्राह - अहैतुकी फलानुसन्धानरहिता, अव्यवहिता स्वरूपसिद्धत्वेन साक्षाद्रपा, न त्वारोपादिसिद्धत्वेन व्यवधानात्मिका । तादृशी या भक्तिः, श्रोत्रादिना सेवन मात्रम्, सा च तस्य स्वरूपमित्यर्थः ! ‘मान’ - पदेना विच्छिन्नेत्यनेन च मनोगते र हैतुकीत्वा दिसिद्धेः पृथग्योजना र्हत्वात्, (२० ११।२३।२६) “सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी” इत्यादिषु “निर्गुणो मदपाश्रयः” इत्यादिभिस्तदाश्रय क्रियादीनां निर्गुणत्वस्थापनात्, (भा० ११।१३।४० )

“मां भजन्ति गुणाः सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम् ।

सुहृदं सर्वभूतानां साम्यासङ्गादयो गुणाः ॥” ६८२ ॥

इत्यत्र तद्गुणानामप्यप्राकृतत्वश्ववणात् । अहैतुकीत्वमेव विशेषतो दर्शयति-जना मदीयाः सालोक्यादिकमपि, उत अपि दीयमानमपि न गृह्णन्ति, मत्सेवनं विनेति गृह्णन्ति चेत्, इन्द्रिय वृन्द का अगोचर जो स्थान है, उस स्थान में गोपनीय रूप में एवं निश्चल रूप में जो अवस्थान करते हैं, वह गुहाशय हैं। अविच्छिन्ना’ शब्द का अर्थ है-किसी भी विषयान्तर के द्वारा जो भगवद् विषयिणी मनोवृत्ति विच्छा नहीं होती है। निर्गुण भक्ति योग का यही लक्षण अर्थात् स्वरूप है ।

यहाँ संशय हो सकता है कि - जिस में कुछ भी उद्देश्य नहीं है, एवं जो भगवान् मन के अविषय है, उन भगवान् के गुणों का निद्दश करना असम्भव ही है । अतएव श्रीभगवान् के गुण श्रवण कैसे हो सकता है ? उत्तर में कहते हैं— जो भक्ति अहैतुकी है, अर्थात् फलानुसन्धान रहिता है, अव्यवहिता भी है, अर्थात् स्वरूप सिद्धा भक्ति साक्षात् रूपा है, किन्तु आरोप सिद्धा भक्ति के समान ज्ञान कर्मादि व्यवधान युक्ता नहीं है। कथा श्रवण रूपा उस प्रकार भक्ति श्रवणादि इन्द्रियों के द्वारा सेविता होती है, वही निर्गुण भक्ति योग का स्वरूप है । मूल श्लोक में लिखित है- “मद् गुण श्रुति मात्रेण” यहाँ मात्र पद का उल्लेख है । एवं “मनोगतिरविच्छिन्ना” यहाँ ‘अविच्छिन्ना पद का उल्लेख होने के कारण, मनोगत के अहैतुकी प्रभृति धर्म स्वतः सिद्ध होने से पृथक् रूप से ‘अहैतुकी’, ‘अव्यवहिता’ प्रभृति पदों का प्रयोग निष्प्रयोजन होने पर भी सुस्पष्ट रूप से लक्षण को समझाने के निमित्त उक्त पद द्वय का प्रयोग किया गया है । भा० ११।२५।२६ में उक्त है - “सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी, एवं निर्गुणोमदपाध्यः” इत्यादि श्लोकों के द्वारा भगवदाश्रित क्रिया प्रभृति का निर्गुणत्व स्थापन करने के कारण, एवं

“मां भजन्ति गुणाः सर्वे निर्गुण निरपेक्षकम् ।

सुहृदं सर्वभूतानां साम्यासङ्गादयोगुणाः ॥ ६८२ ॥ !

