२३३

४०० २३३

अथ कैवल्यकामा सात्त्विक्येव, सा यथा (भा० ३।२६।१०) -

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(२३३) “कर्मनिर्हार मुद्दिश्य परस्मिन् वा तदर्पणम्

ही

यजेद्द्यष्टव्यमिति वा पृथग्भावः स सात्त्विकः ॥”६७७॥

(२३) “अभिसन्धाय जो हिंसां दम्भं मात्सर्य्यमेव वा ।

संरम्भी भिन्न दृग्भावं मयि कुर्य्यात् स तामसः ॥ ६७५ ॥ । जो, हिंसा, गर्व, पर श्रीकातरता प्रभृति सङ्कल्प करके कोपन स्वभाव एवं भेद दृष्टि से अर्थात् निज सुख दुःख जिस प्रक र प्रिय एवं अप्रिय है, उस प्रकार सर्वत्र दृष्टि शून्य ‘सर्वभूत में दया शून्य’ होकर जो मुझ में भक्ति करता है, वह तामस है, अतएव उसकी भक्ति तामसी है । द्वितीय राजसी भक्ति का उदाहरण भी श्री कपिल देवने प्रस्तुत किया है। जो विषय, यश, अथवा ऐश्वर्य्य लाभेच्छ, होकर प्रतिमा प्रभृति में मेरा अच्चंत करता है, वह राजन है । कारण, मुझ को छोड़कर अन्य विषय में चित्त का आवेश है, किन्तु मुझ में चित्त का आवेश नहीं है, राजसत्व के प्रति यही हेतु है ॥२३१॥

४०१ २३२

अनन्तर कैवल्य कामा भक्ति, -किन्तु सात्त्विकी है, उस का वर्णन श्रीकपिल देवने स्वीय जननी के समक्ष में किया है । (भा० ३२हा

कर्म

(२३२) “विषयानभिसन्धाय यश ऐश्वर्थ्य मेव वा ।

अर्चादावर्चयेद् यो मां पृथग् भावः स राजसः ॥ ६७६॥

हे मातः । जो कर्म परिहार अर्थात् मोक्षलाभ हेतु अथवा ईश्वर में कर्मर्पण करता है, किंवा यज्ञादि समूह नित्य विधि प्राप्त होने के कारण, अवश्य ही ईश्वर की पूजा करनी चाहिये, इस बुद्धि से परमेश्वर की पूजा करता है, किन्तु भक्ति तत्त्व ज्ञान द्वारा परमेश्वर की पूजा नहीं करता है । अतएव वह व्यक्ति, पूर्व वर्णित राजस भक्त के समान पृथक् भाव होने के कारण, अर्थात् भक्त मोक्ष को ही पुरुषार्थ रूप में भावना करता है, तज्जन्य मोक्षार्थी भक्त सात्त्विक नाम से अभिहित होता है ॥३२३॥

४०२ २३३

अनन्तर कैवल्य कामा साविको भक्ति का वर्णन करते हैं- भा० ३।२६ १० में है ।

(२३३) “कर्म निर्धार मुद्दिश्य परस्मिन् वा तदर्पणम् ।

यजेद् यष्टव्यमिति वा पृथग् भावः स सात्विकः ॥”६७७॥

श्रीकपिलदेव निज जननी को कहे थे, - मातः ! जो कर्म परिहार अर्थात् मोक्षलाभ हेतु अथवा

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कर्म्मनिहरं मोक्षमुद्दिश्य परस्मिन् परमेश्वरे यो वा कर्मार्पणं कुरुते, यो वा यष्टव्यं सर्वेषां नित्यविधिप्राप्तत्वेनावश्यमेव तत्पूजनं कर्त्तव्यमिति बुद्धया, न तु भक्तितत्त्वज्ञानेन यो यजेत्, परमेश्वरं पूजयति, अतएव पूर्व्ववत् पृथग्भावो भक्तेः पृथङ्मोक्षमेव पुरुषार्थत्वेन भावयन् स सात्त्विक उच्यते । उत्तरस्या अपि तात्पय्यं कर्मनिर्हार एव भवेदिति । उक्तञ्च (भा० ११।२५।२६) “सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी” इति, (भा० ११।२५।२४) “केवल्यं सात्त्विकं ज्ञानम्’ इति, (भा० १११२५ २६) “सात्त्विकं सुखमात्मोत्थम्” इति च तत्साधन-साध्ययोः सगुणत्वम् । अत्रत्योदाहरणं यजेदित्युत्तरार्द्धमेव ॥

