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कर्मं ज्ञानमिश्रा यथा ( भा० ३।२।१५-१० ) -
(२२६) “निषेवितानिमित्तेन स्वधम्र्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिस्र ेण नित्यशः ॥ ६६६ ॥
एवं धम्मैर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम् ।
मयि सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते ॥ ६६८ ॥
देश कालोचित मेरी परिचर्य्या का आदर, अष्टाङ्ग प्रणाम मेरी पूजा से मेरे भक्त की पूजा का अधिक महत्व, कारण भक्त की पूजा करने से मेरा अतिशय सन्तोष होता है। दृश्यमान सर्वभूत में मेरी सत्ता है । इस दृष्टि से आवर प्रदान करना, मेरा भजन हेतु कायिक चेष्टा, लौकिक वाक्य के द्वारा भी मेरा गुण वर्णन, सङ्कलात्मक मन को मुझ को अर्पण करे मुझ को छोड़कर अन्यत्र अभिलाष वर्जन करे । मेरा भजन के आनुकूल्य हेतु भक्ति विरोधी विषयों को परित्याग करे, भोग साधन चन्दनादि परित्याग करे । पुत्र लालन पालनादि सुख परित्याग करे, मेरे उद्देश्य में कर्मानुष्ठान करे। कारण, मदीय सुखार्थ अनुष्ठित वैदिक कर्म भक्ति लाभ का कारण होता है। विष्णु वैष्णव सन्तोषार्थ दान करे । ब्राह्मण वैष्णव को धृत पक्कान्न प्रदान करे । भगवन्नाम का मन्त्र जप करके मुझ को समर्पण करे। मुझको प्राप्त करने के निमित्त एकादशी प्रभृति में उपवास करना ही भक्त की तपस्या है । हे उद्धव ! इस रीति से अनुष्ठित भागवत धर्म के द्वारा मुझ को आत्मसमर्पण कारी मनुष्य वृन्द की भक्ति वृद्धि होती है । अर्थात् इस प्रकार अनुष्ठित साधन भक्ति के द्वारा प्रेम भक्ति मिलती है । इस प्रकार काय वाक्य मन के द्वारा केवल भगवत् सन्तोषार्थ चेष्टा करके अनुष्ठित भागवत धर्म के द्वारा जिन्होंने भगवान् को आत्मसमर्पण किया है। एवं भजन के विनिमय में अन्य कुछ नहीं चाहा है। उनकी साधन रूप अथवा साध्य रूप किसी प्रकार प्रयोजन प्राप्ति अवशिष्ट नहीं रह जाती है । समस्त प्रयोजन बिना प्रयत्न से स्वयं ही सिद्ध होते हैं। यदि भक्ति मात्र कामी भक्त, धर्मार्थ काम मोक्ष प्रभृति को अनादर करता है, तथापि उक्त समस्त पुरुषार्थ उक्त भक्त के अनुगत होकर रहते हैं । कारण, भा० ५।१८ १२ में कथित है -
॥”
“यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिश्चना सर्वेगुणस्तत्रसमासते सुराः ॥ श्रीभगवान् में जिसकी अकिञ्चनाभक्ति है, गरुड़ प्रभृति श्रीभगवान् के प्रिय पार्षद वृन्द समस्त गुणों के सहित उस भक्त में आसक्त होते हैं ।
श्री भगवान् कहे थे ॥ २२८ ॥
।
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भा० ३।२६।१५–१६ में कर्म ज्ञान मिश्रा भक्ति का वर्णन है-
मद्धिष्ण्य दर्शन- स्पर्श- पूजा स्तुत्य भिवन्दनैः
भूतेषु मद्भावनया सत्वेनासङ्गमेन च ॥ ६७०॥ महतां बहुमानेन दीनानामनुकम्पया । मैत्र्या चैवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥ ६७१ ॥ आध्यात्मिकानुश्रवणान्नामसङ्कीर्त्तनाञ्च मे । आर्जवेनार्य्यसङ्गेन निरहं क्रियया तथा ॥ ६७२ ॥ मद्धर्म्मणो गुणैरेतैः परिसंशुद्ध आश्रयः ।