सर्वभूतों का सुहृद्, सर्व निरपेक्ष प्राकृत गुणातीत मुझ को साम्य एवं असङ्ग प्रभृति अप्राकृत गुण समूह सेवन करते हैं, इत्यादि श्लोक में भगवद गुणों का अप्राकृतत्व प्रदर्शन करके निर्गुणा भक्ति जो अहैतुकी है, अर्थात् फलाभिसन्धि शुन्य है- इस का वर्णन विशेष रूप से करते हैं- हे मातः ! जो मेरे हैं, वे (सालोक्य) समान लोक में निवास करने का अधिकार, ‘साष्टि’ श्रीभगवान् के समान् ऐश्वर्य्य प्राप्ति । एकत्व, ब्रह्म वा ईश्वर सायुज्य प्राप्ति यह पञ्चविध मुक्ति के मध्य में एकत्व -अर्थात् ईश्वर सायुज्य वा

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[[४७३]]

तहि मत्सेवनार्थमेव गृह्णन्ति, न तु तदर्थमेवेत्यर्थः । साष्टिः समानैश्वर्य्यम्, एकत्वं भगवद- सायुज्यं ब्रह्मसायुज्यञ्च, अनयोस्तल्लीलात्मकत्वेन त सेवनार्थत्वाभावादग्रहणावश्यकत्वमेवेति भावः । तस्मात् स एव निर्गुणभक्तियोमाख्य आत्यन्तिकः, स एव चात्यन्तिम-फलतया भवनीत्यपवर्ग इत्यर्थः, (भा० ३।१५।४८) “नात्यन्तिकं विगणयन्ति” इत्यादेः, आत्यन्तिक- प्रलयतया तत्प्र सिद्धेश्च । ननु गुणत्रयात्यय पूर्वक भगवत् साक्षात्कार एवापवर्ग इति चेत्, तस्यापि तादृशधर्मत्वं स्वतः सिद्धमेवेत्याह-येनेति येन, कदाचिदप्य परित्याज्येन, मम भावाय ब्रह्म सायुज्य मुक्ति में ब्रह्म में लीन होना ही तात्पय्र्थ्य होने कारण - भगवत् सेवा में वह मुक्ति अनुकूल नहीं होती है । तज्जन्य सेवा पुरुषार्थिवृन्द सायुज्य मुक्ति का ग्रहण कभी भी नहीं करते हैं । अतएव पहले वणित के अनुसार जिस का लक्षण प्रकाशित हुआ है । वह भक्ति योग ही आत्यन्तिक पुरुषार्थ है, शास्त्र में उस का वर्णन भी बहुशः हुआ है । भा० ३।१५।४८ में उक्त है-

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“नात्यन्तिकं विगणयनन्त्यपि ते प्रसादं किम्वान्यदपतभयं व उन्नर्थस्ते ।

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येऽङ्ग त्वबङ्घ्रिशरणा भवतः कथायाः