परमेश्वर में कर्मर्पण करता है, किंवा यज्ञादि कर्म समूह नित्य विधि विहित हेतु अवश्य ही परमेश्वर की पूजा करनी चाहिये- इस बुद्धि से परमेश्वर की पूजा करता है, किन्तु भक्ति तत्त्व ज्ञान से पूजा नहीं करत

। अतएव वह पूर्व वर्णित राजस भक्त के समान पृथग् भाव होने के कारण, अर्थात् भक्ति से मोक्ष को श्रेष्ठ पुरुषार्थ मान कर धर्माचरण करता है, वह मोक्षार्थी भक्त, सात्विक नाम से अभिहित होता है। उत्तर पक्ष का, अर्थात् नित्य विधि प्राप्त मानकर जो परमेश्वर का अर्चन करता है-उसका भी तात्पर्य्यं कर्म्म परिहार में ही पर्य्यवसान होता है। इस अभिप्राय से ही भा० ११।२५।२६ में उक्त है-

“सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी रागान्धो राजसः स्मृतः ।

तामसः स्मृति विभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः ॥ सात्त्विकचाध्यात्मिको श्रद्धा कर्म श्रद्धा त राजसी । तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत् सेवायान्तु निर्गुणः ॥”

तु

श्रीभगवान् कृष्ण कहे थे, ― हे उद्धव ! जो कर्त्ता अनासक्त है, वह सात्त्विक है, अर्थात् जिस की आसक्ति कर्म फल में नहीं है, वह अधिकारी सात्त्विक होता है । और जो अधिकारी फल प्राप्ति हेतु अत्यन्त अभिनिविष्ट है, वह राजस है । जो अनुसन्धान शून्य है, वह तामस है । जो एकान्त भाव से मेरी शरणागत है, वह निर्गुण है, कारण, उसका किसी प्रकार अहङ्कार नहीं है। आत्म-अनात्म विचार में जो श्रद्धा है, - वह सात्त्विकी है, कर्म श्रद्धा का नाम राजसी है, अधर्म में धर्म मानकर जो श्रद्धा है, वह तामसी है, मेरी सेवा में जो श्रद्धा है - वह निर्गुण है । भा० ११।२५।२४ में और भी कहे हैं-

“कैवल्यं सास्विक ज्ञानं रजोवैकल्पितश्च यत् । (5)

प्राकृतं तामसं ज्ञानं मन्निष्ठ निर्गुणं स्मृतम् ॥

टीका– इदानों सगुण निर्गुण भेदेन ज्ञानादीनां चातुविध्यमाह । कैवल्यं देहादि व्यतिरिक्तात्म विषयं वैकल्पिकं देहादि विषयम् । यत् तद्वजे राजसम् । प्रकृतं बालमूकादि ज्ञान तुल्यम् । मन्निष्ठु परमेश्वर विषयम् । भा० ११।२५।२७ में भी आपने कहा है ।

“सात्विकं सुखमोत्मात्थं विषयोत्थन्तु राजसम्

तामसं मोह दन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम् ॥”

टीका- आत्मोत्थं सुखम् । मदपाश्रयमित्यपि त्वं तत् पदार्थ विषयत्वेन ज्ञानवदेव द्रष्टव्यम् ॥ कैवल्य सात्त्विक ज्ञान है, इस से प्रतिपन्न होता है कि मोक्ष कामना सात्त्विकी है । इस से सुस्पष्ट प्रतीति होती है कि इस विषय में साध्य साधन – उभय ही सात्त्विक होने के कारण कैवल्य कामा भक्ति भी सगुणा भक्ति के मध्य में पर्य्यवसित है । भा० ३।२६ १० में उक्त-

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