२२२

३८४ २२२

किञ्च कर्मफलं वस्तुतो भगवदाश्रयमेव, तत्तु दुर्बुद्धेरात्मसात्कुर्वतो युक्त्यैव तुच्छ फल प्राप्तिः संसारश्च सुधियस्तु तत्सात्कुर्वत स्तवैपरीत्यमित्याह गद्याभ्याम् (भा० ५।७१६) –

(२२२) “संप्रचरत्सु नानायोगेषु विरचिताङ्गक्रियेष्वपूर्वं यत्तत् क्रियाफलं धर्माख्यं

(२२०) “आमयो यश्च भूतानां जायते येन सुव्रत ।

तदेव ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति चिकित्सितम् ॥ ६४५॥

श्रीदेवर्षि नारद - श्रीकृष्णद्वैपाय व्यासन देव को कहे थे। घृनादि सेवन से व्याधि को उत्पत्ति होती है, व्याधि के कारण घृतादि द्रव्य व्याधि से निवृत्त करने में सक्षम नहीं हैं। किन्तु घृतादि द्रव्य यदि चिकित् सित होता है, अर्थात् द्रव्यान्तर के द्वारा शोधित होता है तो वह व्याधि के कारण घृतादि द्रव्य ही व्याधि को विनष्ट करने में सक्षम हैं। इस प्रकार ही भा० १।५।३४ में उक्त है-

(२२१) “एवं नृणां क्रियायोगाः सर्वे संसृतिहेतवः ।

त एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिताः परे ॥ " ६४६

हे कृष्णद्वैपायन ! इस प्रकार मानव वृन्द कर्त्तृक अनुष्ठत जो सर्वक्रिया योग संसार के हेतु हैं, यह सब क्रियायोग यदि कामना से भी भगवान् में अर्पित होता है तो, संसार ध्वंस पर्य्यन्त फल प्रद होने के कारण - आत्मविनाश हेतु अर्थात् धर्म निवृत्ति के निमित्त हो होता है ।

श्रीनारद श्रीवेदव्यास को कहे थे ॥२१६-२२१॥

३८५ २२२

और भी विशेष ज्ञातव्य यह है कि-कर्म फल वस्तुत भगवदाश्रित ही है। कर्म फल के प्रति जीव का कोई अधिकार नहीं है । श्रीभगवद् गीता में उसका वर्णन है - “कर्म्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” । हे अज्जुन ! तुम्हारा अधिकार कर्म में ही है, फल में अधिकार नहीं है । उस कर्म फल को दुर्बुद्धि परायण मानव, आत्मसात् करके स्वयं भोग करता है, अतः तुच्छ फल भोग एवं दुरन्त सन्ताप युक्त ससार भोग होता है। जिस का जिस में अधिकार नहीं है, उस वस्तु को भोग करने से अथवा उस को भोग करने का सङ्कल्प करने पर दुर्भोग उपस्थित होना स्वाभाविक है । सुधीवृन्द किन्तु साक्षात् श्रीभगवान् को समर्पण करके ही कर्म करते हैं, अतः कर्म फल का वैपरीत्य–अर्थात् परमा शान्ति प्राप्त करते हैं एवं संसार बन्धन से भी मुक्त हो जाते हैं। इस अभिप्राय का वर्णन श्रीशुक देवने भा० ५।७७६ के गद्यद्वय के द्वारा किया है-

(२२२) संप्रचरत्सु नानायोगेषु विरचिताङ्गक्रियेष्वपूर्वं यत्तत् क्रियाफलं धम्र्माख्यं परे ब्रह्मणि यज्ञपुरुषे सर्वदेवतालिङ्गानां मन्त्राणामर्थनियामकतया साक्षात् कर्त्तरि परदेवतायां भगवति वासुदेव एव

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परे ब्रह्मणि यज्ञपुरुषे सर्व देवतालिङ्गानां मन्त्राणामर्थनियामकत्या साक्षात् कर्त्तरि परदेवतायां भगवति वासुदेव एव भावयमान आत्मनैपुण्य-मृदितकषायो हविः ष्वध्वर्युभिर्गृह्यमाणेष स यजमानो यज्ञभाजो देवांस्तान् पुरुषावयवेष्वभ्यध्यायत् । इति ।