कीर्त्तन्यतीर्थं यशसः कुशला रसज्ञाः ॥

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हे प्रभो ! आप का यशः परम रमणीय एवं अतिशय पवित्र है, अतएव कीर्त्तनार्ह एवं तीर्थ स्वरूप है। जो सब निपुण व्यक्ति, आप के कथा रसज्ञ हैं, वे मोक्ष नामक आप का आत्यन्तिक अनुग्रह को भी हिनकर नहीं मानते हैं। अन्य इन्द्रादि पद की तो कथा हो क्या है ? कारण, इन्द्रादि पद आप के भ्रूभङ्ग जनित भय सङ्कुल हैं, आप की कथा से भक्त गणं निरतिशय आनन्द लाभ करते हैं, अतः भय सङ्कुल इन्द्रादि पद की अपेक्षा उन सब को नहीं है । इत्य दिश्लोकों के द्वारा दर्शाया गया है कि- भक्ति में मोक्ष तिरस्कार कारी ही भक्ति सुख है । विशेष कर “यदेवमेतेन विवेक हेतिना” श्लोक के द्वारा मोक्ष सुख को सुख आत्यन्तिक प्रलय कहा गया है, अतएव को प्रलयपद वाच्य है, उस में क्या अधिक सुख सम्भव है ? कतिपय व्यक्ति कहते हैं- सत्त्वादि गुण त्रय विनाश पूर्वक भगवत् साक्षात् कार का नाम हो अपवर्ग है । उस का समाधान हेतु कहते हैं- भगवत् प्रीति लक्षण भक्ति योग में सत्वादि गुणत्रय का विनाश होकर भगवत् साक्षात् कार स्वतः सिद्ध हो है । अर्थात् जहाँ श्रीभगवान् में प्रीति लक्षण। भक्ति का आविर्भाव होता है, वहाँ सत्वादि गुण त्रय का विनाश होकर भगवत् साक्षात् कार होता ही है। इस अभिप्राय से ही कहते हैं- “येनाति व्रज्य त्रिगुणात् " अर्थात् जो भक्ति योग कभी भी परित्याज्या नहीं है । इस प्रकार भक्ति योग के प्रभाव से मेरा भाव अर्थात् साक्षात् कार हेतु योग्यता को प्राप्त करता है । (भा० ५।१६।१८– १६) “यथावर्ण विधानमपवर्गश्च भवति, योऽसौ भगवति” उक्त अभि प्राय से ही कहा गया है, भारत वर्ष. के वर्ण समुचित धर्म का पालन यथा विधि करने से अपवर्ग होता है, जो अपवर्ग-भगवान् वासुदेव में अनग्य निमित्त भक्ति योग है। उक्त भक्ति योग - अपवर्ग नाम से ख्यात होने का कारण यह है- “अनन्य निमित्त भक्ति योग लक्षणो नाना गति निमित्ताविद्या ग्रन्थि रन्धन द्वारेण” जिस अविद्या ग्रन्थि के द्वारा जीव विभिन्न देह में भ्रमण करता रहता है, उस अज्ञान मय अहमिका ग्रन्थि का छेदन भक्ति योग से ही होता है । इस अभिप्राय से ही अनन्य निमित्त अर्थात् अहैतुकी भक्ति योग का नाम अपवर्ग दिया गया है । किन्तु यथा विहित वर्ण धर्म आचरण करने से ही श्रीभगवान् में अहेतुकी भक्ति का उदय नहीं होता है ।

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विद्यमानतायै साक्षात्कारायेत्यर्थः, उपपद्यते समर्थो भवति, यथोक्तं पञ्चमे (भा० ५।१६ १८ १६) “यथावर्ण विधानमपवर्गश्च भवति, योऽसौ भगवति” इत्यादिकम्, “अनन्यनिमित्त-भक्तियोग- लक्षणो नानागतिनिमित्ताविद्य। ग्रन्थिरन्धनद्वारेण” इत्यन्तम् ।

अतो निर्गुणापि बहुधैवावगन्तव्या, एवमेवोक्तमेतत्करणारम्भे (भा० ३।२६।७) -

“भक्तियोगो बहुविधो मार्गैर्भाविनि भाव्यते ।

स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते ॥ " ६८३ ॥ इति

मार्गेः प्रकारविशेषैः, अतः स्वस्य भक्तियोगस्यैव मार्गेण वृत्तिभेदेन श्रवणादिना भावस्याभि- मानस्य तद्भेदेन दास्यादिना गुणानां तमआदीनाश्च तद्भेदेन हिंसादिना पुंसां भावोऽभिप्रायो विभिद्यत इत्यर्थः । अत्र मुक्ताफलटीका च - “अथम त्यन्तिकः, ततः परं प्रकारान्तराभावात्, अस्यैव भक्तियोग इत्याख्यान्वर्थेन, भक्तिशब्दस्यात्रैव मुख्यत्वात् । इतरेषु फल एवानुरागः, न तु विष्णौ, फलालाभेन भक्तित्यागात्” इत्येषा । श्रीगोपालतापनी श्रुतौ च (१1१८ ) - यावत् पर्य्यन्त भगवद् भक्त का सङ्गलाभ नहीं होता है, । भगवद् भक्त सङ्ग ही एकमात्र अहैतुकी भक्ति लाभ का कारण है । अतएव निर्गुणा भगवद् भक्ति योग भी प्रकार भेद से विविध हैं। इस विषय का वर्णन श्री कपिल देव ने किया है । भा० ३।२६।७ में

