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सा भक्तिस्त्रिविधा, आरोप सिद्धा, सङ्गसिद्धा, स्वरूपसिद्धा च । तत्रारोपसिद्धा स्वतो भक्तित्वाभावेऽपि भगवदर्पणादिना भक्तित्वं प्राप्ता कर्मादिरूपा । सङ्ग सिद्धा स्वतो भक्तित्वाभावेऽपि तत् परिकरतथा संस्थापनेन ( भा० ११।३।२२) “तत्र भागवतान् धन् शिक्षेद्गुर्वात्मदैवतः” इत्यादि प्रकरणेषु, (भा० ११ ३ २३) “सर्वतो मनसोऽसङ्गम्" इत्यादिना लब्ध-तदन्तः पाता ज्ञान-कर्म तदङ्गरूपा ।
तदङ्गरूपा । स्वरूपसिद्धा चाज्ञानादिनापि
तत्प्रादुर्भाव भक्तित्वाव्यभिचारिणी साक्षात्तदनुगत्यात्मा तदीयश्रवणकीर्त्तनादिरूपा। भा० ७१५१२३) श्रवणं
भी कहते हैं - भा० ६।३।२२ में धर्मराज ने कहा है -
“एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां धर्म परः स्मृतः ।
भक्तियोगो भगवति तन्नाम ग्रहणादिभिः ॥
इस जगत् में श्रीहरि के नाम श्रवण कीर्तनादि के द्वारा श्रीभगवान् में जो भक्ति योग है, यही मानव मात्र का परम धर्म है । इस भागवत धर्म लक्षण में भगवत् प्राप्ति भागवद् धर्म का असाधारण कार्य्य होने के कारण -तटस्थ लक्षण है । भगवान् को प्राप्त करने के निमित्त जो उपाय कथित हैं- यह सब उपाय अर्थात् श्रवण कोर्त्तनाद भागवत धर्म वा भक्ति के स्वरूप लक्षण हैं । भगवत् प्राप्ति का उपाय भी भगवदनुगति है - अर्थात् अनुकूल अनुशीलन है ।
श्रीकवि योगीन्द्र निमिमहाराज को कहे थे ॥ २१६ ॥
३८२ २१७
यह भक्ति विविध हैं, आरोप सिद्धा, सङ्ग सिद्धा, एवं स्वरूप सिद्धा । उस के मध्य में स्वरूपतः भक्तित्व न होने पर अर्थात् आनुकूल्य कृष्णानुशीलन न होने पर, निज उद्देश्य सिद्धि हेतु भगवत् सन्तोष थ कर्मार्पण के द्वारा जो भक्ति होती है-वह आरोप सिद्धा भक्ति है । अर्थात् भगवान् में आरोपित होता है, तज्जन्य कर्मादि में भक्तित्व होता है । स्वरूपतः भक्तित्व न होने पर भी अर्थात् आनुकूल्य से कृष्णानुशीलन न होने पर भी भक्ति परिकर रूप में संस्थापन द्वारा जिस का भक्तित्व सिद्ध होता है- उस का नाम सङ्ग सिद्धा है । जिस प्रकार भा० ११।३।२२ में उक्त है-
“तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः । इत्यादि ।
RPS
प्रकरण में भा० ११।३।३२ उक्त है – “सर्वतो मनसोऽसङ्गम् " अर्थात् विशुद्ध भागवत धर्म वर्णन में प्रवृत्त होकर उस के सहायक रूप में ज्ञान कर्मादि को भक्तयङ्ग रूप में उल्लेख किया है । स्वरूपसिद्धा भक्ति का लक्षण यह है - अज्ञानादि के द्वारा भी उसका प्रादुर्भाव होने पर भक्तित्व में अव्यभिचारिणी साक्षात् भगवदानुकूल्यजीवना भगवत् सम्बन्धि श्रवण कीर्त्तनादि रूपा । जिस प्रकार भा० ७।४।२३ में प्रह्लाद ने कहा है - “श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पाद सेवनं, अच्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् । अर्थात् श्रीविष्णु के श्रवण, कीर्तन, स्मरण, आदर विशेष के सहित विष्णु की परिचर्या, अच्चन, नमस्कार, दास्य, सख्य, विष्णु में आत्मसमर्पण - यह नवविधा भक्ति स्वरूप सिद्धा हैं । अर्थात् अव्यवधान से साक्षाद्रप में श्रीविष्णु के सम्बन्ध में कायिक, वाचिक, मानस चेष्टा का नाम स्वरूपसिद्धा भक्ति है ।