टीका च - " सम्प्रचरत्सु प्रवर्त्तमानेषु नाना योगेषु विरचिता अनुष्टिता अङ्ग क्रिया येषु तेषु यत् अपूर्व्वं तद्वासुदेव एव भावयमानः सञ्चिन्तयन् स यजमानो यज्ञभागभाजो ये देवाः सूर्य्यादयस्तान् पुरुषस्य वासुदेवस्य अवयवेषु चक्षुरादिषु अभ्यध्यायत्, न तु तत् पृथक्त्वेनेत्यन्वयः । अपूर्व्वे पक्षद्वयं मीमांसकानाम् । तदिदानीमेव सूक्ष्मत्वेनोत्पन्नं फलमेवापूर्व कालान्तरे फलोत्पादिका कर्मशक्तिर्वेति । तदुक्तम्-

“यागादेय फलं तद्धि शक्तिद्वारेण सिध्यति । सूक्ष्मशक्तघात्मकं वापि फलमेवोपजायते ॥ ६४७॥ इति । तदेतदाह- क्रियाफलं धर्म्माख्यमिति च । ननु यद्यङ्गं देवता कर्म प्रधानमिति मतम्, तह कर्त्तृ निष्ठमपूर्वं स्यात्, तदुक्तम्-

" कर्मभ्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्य वा । योग्यता शास्त्रगम्या या परा सापूर्वमिष्यते ॥ " ६४८ । इति । भाव्यमान आत्मनैपुण्य-मृदितकषायो हविःष्वध्वर्युभिर्गृह्यमाणेषु स यजमानो यज्ञभाजो देवांस्तान् पुरुषावयवेष्वभ्यध्यायत् । इति ।

श्रीधर स्वानिपाद कृत टीका का अर्थ यह है - भरत -जो सब यज्ञ प्रवर्तन किये थे, एवं यह सब यज्ञ की अङ्ग क्रिया का ध्यान करते थे, उस से जो अपूर्व उत्पन्न होता, अर्थात् फलोत्पन्न होता था - उस की भावना श्रीवासुदेव में ही करते थे । यजमान भरत, — यज्ञ के भागग्राही जो सूर्य्य प्रभृति देवता होते हैं, उन देवता समूह का भी ध्यान परमपुरुष वासुदेव के चक्षु प्रभृति अवयव में ही करते थे । श्रीवासुदेव से पृथक् रूप में सूर्य्यादि देववृन्द की भावना नहीं करते थे । कर्म मीमांसक के मत में अपूर्व अर्थात् कर्म फल पक्ष द्वय के अवलम्बन से प्रकाशित होता है । अपूर्व का वृत्तान्त कहते हैं । सूक्ष्म रूप में उत्पन्न कर्म फल ही अपूर्व है, अथवा कालान्तर में फलोत्पादिका कर्म शक्ति ही अपूर्व है । तज्जन्य कथित है-यज्ञ से जो फल उत्पन्न होता है, वह फलोत्पत्ति भी कर्म शक्ति के द्वारा ही सिद्ध होती है । अथवा सूक्ष्म शक्तघात्मक फल ही उत्पन्न होता है - सप्रमाण उसका वर्णन करते हैं ।

“थ गादेव फलं तद्धि शक्तिद्वारेण सिध्यति ।

सूक्ष्मशक्तयात्मकं वापि फलमेवोपजायते ॥ ६४७॥ इति ।

वर्णित है-क्रिया जनित फल का ही अपर नाम धर्म है। प्रश्न होता है कि, यदि कर्म का अङ्ग देवता हो एवं कर्म प्रधान हो तो, अपूर्व अर्थात् फल, — कर्तृनिष्ठ हो जाता है । उस के विषय में कथित है-

‘कर्मभ्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्य वा ।

योग्यता शास्त्रगम्या या परा सापूर्वमिष्यते ॥१६४८ ॥

किन्तु कर्म्म-देवताराधन के निमित्त

यहाँ विचार यह है कि - यज्ञ में देवता का ही प्राधान्य है, ही अनुष्ठित होता है। ऐसा होने पर देवता आराधन के उद्देश्य में प्रवृत्त कर्म का तात्पर्य देवता प्रसन्नता में ही है, अत फल भो देवताश्रय होना आवश्यक है । कर्मानुष्ठान के पहले अयोग अर्थात् प्रोक्षणादि अपूर्व का ही व्रीहि प्रभृति का आश्रयत्व है । अतएव कैसे भरत, अपूर्व अर्थात् क्रिया फल की भावना वासुदेवाश्रय