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“भक्तियोगो बहुविधो मार्गैर्भाविनि भाव्यते । स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते ॥ " ६८३ ॥

हे भाविनि ! विशेष विशेष मार्ग के द्वारा भक्ति योग बहु विध प्रकार से प्रकाशित होता है । अतएव स्वभाव, स्वरूप एवं गुण वृत्ति भेद से मानव के अभिप्राय में विभिन्न प्रकार हो जाते हैं । अर्थात् मानव के गुणानुरूप फल सङ्कल्प भेद होने के कारण भक्तिमें भी भेद उपस्थित होता है । अतएव भक्ति योग का मार्ग अर्थात् श्रवण कीर्तनादि वृत्ति भेद से अभिमान एवं दास्य सख्य प्रभृति अभिमान गत भेद से, एवं तमः, रजः, सत्त्वगुण प्रभृति के धर्म हिंसा प्रभृति के द्वारा मानव का भाव अर्थात् अभिमत विविध प्रकार के होते रहते हैं । यहाँ पर वोपदेव कृत मुक्ताफल टीका में लिखित है ‘: अयमात्यन्तिकः, ततः परं प्रकारान्तरा- भावात् । अस्यैव भक्ति योग इत्याख्यान्वर्थेन, भक्तिशब्दस्यात्रैव मुख्यत्वात् । इतरेषु फल एवानुरागः, न तु विष्णो फलालाभेन भक्तित्यागात्” इत्येषा ।

अर्थात् यह भक्ति योग ही आत्यन्तिक पुरुषार्थ है । कारण, इस भक्ति योग के बाद और प्रकार गत भेद नहीं है । कारण, सत्त्व, रजः तमः- यह तीन गुणों के अतीत भक्ति योग के वृत्तिगत भेद हो ही नहीं सकता । गुणमय भक्ति योग में फल लाभ में अनुराग होता है । किन्तु श्रीविष्णु में अनुराग नहीं होता है । कारण, फल लाभ करने में अक्षम होने पर भक्ति को वर्जन कर देता है ।

श्रीगोपाल तापनी श्रुति में भी लिखित है- “भक्तिरस्य भजनं तदिहा मुत्रोपाधिनैरास्येना मुष्मिन् मनः कल्पनमेतदेव च नैष्कर्म्यम् " यह श्रीकृष्णभजन ही भक्ति है, यह भजन भी ऐहिक पारलौकिक सुख भोग में लालसः शून्य होकर श्रीकृष्ण में ही सङ्कल्प स्थापन करना है । इस का ही अपर नाम नैष्कर्म्य है । शनपथ श्रुति में उक्त है- “स होवाच - याज्ञवल्कय स्तत् पुमानात्महिताय प्रेम्णा हरि भजेत् ॥” मानव आत्म कल्याणार्थ प्रीति लाभ हेतु श्रीहरि का भजन करे । अर्थात् श्रीहरि में प्रीति मात्र कामना

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“भक्तिरस्य भजनं तदिहा मुत्रोपाधिनं रास्येनामुष्मिन् मन कल्पनमेतदेव च नैष्कर्म्यम्” इति, शतपथश्रुतौ - “स होवाच याज्ञवल्क्यस्तत् पुमानात्महिताय प्रेम्णा हरि भजेत्” इति, प्रेम्णा प्रीतिमात्र कामनया यदात्महितं तस्मै इत्यर्थः ॥ श्री कपिलदेवः ॥