३८८ २२४
तदेतत् कर्मार्पणं द्विविधम्, -भगवत्प्रीणनरूपं तस्मिस्तत्त्यागरूपञ्चेति, यथोक्तं कौम्यें-
" प्रीणातु भगवानीशः कर्मणानेन शाश्वतः । करोति सततं बुद्धचा ब्रह्मार्पणमिदं परम् ॥६५४॥ यद्वा फलानां सन्नयासं प्रकुर्य्यात् परमेश्वरे । कर्मणामेतदप्याहु ब्रह्मार्पणमनुत्तमम् ॥६५५॥ इति ।
अत्र निमित्तानि च त्रीणि, - कामना, नैष्कर्म्यम्, भक्तिमात्रञ्चेति । निष्कामत्वन्तु केवलं न सम्भवति, - “यद् यद्धि कुरुते जन्तुस्तत्तत् कामस्य चेष्टितम्” इत्युक्तः । अत्र च कामना- विद्यमान है, वह आकाश ही जिन श्रीभगवान् के आविर्भाव विशेष का शरीर है, अर्थात् अधिष्ठान स्वरूप है । उस परमात्म संज्ञक अन्तर्यामि स्वरूप में एवं निविशेष रूप में आविर्भूत होने के कारण,
जिन की चिन्मात्रसत्ता ब्रह्म नाम से विख्यात है, उन वासुदेव स्वरूप में कर्म फल समर्पण के द्वारा अधिकतर भक्ति का आविर्भाव होता है। श्रीभगवान् का निराकारत्व निवारक विशेषण–“महापुरुषोपलक्षणे” है, अर्थात् शास्त्र में महापुरुष का जो लक्षण वर्णित है, वह रूप जिस भगवत् स्वरूप में दृष्ट होता है, उस रूप का विशेष परिचय प्रदान करते हैं। श्रीवत्स, कौस्तुभ, शङ्क, चक्र, गदा प्रभृति के द्वारा उपलक्षित अर्थात् चिह्नित हैं। और भी एक विशेषण है - “हल्लिखितेन आत्मणि पुरुषरूपेण विरोचमाने” अर्थात् निज भक्त जन के हृदय में अङ्कित पुरुष रूप में सुशोभित हैं। उक्त गद्य का निष्कर्ष यह है - विशुद्ध कर्मानुष्ठान के द्वारा विशुद्ध चित्त भक्त के हृदय में श्रीभगवान् की श्रद्धा युक्त श्रवण कीर्त्तनादि लक्षणा भक्ति प्रत्यह वेगवती होकर प्रकाशिता होती है । जो श्रीभगवान् निर्विशेष स्वरूप में आविर्भूत होकर ब्रह्म संज्ञा प्राप्त करते हैं, एवं जीव-प्रकृति के नियामक रूप में परमात्म संज्ञा प्राप्त करते हैं, जो भक्त हृदय में उत्कीर्ण चित्त के समान शोभित होते हैं, जो श्रीभगवान् श्रीवत्स, कौस्तुभ चक्र, शङ्ख, गदा प्रभृति भूषण एवं चिह्न से चिह्नित हैं, उन वासुदेवे संज्ञक भगवान् में भक्ति होती है ।
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प्रवक्ता श्रीशुक हैं-॥२२३॥ २२४ । पूर्वोक्त कर्मार्पण द्विविध हैं । (१) भगवत् प्रीणन रूप, एवं (२) भगवत् अर्पणरूप । कूर्म्म पुराण में उक्त है-
“प्रीणातु भगवानीशः कर्मणानेन शाश्वतः । करोति सततं बुद्धचा ब्रह्मार्पणमिदं परम् ॥६५४ ॥ यद्वा फलानां सन्न्यासं प्रकुर्य्यात् परमेश्वरे । कर्मणामेतदप्याहुब्रह्मार्पणमनुत्तमम् ॥ " ६५५॥ इति ।
अर्थात् परमेश्वर भगवान् इस कर्म के द्वारा सन्तुष्ट हों, इस बुद्धि से जो कर्म करता है, वह श्रेष्ठ कर्मर्पण है ।