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कीर्त्तनं विष्णोः” इत्यादौ विष्णोः श्रवणं विष्णोः कीर्त्तनमिति विशिष्टस्यैव विवक्षितत्वात् तेषामपि नारोपसिद्धत्वम्, प्रत्युत मूढप्रोन्मत्तादिषु तदनुकर्त्तृष्वपि कथञ्चित् सम्बन्धेन फल- प्रापकत्वात् स्वरूपसिद्धत्वम् । यथा-श्रीप्रह्लादस्य पूर्वजन्मनि श्रीनृसिंह चतुद्दश्युपवासः, यथा कुक्कुर मुखगतस्य श्येनस्य भगवन्मन्दिरपरिक्रमः । एवमन्यदृष्ट्यादिना मूढादिभिः कृतस्य वन्दनस्यापि ज्ञ ेयम् । तदेवं त्रिविधापि सा पुनरकैतवा सकैतवा चेति द्विविधा ज्ञेया । त्रारोपसङ्गसिद्धयोर्यस्था भक्तेः सम्बन्धेन भक्तिपदप्राप्तया सामर्थ्यम्. तन्मात्रापेक्षत्वं चेदकैतवत्वम्, स्वीयान्यदीय फलापेक्षत्वं चेत् सकैतवत्वम् । स्वरूप-सिद्धायाश्च यस्य भगवतः सम्बन्धेन तादृशं माहात्म्यं तन्मात्रापेक्ष-परिकरत्वा चेदकं तवत्वम्, प्रयोजनान्तरापेक्षया कर्म- ज्ञानपरिकरत्वञ्चेत् सकैतवत्वम् । इयमेवा कैतवाकिनाख्यत्वेन पूर्वमुक्ता (भा० १११।२) “धर्मः
के
श्रवण कीर्तनादि भक्तचङ्ग के सहित श्रीविष्णु का साक्षात् सम्बन्ध होने के कारण, एवं कर्म ज्ञान प्रभृति से यह सब क्रिया का वंशिष्टय हेतु यह श्रवण कीर्तनादि - " आरोप सिद्धा भक्ति लक्षण से पार्थक्य- मण्डित है । कारण, आरोपसिद्धा भक्ति में साक्षात् ही श्रीभगवान् के सहित किसी प्रकार सम्बन्ध न रख कर ही अनुष्ठित कर्मादि श्रीभगवान में अर्पित होते हैं । स्वरूप सिद्धा भक्ति का वैशिष्ट्य यह है कि अबुद्धि पूर्वक भी यदि यह अनुष्ठत होती है । तो भक्ति फल प्राप्ति विषय में अन्यथा होने की सम्भावना नहीं है । तज्जन्य स्वरूपसिद्धा भक्ति को आरोपसिद्धा भक्ति के लक्षण में अन्तर्भुक्त नहीं किया जा सकते हैं। स्वरूप सिद्धा भक्ति का प्रभाव ही इस प्रकार है कि भक्ति का अनुकरण कारी मूढ़ प्रोन्मत्त प्रभृति में भी किसो प्रकार भक्ति सम्बन्ध होने पर यह फल प्राप्ति कराने में सक्षम है । जिस प्रकार पूर्व जन्म में प्रह्लाद द्वारा अनुष्ठित श्रीनृसिंह चतुदशी का उपवास । पूर्व जन्म में प्रह्लाद एक ब्राह्मण युवक था, चरित्र अत्यन्त कलुषित होने के कारण वेश्या रक्त हो गया था । एक दिन वेश्या के सहित मनोमालिन्य होने के कारण उपवास रहना पड़ा। दैवात् उस दिन श्रीनृसिंह चतुर्दशो की उपवास तिथि थी । ब्राह्मण युवक का कुछ
भी अनुसन्धान नहीं था । अनुन्धान न होने पर भी भक्ति स्वभाव एवं प्रभाव से श्रीनृसिंह चतुर्दशी व्रत का फल लाभ हुआ । एवं पर जन्म में श्रीनृसिंह देव का परम भक्त वह हो गया । उस भक्ति में नित्यसिद्ध प्रह्लाद के भाव के सहित किसी प्रकार पार्थक्य न होने से पर जन्म में नित्यसिद्ध प्रह्लाद के सहित सायुज्य लाभ भी हुआ था ।
