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तदेवं ज्ञानमुक्तम् । इदमेव ( गी० ८ ३) “स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते” इत्यनेन श्रीगीता सूक्तम् । स्वस्य शुद्धस्यात्मनो भावो भावना, आत्मन्यधिकृत्य वर्त्तमानत्वादध्यात्म- शब्देनोच्यत इत्यर्थः । अथासंग्रहोपासनम् - तच्छक्ति विशिष्ट ईश्वर एवाहमिति चिन्तनम् । अस्य फलं स्वस्मिस्तच्छक्तयाद्याविर्भावः । यथा विष्णु पुराणे नागपाशादि-यन्त्रितः श्रीप्रह्लादस्तादृशमात्मानं स्मरन् नागपाशादिकमुत्सारितवान् । अत्रान्तिम फलश्च

कोटपेश स्कृन्नयायेन सारूय-साष्टर्यादिकञ्च ज्ञ ेयम् ।

अथ भक्तिः, तस्यास्तटस्थलक्षणं स्वरूपलक्षणञ्च यथा गरुड़पुराणे,-

“विष्णुभक्ति प्रवक्ष्यामि यया सर्वमवाप्यते । यथा भक्त. या हरिस्तुष्येत्तथा नान्येन केनचित् ॥” ६३३॥

अभेद रूप में भावना करना । अनन्तर निवृति लाभ करके साधन कृत्य से विरत होना चाहिये । कारण, उस ज्ञानी का निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप अनुभव के पश्चात् अधिक कुछ प्राप्य नहीं रह जाता है। अभेदानु सन्धानात्मक ज्ञान साधक की ऐकात्म्य दृष्टि पर्यन्त ही चरम फल है ।

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प्रकरण प्रवक्ता श्रीशुक हैं-१२१५॥

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उस रीति से ज्ञान मार्ग वर्णित हुआ। गीता शास्त्र में (८।३) “स्वाभावोऽध्यात्ममुच्यते " उक्त रीति से ज्ञान को ही अध्यात्म कहा गया है। स्वभाव एवं अध्यात्म शब्द का तात्पय्यं यह है–“स्वस्थ शुद्धस्य आत्मनो भावो भावना इति स्वभावः स्व शब्द का अर्थ शुद्ध आत्मा, भाव शब्द का अर्थ–भावना, अर्थात् शुद्ध त्वं पदार्थ जीवस्वरूप की जो भावना, उसका नाम– स्वभाव है । अध्यात्म - आत्मानमधिकृत्य वर्त्तमानत्वात् अध्यात्मं, अर्थात् अत्मा को अधिकार करके जो होता है, उस का नाम अध्यात्म है । अनन्तर अहंग्रह उपासना का वर्णन करते हैं-

“तच्छक्ति विशिष्ट ईश्वर एवाहं, इति चिन्तनं” अर्थात् शक्ति विशिष्ट ईश्वर ही मैं हूँ-इस प्रकार चिन्ता का नाम ही अहं ग्रह उपासना है । इस प्रकार चिन्ता से चिन्तन कारी में ईश्वरीय शक्ति विशेष का आविर्भाव होता है ।

जिस प्रकार विष्णु पुराण में लिखित है- नागपाशादि के द्वारा आबद्ध श्रीप्रह्लाद - “विभुता प्रभृति शक्ति विशिष्ट ईश्वर ही मैं हूँ” इस प्रकार स्मरण करते करते नागपाशादि बन्धन विमोचन किये थे । अर्थात् प्रह्लाद में इस प्रकार शक्ति का आविर्भाव हुआ था कि जिस से नागपाशादि के द्वारा प्रह्लाद को बन्धन करने में कोई भी समर्थ नहीं हुए। इस प्रकार अहंग्रह उपासना का अन्तिम फल यह है कि–कीट के गह्वर में आनीत कीट जिस प्रकार संरम्भ भय से भीत होकर भयद कीट के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् भयदाता कोट में मिलित न होकर अपन को भयद कोट के स्वरूप में रूपायित कर लेता है, उस प्रकार अहंग्रह उपासना में “विविध शक्ति विशिष्ठ मैं ही ईश्वर हूँ” इस प्रकार भावना करते करते ईंश्वर के समान रूप का ऐश्वर्थ्य लाभकर मुक्त हो जाता है । अर्थात् सारूप्य ईश्वर के समान रूप—अथवा समान ऐश्वर्य्य प्राप्ति रूप मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, उक्त भक्ति के स्वरूप लक्षण एवं तटस्थ लक्षण का वर्णन गरुड़ पुरण में जिस प्रकार लिखित है उसका उट्टङ्कन करते हैं-