● अथवा, जो परमेश्वर में समस्त कर्म फल अर्पण करता है, यह कर्म्मफल समर्पण श्रेष्ठ ब्रह्मार्पण है । उस कर्मार्पण के त्रिविध हेतु हैं । प्रथम-कामनासिद्धि, द्वितीय- नैष्कर्म्य, तृतीय-भक्तिमात्र । केवल निष्काम भाव सम्भव नहीं है । कारण - “यत् यद्धिकुरुते जन्तुस्तत्तत् कामस्य चेष्टितम् ” जन्तु अर्थात् जीब समूह जो कुछ करते रहते हैं - यह सभी कामना की चेष्टा के फल हैं। पूर्वोक्त तीन प्रकार निमित्त के मध्य
[[४६०]]
नैष्कर्म्ययोः प्रायः कर्म्मत्यागः, प्रीणनन्तु तदाभास एव, स्वार्थपरत्वात् । भक्तौ पुनः प्रीणनमेव, भक्तेस्तदेक जीवनत्वात् । कामनाप्राप्तिर्यथा (भा० ८ ५।४७ ) - “क्लेशभूत्पसाराणि” इत्यादि । यथा चाङ्गस्य राज्ञः पुरुषार्थ के यज्ञ े, नैष्कर्म्य प्राप्तिश्च (भा० १२।३।४६) - “वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽपितमीश्वरे । नैष्कर्म्या लभते सिद्धिम्” इत्यत्र । अथ भक्तिप्राप्तिश्च “एवं कर्म– विशुद्धया” इत्यादि गद्य दर्शितैव, (भा० ११५/३५) -
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“यवत्र क्रियते कर्म्म भगवत्परितोषणम् ।
ज्ञानं यत्तदधीनं हि भक्तियोगसमन्वितम् ॥ ६५६॥
इत्यत्र च । भक्तियोगसहचरत्वात् ज्ञानमत्र भगवज्ज्ञानम् । परमभक्तास्तु भगवत् परितोषणं प्रीणनमेव प्रार्थयन्ते ( भा० ४।३०१३६-४०)—
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(२२४) “यन्नः स्वधीतं गुरवः प्रसादिता, विप्राश्च वृद्धाश्च सदानुवृत्त्या ।
[[91]]
में कामना एवं नैष्कम्र्य प्रायशः ही कर्म्मत्याग रूप है, भगवत् प्रीणन इस में आभास मात्र ही है। कारण कामना एवं नैष्कर्म्य के मध्य में स्वार्थ परता है, किन्तु भक्ति का पूर्णतात्पर्य्यं भगवत् प्रीणन में ही है। कारण, भगवत् सन्तोष हो भक्ति का एकमात्र जीवन है । कामना प्राप्ति तात् पर्थ्य में अनुष्ठित कर्म समूह के द्वारा फल प्राप्ति प्रायशः विपरीत रूप में होती है । भा० ८२५२४७ में उक्त है- “क्लेश भूर्य्यल्पसाराणि कर्माणि विफलानि वा
इस के अनुसार काम्य कर्मानुष्ठान द्वारा क्लेश प्रचुर सार अल्प होता है, अर्थात् फल अल्प होता है, अथवा, क्लेश मात्र ही होता है । फल लाभ होल ही नहीं । अथवा, पुत्र प्राप्ति कामना से अङ्ग महाराज द्वारा। अनुष्ठित यज्ञ का फल से वेण नामक असत् पुत्रोत्पन्न हुआ था, उस से उत्यन्त उद्वेग तो
हुआ ही था, विशेष कर मृत्यु भी हुई थी । इस प्रकार सकाम कर्मानुष्ठान के द्वारा प्रायशः फल वैपरीत्य ही होता है । नैष्कर्म्यं निमित्त कर्म का विवरण भा० ११।३४६ में है
[[517]]
“वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽपितमीश्वरे ।
।
नैष्क्रम्य लभते सिद्धिम् । रोचनार्था फल श्रुतिः ॥”