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अथ देवताप्रधानं कर्म तु देवताराधनार्थम् । तदा देवता प्रसादरूपत्वादपूर्वस्य देवताश्रयत्व- मेवयुक्तम् । कर्मभ्यः प्रागयोग्यस्य प्रोक्षणाद्यपूर्वस्येव वोह्य द्याश्रयत्वम् । कुतो वासुदेवाश्रयम- पूर्वं भावयति ? उच्यते - यदि कर्तृनिष्ठमपूर्वं स्यात्, तर्हि वासुदेवस्यान्तर्यामिणः प्रवर्तक वेन मुख्य कर्त्तृ त्वात् तदाश्रयमेवापूर्वम्, न तु तत्प्रयोज्ययजमानाश्रयर- ‘शः स्त्रफलं प्रयोक्तरि’ इति न्यायात्, अन्यथा ऋत्विजामप्यपूर्वाश्रयत्वप्रसङ्गात् । तदेतदाह– साक्षात् कर्त्तरीति । देवताश्रयत्वेऽपि वासुदेवाश्रयत्वमेवेत्याह— परदेवतायामिति । परदेवतात्वे हेतुः सर्वदेवता–

हेतुः–सर्वदेवता– लिङ्गानां तत्तद्ददेवताप्रकाशकानां मन्त्राणां ये अर्था इन्द्रादि देवतास्तेषां नियामकतया तयैव प्रसादनीयत्वात् फलदातृत्वाच्च युक्तमेवा पूर्वाश्रयत्वमित्यर्थः । एवं भावनमेवात्मनो नैपुण्यं कौशलं तेन मृदिताः क्षीणाः कषाया रागादयो यस्य । अध्वर्यु भिरिति बहुवचनं नाना– कर्माभिप्रायेण” इत्येषा । अत्र श्रीविष्णोरङ्गित्वे प्राप्त यज्ञाङ्गत्वेन तद्भजनञ्च दोष इति

रूप में करते थे ? उत्तर में कहते हैं- यदि क्रिया फल कर्त्तृनिष्ठ होता है, तो वासुदेव ही अन्तर्य्यामी रूप में कर्म का प्रवर्त्तक हैं, अर्थात् कर्म करने की प्रवृत्ति प्रदान करते हैं, अतः वासुदेव ही मुख्य कर्ता हैं, अतएव वासुदेवाश्रय क्रिया फल है किन्तु वासुदेव कर्तृक प्रयोज्य यजमान क्रिया फल का आश्रय नहीं हो सकता है । " शास्त्र फलं प्रयोक्तरि” अर्थात् शस्त्रका फल प्रयोक्ता में उपपन्न होता है । अर्थात् प्रयोजक कर्त्तानिष्ठ होता है।

ऐसा न होने पर क्रिया फल पुरोहित निष्ठु भी होने लगेगा। कारण, यह सब भी यज्ञादि कर्म करते रहते हैं । सुतरां यज्ञ जनित फल भागी यह सब क्यों नहीं होंगे ? इस अभिप्राय से ही मूल गद्य में लिखित है- “कर्त्तरि” अर्थात् साक्षात् कर्त्ता श्रीभगवान् में ही कर्म फल की भावना करते थे । वासुदेव सर्व नियन्ता होने के कारण ही साक्षात् कर्त्ता हैं। मीमांसक गण कहते हैं- क्रियाफल कष्ठ एवं देवता निष्ठ है । एतदुभय पक्ष के मध्य में कर्तृनिष्ठ क्रिया फल विचार में मुख्य कर्त्ता श्रीवासुदेव रूप में ही क्रिया फल का निर्णय हुआ है। “देवतानिष्ठ क्रिया फल " पक्ष में विचार प्रस्तुत करते हैं। देवतानिष्ठ क्रियाफल’ पक्ष के विचार में भी क्रिया फल वासुदेव निष्ठु ही होता है । इस अभिप्राय से ही मूल गद्य में ‘परदेवतायां ’ पदोल्लेख है । श्रीवासु देव ही परदेवता हैं। वासुदेव ही जो परदेवता हैं- इस में हेतु निद्द ेश करते हैं । “सर्व देवतालिङ्गानां मन्त्राणामर्थ नियामक्ततया “अर्थात् श्रीवासुदेव ही समस्त देवता का प्रकाशक है, इन्द्रादि देवतावृन्द का नियामक श्रीवासुदेव ही हैं, अतः उनकी प्रसन्नता सम्पादन कहना परम कर्त्तव्य हैं । अर्थात् सर्व देवता नियामक श्रीवासुदेव प्रसन्न होने से नियम्य इन्द्रादि देवगण स्वतः ही प्रसन्न होते हैं, अतएव श्रीवासुदेव को प्रसन्न करना कर्त्तव्य है । जब श्रीवासुदेव ही सर्वदेवता का नियामक हैं, तब “देवताश्रय अपूर्व” मीमांसक के द्वितीय मत में भी क्रिया फल श्रीवासुदेव निष्ठ हो होता है । कारण, नियामक तत्त्व की प्रसन्नता से नियम्य तत्व की प्रसन्नता स्वाभाविकी है । विशेषतः श्रीवासुदेव ही निखिल कर्म फल प्रदाता है । तज्जन्य कर्म जन्य फल वा अपूर्व, इस प्रकार भावना करना ही कर्म कर्त्ता का कर्मानुष्ठान पुण्य है। कारण, इस प्रकार वासुदेव में कर्म फल भावना करके कर्मानुष्ठान करने पर हृदय से रागद्वेष अनिनिवेश प्रभृति दोष विदूरित होते हैं । मूल गद्य में “अध्वर्युभिः” पद में बहु वचन का प्रयोग - विभिन्न कर्मानुष्ठान का सूचक है । यहाँ पर स्वामि पादने श्रीविष्णु को अङ्गी रूप में निद्दश किया है । अतएव यज्ञाङ्ग रूप में श्रीवासुदेव का भजन करना अतीव दोषावह है। इस विषय में पद्मपुराण

