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अनन्तर कैवल्य कामा भक्ति का प्रदर्शन करते हैं । यह कैवल्य कामा भक्ति, नहीं कर्म ज्ञान मिश्रा कहीं ज्ञान मिश्रा होती है । उस के मध्य में ज्ञान शब्द का अर्थ ऐकात्म्य दर्शन है, जीवात्मा एवं परमात्मा का स्वरूपतः अभेद दर्शन ज्ञान । भा० १२।१६।२७ “ज्ञानञ्चैकात्म्य दर्शनम्’ में इस का उल्लेख है। इस का वर्णन पहले हुआ है । उस ज्ञानाङ्ग श्रवण मननादि एवं वैराग्य, योग, सांख्य, - ज्ञान के अङ्ग होने के कारण यह सब भक्ति के मध्य में परिगणित नहीं होते हैं । उभय विध कैवल्य कामा भक्ति के मध्य में कर्म ज्ञान मिश्रा भक्ति का दृष्टान्त भा० ३।२७।२१-२३ में है ।
भोभक्तिसन्दर्भः
तीवूया मयि भक्तया च श्रुतसम्भृतया चिरम् ॥६६२ ॥
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॥०३
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ।
ज्ञानेन
तपोयुक्तेन योगेन तोवू णात्मसमाधिना ॥ ६६३॥
प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वनिशम् ।
तिरोभवित्री शनकैरग्नेर्योनिरिवारणिः ॥ ६६४॥
निमित्तं फलम्, तन्न निमित्तं प्रवर्त्तकं यस्मिन् तेन निष्कामेण, अमलात्मना निर्मलेन मनसा, ज्ञानेन शास्त्रोत्थेन, योगो जीवात्मपरमात्मनोयनम् - “योगः सन्नहनोपाय-ध्यान- सङ्गतियुक्तिषु” इति नानार्थ- वर्गात् ध्यानमेव ध्यातृ-ध्येय-विवेकरहितं समाधिः । अन (भा० १०२८१११६) “सर्वासामेव सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्थनम्” इत्युक्तया भक्तरेवाङ्गित्वेऽपि अङ्गवन्निद्द शस्तेषां तत्र साधनान्तर - सामान्य दृष्टि-रित्यभिप्रायेण । अतएव तेषां मोक्षमात्र मेव फलमिति ॥ श्रीकपिलदेवः ॥ ०-३१
(२२६) ‘अनिमित्तनिमित्तेन स्वधम्म णामलात्मना ।
तीव्रया मयि भक्तचा च श्रुतसम्भृतया चिरम् ॥६६२॥
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्र ेणात्मसमाधिना ॥६६३ ॥
प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वनिशम् ।
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तिरोभवित्री शनकैरग्नेयनिरिवारणिः ॥ " ६६० ॥
9-1
श्रीभगवान् कपिल देव निज जननी को कहे थे - हे मातः ! केवल प्रकृति सम्बन्ध ही जीव का बन्धन का कारण है। किन्तु गुण बुद्धि से उस प्रकृति कार्य्यं में आसक्ति निवृत्ति होने पर जीव की मुक्ति हो सकती है । तब जो आचरण परायण व्यक्ति की आसक्ति प्रकृति कार्य में परिलक्षित होती है । वह साधन वैकल्य से ही होती है । इस अभिप्राय से ही साधनाति शय का वर्णन करतः भय निवृत्ति का उपाय को कहते हैं । फलाभिसन्धि रहित का नाम ही अनिमित्त है। उस अनिमित्त हो जिस कार्य में प्रवृत्ति के हेतु है-उस का नाम - अनिमित्त निमित्त है। इस प्रकार धर्म में धर्मानुष्ठान के द्वारा, अर्थात् फलाभि सन्धि शून्य स्वधर्म में निर्मल चित्त के द्वारा, एवं कथा श्रवण के द्वारा परिपुष्टा मुझ में तीव्र भक्ति द्वारा, एवं तत्त्वदर्शी शास्त्रोत्थ ज्ञानद्वय द्वारा, एवं जीवात्मा परमात्मा का ध्यानरूप योग द्वारा एवं बलीयान् वैराग्य द्वारा, एवं जो तीव्रध्यान ही ध्यात ध्येय विवेकशून्य होने से समाधि संज्ञा प्राप्त होता है, उस समाधि द्वारा, जो प्रकृति अर्हनश प्रचुरतर भाव से अभिभूयमान होने से भी क्रम पूर्वक अग्नि का उद्भवस्थल काष्ठ के समान, अर्थात् अग्नि अतिशय प्रबल होने पर अग्नि को निर्वापित करने के निमित्त जिस प्रकार मानव अग्नि प्रज्वलन का कारण काष्ठ को अग्निसे विदूरित करता है। उस प्रकार मायामी निज अंश अविद्या के सहित उस साधक जन से तिरोहिता होती है। यहाँ ज्ञातव्य यह है कि - भा० १०८१/१६ में उक्त “सर्वासामेव सिद्धानां मूलं तच्चरणाच्चनम् " श्रीविष्णु के चरणाचर्च्चन ही समस्त प्रकार सिद्धिलाभ का मूल हेतु है, इस प्रकार उल्लेख होने कारण भक्ति ही निखिल साधनों की अङ्गिनी है, कर्म, योग, ज्ञान प्रभृति उस के अङ्ग हैं । तथापि यहाँपर भक्ति को कर्म ज्ञान योग प्रभृति का अङ्ग रूप में निर्देश किया गया है- उस का कारण