३८३ २१८
अथ वैदिक-कर्मार्पणस्य प्रशंसामाहुः (भा०८५ ४७) -
(२१८) “क्लेशभूय्र्य्यत्यसाराणि कर्माणि विफलानि वा ।
देहिनां विषयार्त्तानां न तथैवापितं त्वयि ॥ ६४१॥
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विषयार्त्तानां कर्माणि क्वचित् क्लेशो भूरि येषु तथाध्यल्पं फलं येषु तथाभूतानि भवन्ति, क्वचित् कृष्यादिवत् विफलानि वा भवन्ति । त्वय्यपितं कर्म तु न तथा, किन्तु वलेशं विना यथाकथश्चित् कृतस्य कामनयाप्यर्पणे तत्कामस्यावश्यक प्राप्तिः सा च सर्वत उत्कृष्टा भवति । तथा तन्मात्रफलेन च पर्य्याप्तिनं भवति, संसार विध्वंसादि–फलत्वादित्यर्थः । तदुक्तम् (भा० ११।२।३५) -
फलाकाङ्क्षा शून्य होकर वेद विहित कर्म का समर्पण ही श्रीभगवान् को करे । यहाँ केवल ईंश्वर में वैदिक कर्मार्पण हो विहित हुआ है ।
श्रीकवि - निमिमहाराज को कहे थे ॥ २१७ । २१८ । अनन्तर देववृन्द- श्रीअजित भगवान् को स्तव करते हुए वैदिक कर्मार्पण की प्रशंसा कर कहे थे - भा० ८५०४७
நர்
(२१८) “क्लेशभूय्र्य्यल्पसाराणि कर्माणि विफलानि वा ।
देहिनां विषयार्त्तानां न तथैवापितं त्वयि ॥ " ६४१ ॥
टीका- न च वहिर्मुखानामिव त्वद् भक्तानामस्माकंत्वर्य्यपितानि पूर्व पुण्यानि विपरीत फलानि भवितुमर्हन्तीवत्याह । क्लेशो भूरि र्येषु अल्पं सारं फलं येषु तानि तानि यथा दिफलान्येव सकामानां कर्माणि त्वपतन्तु नैव तथा ।
“नावमः कर्म कल्पोऽपि विफलायेश्वरार्पितः ।
कल्पते पुरुषस्यैष स ह्यात्मा दयितोहितः ॥ यथा हि स्कन्ध शाखानां तरोर्मू लावसेचनम् । एवमाराधनं विष्णोः सर्वेषामात्मनश्च हि ।”
टीका - तत्रावैफल्यमुपपादयति । अवमः अल्पोऽपि कर्म कल्पः, कर्म्माभासोऽपि ईश्वरार्पितश्चेत् विफलाय श्रमाय न कल्पते, हि यस्मात् स एष ईश्वरः पुरुषस्य आत्मा, अतएव दयितोहितश्च । न ह्यात्मनि दयिते हिते चापितं कर्म निष्फलं स्यात् । अनल्पफलत्वमाह-
यथाहि मूलावसेचनं स्कन्धानां शाखानाञ्च भवति ॥
।
विषय भोग हेतु आर्त्त देहाभिमानी जीव समूह के कर्म समूह प्रचुरतर क्लेशसाध्य अथच अति अल्प हैं । कभी तो कृषि कार्य के समान विफल भी होते हैं । किन्तु हे नाथ ! जो कर्म्म आप को अर्पित होता है । वह कर्म उस प्रकार क्लेश कर वा विफल नहीं होता है । किन्तु क्लेश स्वीकार न करके यथा कथश्चित् कर्मार्पण फल लाभ की कामना न करके भी यदि किया जाता है तो, उस से कामित फल प्राप्ति अवश्य ही होगी, एवं वह सर्वोत्कृष्ट होगी। कारण, कामित फल प्राप्ति में ही कर्मार्पण का पर्यवसान नहीं होता है । अर्थात् वही यथेष्ट लाभ नहीं है। कारण, निखिल साधनों का मुख्य फल है- भगवद् वहिर्मुख जीव का संसार बन्धन ध्वंस होना । यदि साधन करके संसार बन्धन ध्वंस नहीं होता है। तो संसार बन्धन जनित क्लेश भोग अनिवार्य होगा । श्रीभगवान् में साक्षाद् भक्ति व्यतीत कर्मार्पणादि रूपा भक्ति के द्वारा माया बन्धन से मुक्त होने की सम्भावना है ही नहीं । अतएव भा० ११।२।३५ में उक्त है-
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“यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्य ेत कर्हिचित्
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥ ६४२॥ =)
इति, (भा० ५।१६।२६) “सत्यं दिशत्यर्थितमर्थितो नृणाम्” इत्यादि च यथैव नाभिः श्रीऋषभ- देवरूपं भगवन्तं पुत्रत्वेनापि लेभे । श्रीगीतासु च (२०४०)-