K
द्वितीय दृष्टान्त यह है । कुकुर मुख गत श्येनपक्षी को भगवन्मन्दिर परिक्रमा । एक श्येन पक्षी को कुकुर आक्रमणोद्यत होने पर - श्येन पक्षी भीत होकर पलायन करने लगी, उस से उस की भगवत् मन्दिर परिक्रमा हो गई। इस परिक्रमा के फल से उसकी बैकुण्ठ प्राप्ति हुई। इस प्रकार अन्य दृष्ट प्रभृति द्वारा भी यदि मूढ़ प्रभृति भगवद् वन्दन करते हैं तो उस नमस्कार के फल से भगवत् प्राप्ति होती है ।
उक्त आरोप सिद्धा, सङ्गसिद्धा, आरोप सिद्धा- यह त्रिविध भत्ति - अकैतक एवं सकैतव भेद द्विविध हैं । उस के मध्य में आरोपसिद्धा एवं सङ्गसद्धा, जिस भक्ति के सम्बन्ध से भक्ति संज्ञा से अभिहिता होती है, केवल उस भक्ति मात्र की ही अपेक्षा होती है, भक्ति भिन्न अन्य फल प्राप्ति की आकाङ्क्षा नहीं होती है तो, वह आरोपसिद्ध एवं सङ्गसिद्धा भक्ति अकैतवा होती है । और यदि स्वकीय वा अन्यदीय फलापेक्षा होती है तो वह आरोप सिद्धा एवं सङ्गसिद्धा भक्ति- सकैतवा होती है । इति पूर्व में इस अकंतवा भक्ति को हो अकिञ्चना भक्ति कही गई है । भा० १।१।२ में कथित “धर्म्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमः " श्लोक में भक्ति
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प्रोज्झित केतवोऽत्र परमः” इत्येव वास्य तदुभयविधत्वे प्रमाणं ज्ञेयम् । तथोक्तम्, (भा० ७७५२) “प्रीयतेऽमलया भक्तया हरिरन्यद्विड़म्बनम्” इति ।
Tp 18 अथारोपसिद्धा । एतदर्थमेव (भा० ११५।१२१२।१२।५३) “नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाव- वर्जितम् " इत्यादौ सकाम निष्कामयोर्द्वयोरपि कर्म्मणोनिन्दा, भगवद्वैमुख्याविशेषात् । तत्र यादृच्छिक- चेष्टाया अपि भगवदपितत्वे भगवद्धर्मत्वं भवति, किमुत वैदिककर्मण इति वक्तु तस्या अपि
तद्रूपत्वमाह, (भा० १११२।३६ ) -
(२१७) “कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा, बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात् ।
करोति यद्यत् सकलं परस्मै, नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥” ६३७ ॥
पूर्व्वं हि (भा० ११२ ३१) “धर्मान् भागवतान् बूत” इति प्रश्नानन्तरं ( भा० ११।२।३४) “ये वै भगवता प्रोक्ताः” इत्यादिना मुख्यत्वेन साक्षात् तलब्धये उपायभूताः श्रवणकीर्त्तनादयो
का सकैतवत्व एवं अकैतवत् निर्णय हुआ है । सारार्थ यह है कि- भक्ति भिन्न धर्म अर्थ, काम, एवं मोक्ष के मध्य में किसी एक की कामना विद्यमान होने से वह भक्ति सकैत होती है । और धर्मार्थ काम मोक्ष के मध्य में किसी की कामना न हो, एकमात्र श्रीभगवत् सन्तोषार्थ अनुष्ठिता भक्ति अकैतवा है ।