निष्काम भाव से जो कर्म अनुष्ठान करके ईश्वर को समर्पण करता है - वह नैष्कर्म्यसिद्धि लाभ करता है । अनन्तर निष्काम भाव से श्रीभगवान् को कर्म अर्पण करके कर्म्म अनुष्ठान करने के कारण, जिस प्रकार भक्ति लाभ होता है, एवं कर्मं विशुद्धि का विवरण भा० ७७ में कथित हुआ है । भा० १।५।३५ में कथित है -
“यवत्र क्रियते कर्म्म भगवत् परितोषणम् ।
ज्ञानं यत्तदधीनं हि भक्तियोगसमन्वितम् । ६५६॥
टीका- ननु च ज्ञानेनाज्ञानप्राप्तकर्म्मनाशः, तच्च ज्ञानं भक्ति योगाद् भवति कथं कर्मणा कर्मनाशः स्यात् । तत्राह यदत्रेति ।
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अर्थात् भगवत् सन्तोषार्थ जो कर्म अनुष्ठित होगा है । उस से भक्ति योग समन्वित भगवत् ज्ञ न लाभ होता है । यहाँपर ज्ञान शब्द से भगवद् विषयक ज्ञान को जानना होगा। कारण जो ज्ञान भक्ति योग के सहित मिलित है। वह ब्रह्म विषयक ज्ञान नहीं हो सकता है । अतएव यह ज्ञान भगवद् विषयक है । परम भक्त वृन्द- किन्तु, भगवत् सन्तोष रूप प्रीणन की ही प्रार्थना करते हैं । जिस प्रकार भा० ४।३० ३६-४० में उक्त है-
है -
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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आर्या नताः सुहृदो भ्रातरश्च सर्वाणि भूतान्यनसूययैव ॥ ६५७ ॥ यन्नः सुतप्तं तप एतदीश, निरन्धसां कालमदामप्सु ।
सर्वं तदेतत् पुरुषस्य भूम्नो, वृणीमहे ते परितोषणाय ॥ " ६५८ ॥
अदभ्रं बहुकालं ते तव परितोषणाय भवत्विति वृणीमहे ॥ प्रचेतसः श्रीमदष्टभुजं पुरुषम् ॥ २२५ । तदेवमारोप सिद्धा दर्शिता । अथ सङ्गसिद्धोदाहरणप्राप्ता मिश्रा भक्तिर्दर्श्यते । स्वरूप- सिद्धासङ्गेन ह्यन्येषामपि भक्तित्वं दर्शितम् (भा० ११।३।२२) “ तत्र भागवतान् धर्मान् " इत्यादि-श्रीप्रबुद्धवाक्य-प्रकरणे सर्व्वासङ्ग- दयामैत्यादीनामपि भागवतधर्मत्वाभिधानात् । तत्र कर्म्ममिश्रा त्रिविधा सम्भवति, सकामा, कैवल्यकामा, भक्तिमात्रकामा च । यद्यपि काम- कंवल्ये अपि, g
वृन्द को
“या वै साधनसम्पत्तिः पुरुषार्थ चतुष्टये । तया विना तदाप्नोति नरो नारायणाश्रयः ॥ ६५६ ॥
(२२४ “यन्नः स्वधीतं गुरवः प्रसादिता, विप्राश्च वृद्धश्व सदानुवृत्त्या ।
अ ( नताः सुहृदो भ्रातरश्च सर्वाणि भूतान्यनसूययैव ॥ ६५७॥
यन्नः सुतप्तं तप एनदीश, निरन्धसां कालमदभ्रमप्सु ।
॥
सर्वं तदेतत् पुरुषस्य भूम्नो, वृणीमहे ते परितोषणाय ॥ १६५८ ॥
हे प्रभो ! हम सबने उत्तम रूप से जो वेदाध्ययन किया, अनुकूल वृत्ति से गुरु, विप्र, एवं वृद्ध ब्राह्मण सन्तुष्ट किया है। मान्य व्यक्ति, सुहृद् जन एवं भ्रातृ वर्ग को जो नमस्कार किया गया है । समस्त प्राणियों के प्रति असूया वर्जन करके सुदीर्घ काल जल के मध्य मे जो तपस्या की है, यह समस्त कर्म आप के सन्तोष के निमित्त हों । हे प्रभो ! आप, परम पुरुष हैं, आप का सन्तोष ही हम सब का प्रार्थनीय है । इस की प्रार्थना ही हम सब करते हैं ।
