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अथ ज्ञानमिश्रा (भा० ६ १६/६२) -

(२३०) “दृष्टश्रुताभिर्मात्राभिनिर्मुक्तः स्वेन तेजसा ।

ज्ञान-विज्ञान संतृप्तो मद्भक्तः पुरुषो भवेत् ॥” ६७४ ॥

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दृष्टेति ऐहिकामुष्मिक विषयैः स्वेन तेजसा विवेकबलेन ॥ श्रीसङ्कर्षणचित्र केतुम् ॥ २३१ । अथ केवलस्वरूप सिद्धोदाह्रियते । तत्र सकामा कैवल्यकामा चोपासक - सङ्कल्प- गुणैस्तत्तद्-गुणत्वेनोपचर्यते । ततः सकामा द्विविधाः, -तामसी राजसी च, पूर्व्वा यथा (भा० ३।२६८)

मेरा नाम सङ्कीर्त्तन, सारल्य, साधुसङ्ग, निरहङ्कार - यह सब के द्वारा, मदीय धर्मानुष्ठान कारी व्यक्ति का चित्त विशुद्ध होता है । अर्थात् अन्य सर्व प्रकार आवेश शून्य होकर एकमात्र मुझ में गाढ़ आवेश प्राप्त कर मेरा गुण श्रवण मात्र से अतिशय सुख पूर्वक अ शु मुझ को प्राप्त करता है । भा० ३।२६।११ में उक्त है-

अशु “मद्गुण श्रुति मात्रेण मयि सर्व गुहाशये ।

मनोगतिरविच्छिन्ना यथागङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥”

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हे मातः ! मदीय गुण श्रवण मात्र से ही मांसमयी दृष्टि के अगोचर में अवस्थित मुझ में, सिन्धु में गङ्ग प्रवाह की निर्वाध गति के तुल्य अविच्छिन्न मनो गति का नाम ही ध्रुवानुस्मृति है, उस ध्रुवानुस्मृति को प्राप्त करता है । यहाँ भक्ति योग के सहित जिस प्रकार स्वधर्मानुष्ठान का उल्लेख होने के कारण, यह भक्ति कर्म मिश्रा हुई है, उस प्रकार ही आध्यात्मिक श्रवणादि की कथा का उल्लेख होने से यह भक्ति ज्ञान मिश्रा भी है ।

श्री कपिलदेव–स्वीय जननी को कहे थे ॥ २२६ ॥

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अनन्तर ज्ञान मिश्रा भक्ति का वर्णन करते हैं- भा० ६।१६।६२ में उक्त है-

(२३०) “दृष्टश्रुताभिर्मात्राभिनिमुक्तः स्वेन तेजसा ।

ज्ञानविज्ञान संतृप्तो मद्भक्तः पुरुषो भवेत् । " ६७४॥

अनन्तर ज्ञान मिश्रा कैवल्य कामा भक्ति का दृष्टान्त उपस्थापित करते हैं-चित्र केतु महाराज के प्रति श्रीसङ्कर्षण देव कहे थे - हे राजन् ! पुरुष निज विवेक द्वारा ऐहिक, आमुष्मिक विषय द्वारा निर्मुक्त होकर शास्त्रोत्थज्ञान द्वारा एवं अपरोक्ष अनुभव द्वारा संतृप्त होकर मेरे प्रति भक्तिमान् होता है ।

श्रीसङ्कर्षण चित्रकेतु को कहे थे ॥ २३० ॥