पुरुषस्याञ्जसाभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥ " ६७३॥
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निषेवितेन सम्यगनुष्ठितेन, अनिमित्तेन च निष्कामेण, स्वधर्मेण नित्य नैमित्तिकेन, महीयसा श्रद्धादियुक्तेन, क्रियायोगेन पश्चरात्राद्य क्त-वैष्णवानुष्ठानेन, शस्तेन उत्तमदेश- कालादिमता निष्कामेण च, नातिहिंस्र ेण अतिहिंसारहितेन, ‘अति’–शब्दः प्राणादिपीड़ा- परित्यागफलपत्रादि- जीवावयवस्वीकारार्थः, मद्धिष्ण्यं
मद्धिष्ण्यं मदर्चादि, भूतेष्वःतय्र्य्यामित्वेन मद्भावनया, सत्त्वेन धैर्येण, असङ्गमेन वैराग्येण च अहिंसारतेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः, शौच- सन्तोष तपः-स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः, आध्यात्मिक -मात्मानात्मविवेक शास्त्रम्, निरहंक्रियया गर्व्वराहित्येन मद्धर्म्मणो मद्धर्मानुष्ठातुः पुरुषस्याशयश्चित्तम्, श्रुतमात्रगुणं
(२२९) “निषेवितानि मित्तेन स्वधर्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिंस्र ेण नित्यशः ॥६६६ ॥ मद्धिष्ण्यदर्शन- स्पर्श – पूजा स्तुत्य भिवन्दनः । भूतेषु मद्भावनया सत्त्वेनासङ्गमेन च ॥६७० ॥ महतां बहुमानेन दीनानामनुकम्पया ।
मंत्र्या चैवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥ ६७१॥ आध्यात्मिकानुश्रवणानामसङ्कीर्तनाच्च मे । आर्जवेनाय्यं सङ्गेन निरहंक्रियया तथा । ६७ ॥ मद्धर्म्मणो गुणैरेतैः परिसंशुद्ध आश्रयः ।
पुरुषस्याञ्जसाभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥ ६७३॥
5-
श्रीभगवान् कपिल देव निज जननी को कहे थे - हे मातः ! सम्यक् रूप से अनुष्ठित, श्रद्धादि युक्त स्वधर्म निष्ठा द्वारा, एवं पश्व रात्रादि शास्त्र में वर्णित वैष्णवानुष्ठान क्रियायोग के द्वारा अर्थात् अर्चन के द्वारा, उत्तम देश कालादि को जान कर निष्काम भाव से धर्माचरण के द्वारा नाति हिलोण, अतिहिंसा रहित होकर, अर्थात् प्राणादि पीड़ा वर्जन पूर्वक विहित पत्र पुष्पादि ग्रहण पूर्वक स्वधर्माचरण द्वारा, प्रत्यह श्रीविग्रह दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति एवं नमस्कार के द्वारा, सर्वत्र मैं विद्यमान हूँ, इस प्रकार भावना द्वारा एवं सत्य, अर्थात् धैर्य द्वारा, असङ्ग - वैराग्य द्वारा, महापुरुष वृन्द को सम्मान प्रदान कर, दीन जन को कृपा करके, आत्म तुल्य व्यक्ति के प्रति बन्धु भावस्थापन कर, शौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान यह पञ्चविध नियम द्वारा, अहिंसा, अचौथं, ब्रह्मचर्य्य, अपरिग्रह यह चतुविध यम द्वारा, एवं
[[४६८]] मामञ्जसाभ्येति, (भा० ३।२६।११) “मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि” इत्याद्युक्तलक्षणां ध्रुवानुस्मृति प्राप्नोतीत्यर्थः । अत्राध्यात्मिक श्रवणादिना ज्ञान ङ्गेन ज्ञानमिश्रत्वमपि ॥ श्रीकपिलदेवः ॥
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