प्रचेतावृन्द श्रीमदष्टभुज पुरुष को कहे थे ॥२२४॥
१७ २२५ । पूर्व वर्णित रीति से आरोप सिद्धा भक्ति का वर्णन हुआ। अनन्तर सङ्गसिद्धा के उदाहरण मे उपस्थित मिश्राभक्ति का प्रदर्शन करते हैं । स्वरूप सिद्धा भक्ति के सहित कर्म ज्ञानादि का भी भक्तित्व प्रदर्शित हुआ है । अर्थात् यद्यपि कर्म्मज्ञानादि का साधन भक्ति से भिन्न है, तथापि भक्ति के सहित अनुष्ठित होने से उस का भी भक्तित्व सिद्ध होता है । इसका प्रदर्शन भी हुआ है । भा० ११।३।२२ में लिखित है-
“तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेत्” अर्थात् श्रीगुरु चरण के समीप से ही भागवत धर्म को शिक्षा करे, इस प्रकार उपक्रम करके उक्त है - “सर्वतो मनसोऽसङ्ग” अर्थात् सर्वत्र मनको अनासक्ति को शिक्षा करे । उस के मध्य में सर्वभूत में दया मित्रता प्रभृति का भी भागवत धर्मत्व कथित हुआ है । यद्यपि मनको अनासक्ति का भूतदया प्रभृति में साक्षाद् भक्ति धर्मत्व नहीं है । अर्थात् जिस साधन के सहित श्रीभगवान् का साक्षात् सम्बन्ध नहीं है । अथच उस से भगवद् भक्ति की सहायता होती है । उस को भी भक्ति शब्द से कहा गया है । जिस प्रकार श्रीहरि कथा श्रवण में श्रवणेन्द्रिय का साक्षात् सम्बन्ध होता है । कीर्तन में भी ‘जिह्वा का साक्षात् सम्बन्ध होता है, तज्जन्य उसे भक्ति कहते हैं । उस प्रकार सूत दया प्रभृति में साक्षाद्रूप से भगवान् का सम्बन्ध न होने के कारण वह भक्ति संज्ञा से अभिहित नहीं होती है। उस के मध्य में कर्म मिश्राभक्ति तीन प्रकार हैं। सकामा, कैवल्य कामा, एवं भक्ति कामा । यद्यपि काम एवं कैवल्य, भक्ति द्वारा हो लभ्य हो सकता है, कारण उक्त है-
४६२ ] इत्युक्तेः केवलयैव भक्तया सम्भवतः, तथापि तत्तद्वासनानुसारेण तत्र तत्र रुचिर्जायत इत्येवं तत्तदर्थं तन्मिश्रता तु जायत इत्यवगन्तव्यम् । ततः सकामा प्रायः कर्म्म मद । तत्र कर्म- शब्देन धर्म एव गृह्यते । तल्लक्षणश्च यमदूतैः सामान्यत उक्तम् (भा० ६ ११४०) “वेदप्रणिहितो धर्मः” इति वेदोsa त्रैगुण्य-विषयः, (२।४५) “श्रीगुण्यविषया वेदाः” इति श्रीगीतोक्ते, तत्प्रवर्त्तनमात्रत्वेन सिद्धः, न तु भक्तिवद- ज्ञानेनापीत्यर्थः । श्रीगीतारवेवान्यत्र तस्य कर्म- संज्ञितत्वञ्चोक्तम् ( गी० ८।