“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ " ६४३ ॥ इति ।
“यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥”६४२॥
(2)
टीका – अञ्जः पदेनोक्तं सुकरत्वं विवृणोति यानिति । यान् आस्थाय - आश्रित्य योगादिष्वव न प्रमाद्येत - विघ्नेन विहन्येत । किञ्च निमील्य नेत्रे धावन्नपि इह एषु भागवतधर्मेषु न स्खलेत् । निमीलनं नाम अज्ञानं । यथाहुः, श्रुति स्मृति उभे नेते विप्राणां परिकीर्त्तिते । एकेन विकलः काणो द्वाभ्यामन्ध प्रकीर्तित इति । अज्ञात्वापीति । यथा पदन्यास स्थानमतिक्रम्य शीघ्रं परतः पदन्यासेन गतिर्धाविनं, तद्वत्रापि किञ्चित् किञ्चिदतिक्रम्य अतिशीघ्रानुष्ठानं धावनम् तथानुतिष्ठन्नपि न रखलेत् न प्रत्यवायी स्यात् । तथा न पतेत्, फलात् न भ्रश्येत् । ब्राह्मणादीना मुक्तानपिधर्मान् कांश्चिदकुर्वाणो भागवता धर्मानु श्रवण कीर्तनादीन् कुर्वाणस्तत्फलं प्राप्नुयादित्यर्थः ॥
भागवत धर्म में विश्वास स्थापन करने से मनुष्य मात्र किसी भी विघ्न से अभिभूत नहीं होते । भागवद्धर्म मार्ग में क्रम उल्लङ्घन करके एवं श्रुति ज्ञान स्मृति ज्ञान रूप नयन युगल को आवृत करके चलने पर भी स्खलन वा पतन नहीं होता है । कामना द्वारा भजन करने पर काम्य विषय लाभ तो होता ही है, जिस विषय में कामना करती भी नहीं आती है, उस प्रेम सम्पत्ति को भी प्राप्त करता है । इस विषय में भा० ५।१६।२७ में उक्त है-
“सत्यं विशत्यथितमर्थितो नृणाम् । नैवार्थदो यत् पुनरर्थितोयतः ।
स्वयं विधत्ते भजतामनिञ्छता मिच्छापिधानं निजपादपल्लवम् ।”
परम करुण श्रीभगवान्, सकाम मानवगण कर्त्तृक प्रार्थित होकर, सत्य ही प्रार्थित विषय प्रदान करते हैं । किन्तु काम्य विषय दान करके श्रीभगवान् मन मन में सोचते रहते हैं - यह है अतिमुख, मूरि कार्य करके तुच्छ फल ग्रहण किया है, कारण, मन, मुझ को अर्पण करके भी मन. संयोग रूप वैषयिक सुखाभिलाषी हुआ, जो भी हो, मैं तो विज्ञ हूँ । अर्थात् फल का परिणाम जानता हूँ । अतएव पुनर्वार प्रार्थी इस को न होना पड़ े - इस प्रकार ही वस्तु प्रदान करना कर्तव्य है । यह सोचकर प्रभु जिस विवर से विषय भोग वासना का उद्गम होता है, उस हृदय विवर में निज पद पल्लवस्थापन करेंगे, जिस से विषय वासना के प्रति तुच्छ बुद्धि होगी। इस प्रकार निज चरण माधुर्य्यास्वादन प्रदान कर परम करुण प्रभु सकाम भक्त को भी कृतार्थ करते हैं। तात् पर्थ्य यह है कि - कामना प्रेरित होकर भगवद् भजन करने पर भी प्रभु वाच्छतिरिक्त फल दान कर कृतार्थ करते हैं। जैसे नाभि महाराज भजन प्रभाव से श्री ऋषभदेव नामक श्रीभगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त किये थे । श्रीगीता में भी उक्त है - (२०४०)
देवाः श्रीमदजितम् ॥
२१६–२२१ । तदेव कर्मर्पणमुपपादयति त्रिभिः (भा० १।५।३२) - (२१६) “एतत् संसूचितं ब्रह्म स्तापत्रयचिकित् सितम् ।9)
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यदीश्वरे भगवति कर्म ब्रह्मणि भावितम् ॥” ६४४ ॥
की