लभ्यते । अत्र पाद्मोत्तरखण्डे यथा-

[ =>

[[४५७]]

“उद्दिश्य देवता एव जुहोति च ददाति च । स पाषण्डीति विज्ञ ेयः स्वतन्त्रो वापि कर्मसु ॥ ६४६ ॥ इति । पाषण्डित्वमत्र वैष्णव मार्गाद् भ्रष्टत्वमित्यर्थः, श्रीगीतासु च (६।२३ - २४)

“येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । (699)

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥६५०॥

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेवच

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च यवन्ति ते ॥ " ६५१ ॥ इति ।

अतो वास्तवविचारे सर्व एव वेदमार्गाः श्रीभगवत्येव पय्र्यवस्यन्तीति अभिप्रेत्योक्तं श्रीमदक रेण (भा० १०.४०/६-१० ) -

“सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम् । येऽप्यन्य देवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो ॥६५२॥ यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिता विभो ।

के उत्तर खण्ड में लिखित है-

P

“उद्दिश्य देवता एव जुहोति च ददाति च ।

स पाषण्डीति विज्ञेयः स्वतन्त्रो वापि कर्मसु ॥ ६४६ ॥ ॥

जो व्यक्ति देवता को उद्देश्य करके आहुति प्रदान करता है, अथवा दान करता है, उस की पाषण्डी जानना चाहिये । अथवा जो व्यक्ति, कमानुष्ठान में अपने को स्वाधीन मानता है, वह पाषण्डी है । यहाँ पाषण्डी शब्द का अर्थ है- वैष्णव मार्ग से भ्रष्ट होना है । श्रीभगवद् गीता में भी उक्त है- (६।२३-२४)

प्रक्रम

“येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता ।

तेऽपि महमेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ ६५० ॥

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।

न तु मामभिजानन्ति तत्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ " ६५१ ॥ इति । ॥” ।

जो अन्य देवता के भक्त होकर श्रद्धा पूर्वक उन उन देवता की आराधना करते हैं, हे कौन्तेय ! वे मेरी आराधना ही करते हैं, किन्तु अविधि पूर्वक करते हैं। अन्य देवता की आराधक के से मेरी आराधना करता है, उसको कहते हैं- “अहं हि सर्व यज्ञानां” मैं ही समस्त यज्ञों का भोक्ता हूँ. एवं प्रभु हूँ-अर्थात् नियामक एवं फल दाता हूँ। जो तत्त्वतः मुझ को नहीं जानते हैं, वे ही वैष्णव मार्ग से भ्रष्ट हैं। वस्तुतः शास्त्र विचार से प्रतिपन्न होता है कि समस्त शास्त्रों का पर्थ्यवसान श्रीभगवान् में ही है । श्रीभगवद् में उक्त है - “वेदंश्च सर्वेरहमेववेद्यः” हे अर्जुन ! समस्त वेदों में मैं ही वेद्य हूँ। यह सब प्रमाणों सुस्पष्ट प्रतिपन्न होता है कि-स्व रूपौश्वर्य्य माधुर्य्य पूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण को समझाने के निमित्त ही समस्त वेद प्रवृत्त हुए हैं। इस अभिप्राय से ही भा० १०।४०।६-१० में श्रीअक्र रने भी कहा है-

“सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम् ।

येऽप्यन्य देवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो ॥६५२॥ यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिता विभो ।

गीता

[[४५८]]

विशन्ति सर्वतः सिन्धु तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः ॥६५३॥

गतयो मार्गाः, अन्ततो विचारपर्य्यवसानेन ॥