३) - “भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म्मसंज्ञितः” इति विसर्गो देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागः, तदुपलक्षितः सर्वोऽपि धर्मः कर्म्मसंज्ञित इत्यर्थ । स च भूतानां प्राणिनां ये भावा वासनास्तेषामुद्भवकर इति विशेषणाद्भगवद्भक्तिव्यवृत्ता । अथ भक्तिः सङ्गाय धर्मस्य वैशिष्टचञ्चैकादशे श्रीभगवतोक्तम् (मा० ११११६।२७) “धम्र्मो मद्भत्तिकृत् प्रोक्तः” इति । भगवदर्पणेन भक्तिपरिकरीकृतत्वेन च भक्तिकृत्त्वमुच्यते । तदेवमीदृशेन कर्म्मणा मिश्रा सकामा भक्तिर्यथा (भा० ३।२११६-७) -
“या वे साधन सम्पत्तिः पुरुषार्थ चतुष्टये ।
तया विना तदाप्नोति नरो नारायणाश्रयः । ६५६ ।
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धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, - यह चतुविध पुरुषार्थ प्राप्ति हेतु जिस साधन सम्पति की वार्ता शास्त्र में कोर्तित है, जो मानव एकान्त भाव से श्रीनारायण पवाश्रय करता है। वह उन सब साधन अनुष्ठान न करके भी अनायास उस चतुर्वर्ग फल को प्राप्त करने में सक्षम होता है, तथापि उस उस वासना के अनुसार यदि काम्य कर्म एवं ज्ञान साधन में रुचि उत्पन्न हुई हो तो, इस प्रकार धर्मादि पुरुषार्थ चतुष्टय प्राप्ति के निमित्त कर्मादि मिश्रा भक्ति का अनुष्ठान होता है । अतएव सकामा भक्ति प्रायशः कर्म मिश्रा ही होती है । जहाँ पर कर्म शब्द का अर्थ धर्म होता है, वहाँ धर्म का लक्षण यम दूत गण की उक्ति से जानना होगा । भा० - से ६।१।४० में उन्होंने कहा है- “वेद प्रणिहितोधम्मंः” जो वेद विहित है - वही धर्म है। यहाँ वेद शब्द से त्रैगुण्य विषयक वेद को जानना होगा। कारण गीता २२४५ में उक्त है - “दंगुण्य विषया वेदाः " अर्थात् त्रिगुण प्रतिपादक वेड है। इस वेद की आदेश विधि से जो सिद्ध होता है, वही धर्म है। किन्तु, भक्ति के समान अज्ञान से प्रवत्तित होने से वह धर्म नहीं होगा । अर्थात् उस को नहीं कहा जा सकता है। भक्ति मार्ग में प्रविष्ट होने के निमित्त रुचि प्रधान कारण हैं, किन्तु बोध प्रधान कारण नहीं है। अज्ञान से भी यदि भक्ति अनुष्ठित होती है तो अनुष्ठान कारी फल लाभ से वञ्चित नहीं होगा। किन्तु धर्म उस प्रकार नहीं है। वेद विधि बांधित होकर अनुष्ठित हे ने से ही फल लाभ होगा। अन्यथा अनुष्ठान फल प्रदान में असमर्थ होगा । भगवद् गीता के दा३ में कर्म को धर्म शब्द से कहा गया है। “भूतभावोद्भव करो विसर्गः कर्म संज्ञितः” अर्थात् देवता को उद्देश्य करके द्रव्य त्याग करने का नाम हो विसर्ग है, एवं इस विसर्ग का नाम हो कर्म है। देवता के उद्देश्य में द्रव्य त्याग, एवं भूतभावोद्भवकर.” अर्थात् प्राणि मात्र की वासना का उदगम कारी अर्थात् जिस से वासना का उद्गम होता है, वह कभी भी भगवद् भक्ति नाम से अभिहित हो ही नहीं सकता है । कारण, भगवद् भक्ति का स्वभ व ही है- अन्य समस्त भ ग वासना को विनष्ट करके भगवद् विषय मे निविड़ आकाङ्क्षा उत्पन्न करना । धर्म की भक्ति संज्ञा प्राप्ति हेतु वैशिष्टय का कथन श्रीभगवान् भागवत के ११।