स्वरूप सिद्धा भक्ति के सहित श्रीभगवान् का साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान होने के कारण सरूपसिद्धा भक्ति की परम सामर्थ्य है । यदि केवल भगवान् की ही अपेक्षा होती वह स्वरूप सिद्धा भक्ति अकैतवा होती है। उस भक्ति का नाम हो अकिञ्चना भक्ति है । भा० ७७७ ५४ में लिखित है-
“न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च ।
प्रीयते ऽमलया भक्तचा हरिरन्यद् विडम्बनम् ॥
दान, तपस्या, यज्ञ, शौच, एवं निखिल व्रत प्रभृति साधन समूह अभिनय मात्र ही है । कारण, श्रीहरि एकमात्र अमला अर्थात् निष्कामा भक्ति के द्वारा ही सन्तुष्ट होते हैं । ह
सम्प्रति आरोपसिद्धा भक्ति का प्रसङ्ग उत्थापित हो रहा है, इस अभिप्राय से ही भा० १०५ १२, १२/१२/५३ में कहा गया है - “नैष्कर्म्यमत्यच्युतभाववजितम् ” - अर्थात् भगवद् विदुखता की निवृत्ति न होने के कारण, सकाम निष्काम - उभय विध कर्म ही निन्दित हैं। जो जितने ही सत् कर्म का अनुष्ठान क्यों न करें, हृदय में यदि भगवत अनुसन्धान नहीं होता है तो, यह सब कार्य असत् होते हैं। उस में भी दैहिक एवं व्यवहारिक चेष्टा, जो लौकिक रूप से निद्दिष्ट है, उस का अर्पण भगवान् को करने से भी यदि भागवद् धर्म होता है तो, वैदिक कर्म का अर्पण भगवान् को करने पर सुतरां ही भागवद् धर्म होगा। यह दर्शाने के निमित्त दैहिक एवं व्यवहारिक चेष्टा का भी भागवद्धर्मता का वर्णन करते हैं। भा० ११/२/३६
(२१७) “कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा, बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात् ।
करोति यद्यत् सकलं परस्मै, नारायण. येति समर्पयेत्तत् ॥ ६३७॥
श्रीकवि योगीन्द्र कहे थे- हे राजन् ! काय, वाक्य, मन एवं इन्द्रिय द्वारा, बुद्धि एवं चित्त के द्वारा अथवा निजदैहिक एवं व्यवहारिक जो कुछ कार्य करते रहते हो, समस्त कार्य्यं - ‘परम पुरुष नारायणाय- नमः’ कहकर समर्पण करो ।
op
।
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भागवतधर्म्मा लक्षिताः, ते चात्रं व (भा० ११।२।३६) “शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेः” इत्यादि । कतिचिद्दशिताः । उत्तराध्याये च (भा० ११।३।२२) - “तत्र भागवतान् धर्म्मान शिक्षेद्- गुर्वात्मदेवतः” इत्युपक्रमवाक्यानन्तरम् (भा० ११।३।३३) “इति भागवतान् धर्मान् शिक्षन् भक्तया तदुत्थया” इत्युपसंहार - वाक्यस्य प्राग्भागवतधर्मत्वेनान्यसङ्गादि त्यागादिकमपि वक्ष्यते (भा० ११।३।२३) “सर्वतो मनसोऽसङ्गम्” इत्यादिना । तस्मात् लौकिक- कर्माद्यर्पणमिदं यथाकथञ्चित् तद्धर्म्मसिद्धयर्थमेवोच्यते । अर्थश्चायं टीकायाम् - “आत्मना चित्तेनाहङ्कारेण वा अनुसृतो यः स्वभावस्तस्मात् । अयमर्थः - न केवलं विधितः कृतमेवेति नियमः, स्वभावानुसारि लौकिकमपीति । श्रीगीतासु च (६।२७) -
‘यत् करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ॥’ ६३८ ॥