“विष्णुभक्त प्रवक्ष्यामि यया सर्वमवाप्यते ।

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इत्युक्त्वाह-

“भज इत्येष वै धातुः सेवायां परिकीर्तितः ।

तस्मात् सेवा बुधैः प्रोक्ता भक्तिः साधनभूयसी ॥ ६३४ ॥ इति ।

अत्र ‘यया सर्वमवाप्यते’ इति तटस्थलक्षणम् । तत्र च (भा० २।३।१० ) - " अकामः सर्वकामो वा” इत्यादि - सिद्धत्वादव्याप्तयभावः, यथा भक्तेत्याद्युक्तत्वादहं ग्रहोपासनायामतिव्याप्त्यभावः बुद्धैः प्रोक्तत्वादसम्भवाभावश्च । सेवा-शब्देन स्वरूपलक्षणम्, सा च कायिक- वाचिक- मानसात्मिका त्रिविधैवानुगतिरुच्यते । अतएव भयद्वेषादीना महंग्रहोपासनायाश्च व्यावृत्तिः ।

यथा भक्तचा हरिस्तुष्येत्तथा नान्येन केनचित् ॥ ६३३॥

में उस विष्णु भक्ति का वृत्तान्त कहूँगा, जिस भक्ति के द्वारा सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। भक्ति द्वारा श्रीहरि, जिस प्रकार सन्तुष्ट होते हैं, अपर किसी के द्वारा भी उस प्रकार सन्तुष्ट नहीं होते हैं । इस प्रकार कहने के बाद उन्होंने कहा-

“भज इत्येष वै धातुः सेवायां परिकीर्तितः

तस्मात् सेवा बुधैः प्रोक्ता भक्तिः साधनभूयसी ॥ ६३४॥

ि

‘भज’ धातु का अर्थ है सेवा । अतएव पण्डित गण, निखिल साधन वृद के मध्य में सेवा को ही श्रेष्ठा भक्ति कहते हैं । भक्ति के द्वारा सब कुछ लाभ कर सकते हैं, यह लाभ ही भक्ति का तटस्थ लक्षण है । वस्तु का असाधारण कार्य्य ही उस का तटस्थ लक्षण होता है । अर्थात् जो कार्य्यं - उसका ही है, अन्य किसी का नहीं है, वह उसका तटस्थ नाम से अभिहित होता है । भगवान् में भक्ति करने से जो सर्वार्थ सिद्ध होती है, उसका विवरण भा० २।३।१० में

“अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।

तीव्र ेण भक्ति योगेन यजेत पुरुषं परम् ॥”

लिखित है । अर्थात् श्रीविष्णु प्रीति काम किंवा देहेन्द्रिय सुखार्थ उक्त अनुक्त सर्वकाम, अथवा मोक्ष काम - जो भी हो - तीव्र भक्ति योग के द्वारा परम पुरुष श्रीभगवान् की उपासना करनी चाहिये। इस से अव्याप्ति दोष की निवृत्ति हुई है । ‘स्वलक्ष्यलक्षणाप्रवेशः - अव्याप्तिः ।” अर्थात् भक्ति द्वारा सर्वलभ्य है– यह तटस्थलक्षण है, उस का अप्रवेश सर्व प्राप्ति के मध्य में कहीं भी नहीं हुआ । उक्त लक्षण में अतिव्याप्ति दोष का परिहार करते हुये कहते हैं- “भक्तचा हरिस्तुष्येत्” इस से कर्म ज्ञानादि साधन में भक्ति लक्षण का प्रवेश नहीं हुआ । अर्थात् अलक्ष्य में भक्ति लक्षण का गमन नहीं हुआ । भक्ति द्वारा श्रीभगवान् जिस प्रकार सन्तुष्ट होते हैं, उस प्रकार अन्य किसी भी साधन से सन्तुष्ट नहीं होते हैं । इस से ज्ञान कर्म प्रभृति साधन में भक्ति लक्षण का अप्रवेश निबन्धन अति व्याप्ति दोष विदूरित हुआ । “सेवा बुधै प्रोक्ता” पण्डित गण उसी को सेवा कहते हैं, इस प्रकार उल्लेख होने के कारण, भक्ति द्वारा जो सर्वार्थ सिद्धि होती है- इस विषय में असम्भावना का अवसर नहीं रहा । कारण, पण्डित गण को उक्ति अव्यभिचारिणी है ।

‘सेवा’ ही भक्ति का स्वरूप लक्षण है । वह सेवा - कायिक, वाचिक, मानसिक भेद से त्रिविध भगवदनुगति रूप हैं, अतएव भय द्वेष प्रभृति में एवं अहंग्रह उपासना प्रभृति में भक्ति लक्षण का प्रवेश नहीं हुआ । अर्थात् अव्याप्ति नहीं हुई । कारण, जिस में श्रीकृष्णानुकूल्य से अनुगति नहीं है, अर्थात् जिस प्रकार आचरण करने से श्रीकृष्ण को सन्तोष होता है, उस प्रकार कायिक, वाचिक, मानसिक श्रीकृष्णानु-