१६।२७ में किये हैं। “धर्मोमद्भत्तिकृत् प्रोक्तः” अर्थात् मुझ में भक्ति करने का नाम धर्म है । श्रीभगवान् में कर्मार्पण के द्वारा भक्ति परिकर करने से उस धर्म को भक्ति कहते
होने
[[6]]
श्री भक्ति सन्दर्भः
[[४६३]]
(२२५) “प्रजाः सृजेति भगवान् कई मो ब्रह्मणोदितः ।
सरस्वत्यां तपस्तेपे सहस्राणां समा दश ॥६६०॥
ततः समाधियुक्तेन क्रियायोगेन कर्द्दमः ।
संप्रपेदे हरि भक्तचा प्रपन्नवरदाशुषम् ॥ ६६१॥
अत्र तद्दर्शनजात - भगवदश्रुपात लिङ्गेन निष्कामस्याप्यस्य ब्रह्मादेशगौरवेणैव काम्ना ज्ञया ॥ श्रीमैत्रेयो विदुरम् ॥
-२२६ । अथ कैवल्यकामा, क्वचित् कर्मज्ञानमिश्रा क्वचिज्ज्ञानमिश्रा च तत्र ज्ञानम् ( मा० ११ १६ २७ ) “ज्ञानचैकात्म्यदर्शनम्” इति दर्शितम् । तदीयक्ष बणादीनां वैराग्ययोग– सांख्यानाञ्च तदङ्गत्वात्तदन्तः पातः । अथ कर्म्मज्ञानमिश्रा यथा ( भा० ३।२७।२१ः२३)
(२२६) “अनिमित्तनिमित्तेन स्वधम्र्मेणामलात्मना ।
हैं । ऐसा होने पर कर्म मिश्रा कामा भक्ति की कथा भा० ३।२१।६-७ में वर्णित है ।
(२२५) “प्रजाः सृजेति भगवान् कद्द मो ब्रह्मणोदितः ॥
सरस्वत्यां तपस्तेपे सहस्राणां समा दश ॥ ६६०॥
ततः समाधियुक्तेन क्रियायोगेन कद्दमः ।
संप्रपेदे हरि भक्तचा प्रपन्नवरदाशुषम् ॥ ६६१ ॥
टीका - सहस्राणां समावश - दश सहस्राणि संवत्सराणीत्यर्थः ततस्तस्मिन् तपसि । क्रिया योगेण– पूजा प्रकारेण । सम्प्रवेदे - सिषेवे प्रपन्नेभ्यो भक्त ेभ्यो वर दातारम् ॥
ब्रह्मा भगवान् कद्दम को कहे थे। तुम प्रजा सृजन करो। इस प्रकार आदिष्ट होकर सरस्वती नदी में दश सहस्र वत्सर, आप तपस्ता किये थे । अनन्तर एकाग्रचित्त से विधि पूर्वक पूजन प्रकार के द्वारा भक्ति पूर्वक प्रपन्न वरद श्रीहरि की सेवा किये थे । इस प्रसङ्ग के अग्रिम ग्रन्थ भा० ३।२१।३८ में वर्णित है-
“यस्मिन् भगवतो नेत्रान्न्यपतन् हर्ष विन्दवः ।
कृपया सम्परीतस्य प्रपन्नेऽप्रितया भृशम् ॥’
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hg. 15
जहाँ शरणागत कर्दम ऋषि को देखकर श्रीभगवान् के नेत्र से अश्रुबिन्दु निपतित हुए थे । इस प्रकार उल्लेख से सुस्पष्ट प्रतीत होता हैं कि- कर्दम ऋषि पहले निष्काम भक्त ही थे । किन्तु निज पिता, गुरु, भक्त प्रवर श्रीब्रह्मा की आदेश मर्य्यादा रक्षा हेतु सकाम भाव से भगवदाराधना किये थे। ऐसा न होने से सकाम भक्त दर्शन से श्रीभगवान् के नेत्र युगल से अक्षुपात नहीं होता ।
मैत्रैय विदुर को कहे थे ॥ २२५ ॥