इस के पूर्व में “धर्मान् भागवतान् ब्रूतः” अर्थात् भागवत धर्म का वर्णन करो, इस प्रकार निमि महाराज कृत प्रश्नोतर में श्रीकवियोगीन्द्र कहे थे - “ये वै भगवता प्रोक्ताः” अर्थात् निज प्राप्ति हेतु श्रीभगवान् जो सब उपाय कहे थे, उन सब उपायों का नाम भागवद् धर्म है । इस से मुख्य रूप
मुख्य रूप से साक्षात् भगवत् प्राप्ति के उपाय स्वरूप श्रवण कीर्त्तनादि भागवद् धर्म समूह को लक्ष्य किया गया है । यह सब भागवद् धर्म के मध्य में भी “शृण्वन् सुभद्राणिरथाङ्गपाणेः” इत्यादि श्लोक में भगवान् के जन्म कर्म एवं नाम श्रवण कीर्तन करते करते वाह्यलोकापेक्षा शून्य होकर विचरण करे । इस प्रकार भागवत धर्म के कतिपय अङ्ग का वर्णन किया गया है। अनन्तर उस के ही तृतीयाध्याय भा० ११।३।२२ में “तत्र भागवतान् धर्मात् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः” अर्थात् श्रीगुरु चरण के समीप में भागवत धर्म समूह की शिक्षा करे । इस प्रकार उपक्रम वाक्य के पश्चाद् कहा गया है-
“इति भागवतान् धर्मान् शिक्षन् भक्तचा तदुत्थया”
"
अर्थात् इस प्रकार श्रीगुरुचरण के समीप से भागवद् धर्म शिक्षा करके भजन करते करते भाव भक्ति लाभ करोगे एवं भाव भक्ति के प्रभाव से माया उत्तीर्ण हो सकोगे । इस प्रकार उपसंहार वाक्य के पूर्व में भागवत धर्म के सहायक रूप में अन्य सङ्ग त्याग प्रभृति उपदेश भी भा० ११ । ३ । २३ ’ सर्वतोमनसोऽसङ्गम् द्वारा करेंगे। अतएव लौकिक कर्मादि का अर्पण भगवान् में करने से जैसे तैसे भागवद् धर्म सिद्ध होता है- यह कहा गया है । अर्थात् वस्तुतः भगवान् में कर्मार्पण करने से ही भागवद् धर्म नहीं हो सकता है, किन्तु अर्पण समय में यथा कथश्वित् भगवान् का स्मरण होने के कारण ही भागवद् धर्म कहा गया है, यह गौण भागवद् धर्म है । “कायेन वाचा” श्लोक की टीका में श्रीधर स्वामिपादने कहा है- “आत्मना’ अर्थात् चित्त अथवा अहङ्कार द्वारा जो कुछ किया जाता है, अनुसृत जो स्वभाव है, उस स्वभाव के द्वारा जो कर्म किया जाता है, उस को भी श्रीभगवान् को अर्पण करे । यहाँ का तात्पर्य यह है कि - केवल शास्त्र विधि के द्वारा कृत कर्म का अर्पण श्रीनारायण को करे, यह नियम नहीं है । स्वभावानुसार कृत लौकिक कर्म को भी अर्पण करे । श्रीमद् भगवद् गीता में भी लिखित है-६१२७-
“यत् करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ॥६३८ ॥
प्रिमि
हे अर्जुन ! तुम जो कुछ करते हो, जो भोजन करते हो, होम दान, तप, करते हो, यह सब मुझ को
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इतः पूर्वं प्राणबुद्धिदेहधर्म्मा धक रत इत्यादिकमन्त्र तथा । अत्र स्वाभाविक कर्म्मणो- अर्पणे दुष्कर्म्मणो द्विविधा गतिः, जानेवठूनामविशेषेण, भकीच्छूनान्तु अनेन दुर्वासन दुःख- दर्शनेन स करुणामयः करुणां करोत्विति वा, (वि० पु० १/२०१६) -
“या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्नापसर्पतु ॥ ६३६ ॥
इति विष्णुपुराणोक्त प्रकारेण -