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ब्रह्मन हे वेदव्यास ! एतत् तापत्रयस्य चिकित्सितं चिकित्सा तैश्चातुर्मास्यवासिभिः परमहंसः सूचितम् । किन्त ? भगवति कर्म्म यत् समर्पतं भवति । तत्र कर्म्मसमर्पणमेवेत्यर्थः । कथम्भूते ? स्वयं भगवति पूर्णस्वरूपेश्वय्र्यादिमत्तया सर्वांशिन्येव, केनचिदंशेन जीवादि- नियन्तृतया ईश्वरे परमात्म-शब्दवाच्ये, स्वरूपभूतविशेषेण विना केवल चिन्मात्र तथा प्रतिपाद्यत्वेन ब्रह्मणि तच्छन्दवाच्ये । ननु उत्पत्यैव तत्तत्सङ्कल्पेन विहितत्वात् संसारहेतोः कर्म्मणः कथं तापत्रयनिवर्त्तकत्वम् ? उच्यते - सामग्रीभेदेन घटत इति, यथा ( भा० १।५।३३)
(२२० ) " आमयो यश्च भूतानां जायते येन सुबूत ।
तदेव ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति चिकित्सितम् ॥” ६४५ ॥
“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्प मध्यस्य धर्मस्य त्रायते महतोभयात् ॥ " ६४३ ॥
निष्काम भक्ति योग प्रारम्भ होने पर विनष्ट नहीं होता है एवं निष्काम भक्ति योग में विघ्न की सम्भावना भी नहीं है । भागवत धर्म का स्वल्प मात्र अनुष्ठान महाभय रूप संसार से परित्राण करता
देवतागण श्रीमद् अजित को कहे थे ॥ २१८ ॥
२१६-२२१ । कर्मार्पण प्रकार का प्रतिपादन तीन श्लोकों के द्वारा करते हैं । भा० १।५।३२
(२१६) “एतत् संसूचितं ब्रह्म स्तापत्रयचिकित् सितम् ।
यदीश्वरे भगवति कर्म ब्रह्मणि भावितम् ॥” ६४४ ॥
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ब्रह्मन् ! हे वेदव्यास ! आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक- तापत्रय की सुचिकित्साको चातुर्मास्य वासी परम हंसगण सूचित किये थे । उस को कहते हैं- श्रीभगवान् में जो कर्म अर्पित होता है, वह कर्म समर्पण हो भवरोग की सुचिकित्सा है। भगवान् किस प्रकार हैं, उस वृत्तान्त को कहते हैं । स्वयं भगवान् है । स्वरूप भूत ऐश्वर्य प्रभृति द्वारा परिपूर्ण होने के कारण जो सब के अंशी हैं। उन भगवान् को कर्मार्पण करना कर्तव्य है । जो श्री भगवान् अंश के द्वारा जीव प्रकृति नियन्ता होने के कारण ईश्वर हैं, अर्थात् परमात्म शब्द वाच्य है । स्वरूप भूत विशेष की अतिव्यक्ति न होने के कारण चिन्मात्र सत्ता रूप में प्रति पादित होते हैं, अतः ब्रह्म संज्ञा से अभिहित होते हैं। उन स्वयं भगवान् को कर्मार्पण करने से भवरोग की सुचिकित्सा होती है । इस अभिप्राय से ही मूल श्लोक में ईश्वर, भगवान्, एवं ब्रह्म, पदत्रय का उल्लेख किया गया है ।
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है
प्रश्न हो सकता है कि - देह देहिक सुख संकल्प से ही काम्य कर्म की उत्पत्ति होती है । सङ्कल्प व्यतीत काम्य कर्म्म करने की प्रवृत्ति ही नहीं होती है। वही संसार के हेतु है । अतः संसार के हेतु रूप काम्य कर्म कैसे तापत्रय निवृत्ति के प्रति हेतु हो सकता है ? उत्तर में कहते हैं – सामग्री भेद से सम्भव पर हो सकता है । भा० ११५।३३ में उक्त है-
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य आमयो रोगो येन घृतादिना जायते, तदेव केवलमामयकारणं द्रव्यं तमामयं न निवर्तयति, किन्तु चिकित्सितं द्रव्यान्तरं भवितं तत् निवर्त्तयत्येव । (T० ११५/३४) -
(२२१) “एवं नृणां क्रियायोगाः सर्वे संसृतिहेतवः (app)
अत एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिताः परे ॥ " ६४६॥
परे भगवति कल्पिताः कामनयाप्यपिताः सन्तः संसारध्वंसपर्यन्तफलत्वात् आत्मविनाशाय धर्मनिवृत्तये कल्पन्ते ॥ श्रीनारदो श्रीवेदव्यासम् ॥
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