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साधनभूयसी साधनेषु श्रेष्ठेत्यर्थः । तदेव लक्षणद्वयं प्रकार न्तरेणाह, (भा० ११।२।३४) -

(२१६) “ये व भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।

अञ्जः पुंसामदिदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥ ६३५॥

अविदुषां पुंसां तन्माहात्म्यम विद्वद्भिरपि कर्तृभिः । आत्मनः - ‘ब्रह्म परमात्मा भगवान्’ इत्याविर्भाव-भेदवतः स्वस्थ धर्मभूतस्य अजोऽनायासेनैव लब्धये लाभाय ये उपायाः साधनानि स्वयं भगवता ( भा० ११।१४ ३)

" कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।

मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ॥

" ६३६॥

इत्यनुसारेण प्रोक्ताः तान् उपायात् भागवतान् धर्मान् विद्धि । हि प्रसिद्धौ । तत्र साक्षाद्- भक्तेरपि भागवतधम्मख्यित्वम् (भा० ६।३।१२) “एतावानेव लोकेऽस्मिन्” इत्यादी परम- शीलन न होने के कारण, भय, द्वेष, एवं अहंग्रह उपासना भक्ति लक्षण का प्रवेश नहीं हुआ । लक्षणस्थ ‘साधनभूयसी’ शब्द का अर्थ है-साधन वृन्द के मध्य में श्रेष्ठा है ।

उक्त भक्ति के स्वरूप लक्षण तटस्थ लक्षण का वर्णन भा० ११।२।३४ में श्रीकवि योगीन्द्र ने प्रकारान्तर से कहा है-

(२१६) “ये वे भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।

अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥ ६३५॥

अर्थात् जो भक्तिमाहात्म्य के विषय में अनभिज्ञ हैं । उनको भी ब्रह्म, परमात्मा, भगवान् - यह त्रिविध अविर्भाव विशिष्ट आत्मा - अर्थात् भगवान् स्वयं को अञ्जः–अनायास सुख पूर्वक प्राप्त करने के निमित्त स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण जो उपाय का अर्थात् साधन का वर्णन किये हैं- उस साधन का नाम ही भागवत धर्म है ।

श्रीभगवान् श्रीकृष्ण-वर्ण एवं आश्रमोचित धर्म समूह का जगत् में प्रकाश मनु प्रभृति के द्वारा किये हैं। किन्तु विशुद्धा भक्ति वा भागवत धर्मका प्रकाश मनु प्रभृति के द्वारा असम्भव होने से कारण निजमुख से जिसका उद्घोष किये हैं. उसका नाम भागवत धर्म है। उसका विवरण भा० ११।१४।३ में इस प्रकार है-

‘कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।

मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ॥ ६३६ ॥

स्वयं श्री कृष्ण, उद्धव को कहे थे - हे उद्भव ! प्रलय काल में जगत् में भक्ति ग्राहक लोक विद्यमान न होने पर वेद प्रतिपाद्य यह भक्ति धर्म नष्ट प्राय हो गया था । अर्थात् मनुष्य समाज में इस का प्रचार नहीं था । मैंने सृष्टि के प्रारम्भ में अर्थात् जिस समय ब्रह्मा रूप मानव का सृजन हुआ उस समय ह्लादिनी शक्ति की सारभूता भक्ति वा भागवत धर्मका वर्णन ब्रह्मर के निकट में किया था। इससे विदित होता है कि- श्री भगवान् श्रीकृष्ण, निज मुख से जिस उपायों का उपदेश–आदेश वा वर्णन किये हैं, उस का नाम ही भागवत धर्म है । उक्त श्लोकस्थित ‘हि’ शब्द का अर्थ ‘प्रसिद्ध’ है । अर्थात् यह कथा वेद, पुराण, मनुष्य लोक से एवं देव समाज में प्रसिद्ध ही है। प्रश्न हो सकता है कि-साक्षात् भक्ति को ही धर्म शब्द से क्यों कहा गया है ? उत्तर में कहते हैं- साक्षात् भक्ति ही साक्षात् धर्म से अभिहित है । उस को भागवत धर्म

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धर्मत्वख्यापनया दर्शितम् । अत्रात्मलब्धये प्रोक्ता इति तटस्थलक्षणम् । अन्येन तदलाभाद- व्यभिचारि । आत्मलब्धये उपाया इति तु स्वरूपलक्षणम् । तल्लाभोपायो हि तदनुगतिरेव ॥ श्रीकविनिमिम् ॥

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