“युवतीनां यथा यूनि यूनाञ्च युवतौ यथा । मनोऽभिरमते तद्वन्मनो मे रमतां त्वयि ॥ " ६४० ॥ इति पाद्मोक्तप्रकारेण च मम सुकर्म्मणि दुष्कर्म्मणि च यद्रागसामान्यं तत् सर्वतोभावेन भगवद्विषयमेव भवत्विति वा समाधेयम् । कामिनान्तु सर्वथैव सर्वदुष्कर्मर्पणम् (भा० ११।३।४६ “वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽपतमीश्वरे” इत्यत्र पुनर्वेदिकमेवेश्वरेऽप्तिं कुर्वाण इत्युक्तम् ॥ श्रीकविनिमिम् ॥
समर्पण करो। इस से लौकिक कर्मार्पण भी विहित हुआ है। पूजा प्रकरण में कथित है- “इतः पूर्व प्राण बुद्धि देह धर्माधिकारतः” इत्यादि मन्त्र में भी लौकिक वैदिक उभय विध कर्मार्पण ही विहित हुआ है । उभय विध कर्मार्पण के मध्य में स्वाभाविक कर्मर्पण विषय में दुष्कर्म की दो प्रकार गति होती हैं । ज्ञानेच्छ, साधक के पक्ष से दुष्कर्म सुकर्म - उभय विध कर्मार्पण द्वारा फलांश में पार्थक्य नहीं होता है । कारण, ज्ञानिगण मानते हैं- “नाहं कर्त्ता, नाहं भोक्ता” अर्थात् में कर्म भी नहीं करता हूँ । कर्म फल भी भोग नहीं करता हूँ । देहेन्द्रिय कर्माचरण करते हैं, एवं वे ही कर्म फल भोग करते हैं। मैं देहेन्द्रिय से भिन्न नित्यसिद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव अनुचैतन्य स्वरूप हैं । इस प्रकार भावना से ही वे सब कर्मार्पण करते हैं । किन्तु भक्तीच्छ, साधक के पक्ष में उस से भिन्न रीति है - भक्त गण जानते हैं-
ए
मेरी यह दुर्वासना एवं दुःख को देखकर - करुणामय प्रभु मेरे प्रति करुणा करेंगे । आप स्वयं कृपा करके दुर्वासना जनित क्लेश विदूरित नहीं कर देते हैं तो, मेरी कुछ भी सामर्थ्य नहीं है, मैं निज शक्ति से दुर्वासना निवृत्ति कर सकू” इस प्रकार दैन्य परि पूरित अन्तः करण से श्रीभगवच्चरणों में विज्ञापन ही भक्तों का कर्मार्पण है । अथवा, श्रीविष्णु पुराण में कथित है-
VE
“या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । एक त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्नापसर्पतु ॥ ६३६ ॥
अविवेको जनों की विषय में जो निश्चला प्रीति है, हे नाथ ! मैं आप का नियत स्मरण कर कहता हूँ, मेरे हृदय से आप के प्रति उस प्रकार निश्चला - अनपायिनी प्रीति जैसे कभी भी विदूरित न हो, अथवा पद्मपुराणोक्त प्रकार के अनुसार विज्ञापन होता है ।
“युवतीनां यथा यूनि यूनाञ्च युवतौ यथा ।
मनोऽभिरमते तद्वन्मनो मे रमतां त्वयि ॥ ६४० ॥
अनेक युवती वृन्द का मन, एक युवक में अथवा बहु युवकों का मन, एक युवती में जिस प्रकार अभिरमित होता है । हे नाथ ! मेरा मन जैसे सर्वदा उस प्रकार आप में अभिरमित हो । इस प्रकार ही मेरी आसक्ति सुकर्म में वा दुष्कर्म में यत् किञ्चित् है । वह आसक्ति सर्वतो भावेन श्रीभगवान् में हो। इस प्रकार समाधान करना कर्त्तव्य हैं । सकाम मानव के पक्ष में तो सब प्रकार से ही सब दुष्कर्म समर्पण करना चाहिये । भा० ११।३।४६ में उक्त है - “वेदोक्तमेव कुर्वाणोनि सङ्गोऽर्पितमीश्वरे” अर्थात्