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तत्साधनप्रकारश्चैवं बहुविधस्तत्र तत्रोक्तः । स च ज्ञानमेवोच्यते । तत्र श्रवणं श्री पृथुसनत्कुमार-संवादादौ द्रष्टव्यम् । तदनुसारेण मननञ्च ज्ञ ेयम् । प्रथमतः श्रोतॄणां हि विवेकस्तावानेव यावता जड़ातिरिक्तं चिन्मात्रं वस्तूपस्थितं भवति । तस्मिश्चिन्मात्रेऽपि वस्तुनि ये विशेषाः स्वरूपभूतशक्तिसिद्धा भगवत्तादिरूपा वर्त्तन्ते तांस्ते विवेक्तु न क्षमन्ते, यथा रजनीखण्डिनि ज्योतिषि ज्योतिर्मावत्वेऽपि ये मण्डलान्तर्बहिश्च दिव्यविमानादि परस्पर-
भावनात्मक ज्ञान को निर्विशेषमय साम्मुख्य है । द्वितीय सविशेषमय साम्मुख्य द्विविध हैं- एक अहं ग्रहोपासनारूप, अपर भक्ति रूप । ज्ञान साधन का लक्षण, भा० ११ १६।२७ में उक्त है-
(२१४) “धम्र्मो मद् भक्ति कृत्प्रोक्तो ज्ञानञ्चैकात्म्यदर्शनम् ।
गुणेष्वसङ्गो वैराग्यमैश्वय्र्यञ्चाणिमादयः ॥”
टीका - स्वाभिप्रेतान् धर्माबीन् व्याचष्ट धर्मोमद्भक्तिकृत् । यतः स एव प्रोक्तः, प्रकृष्ट उक्त शस्त्रेषु । क्रमसन्दर्भ - अथ भक्ति सङ्गाद् धर्मस्य वैशिष्टय चोक्तम् । धर्म इति भगवदर्पणेन भक्ति परिकरी कृतत्वेन च भक्तित्वमुच्यते । यद्वा, मद्भक्ति कृदेवधर्मः प्रकर्षेणोक्तो नान्यः, ततः स एव मुख्य वृत्त्या धर्म शब्देन वाच्य इत्यर्थः । एवमेवभक्तावपि धर्मशब्दः (२४ श्लोक ) ’ एवं धर्मः” इतीति भावः । ऐकात्म्यं सर्वेषां परम स्वरूप मद्रूपेणैकरूपत्वम् । अभेदोपासनं ज्ञानमित्यर्थः । यद्वा, एक एव सर्वेषामात्मा योऽहं स्वयं भगवान्, स एकात्मा, स्वार्थेष्यञ् - ऐकात्म्यम् । तद् दर्शनमेव ज्ञ नं प्रोक्तमिति पूर्ववत् ।
मुझ में भक्ति करने का नाम प्रकृष्ट धर्म है, यही शास्त्र में घोषित है । अभेद उपासना को ज्ञान कहते हैं ।
श्रीभगवान् कहे थे ॥ २१४ ॥
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उस ज्ञान साधन के विविध प्रकार का उल्लेख श्रीमद् भागवत के स्थान स्थान में हैं। उन सब प्रकार को ज्ञान नाम से उल्लेख किया जाता है । उस ज्ञानादि श्रवण एवं ज्ञानादि साधन का प्रकार– श्रीपृथु सनत् कुमार संवाद प्रभृति में द्रष्टव्य है। एवं श्रवण के प्रकारानुसार प्रथमतः ज्ञान साधक श्रोतावृन्द को उतना विवेक का प्रयोजन है, जिस से चित्त में जड़ातिरिक्त चैतन्य मात्र वस्तु ही उपस्थित हो, वह वस्तु, यद्यपि जड़ सम्बन्ध रहित केवल चैतन्य स्वरूप है, तथापि उस में स्वरूप भूत शक्ति सिद्ध भगवत्ता प्रभृतिरूा जो विशेष हैं, अभेद उपासक ज्ञानो साधक उस को अवगत होने में अक्षम है । जिस प्रकार रजनी गत दोष खण्डन कारी ज्योतिः स्वरूप सूर्य्य, केवल ज्योतिर्मय होने से भी उस मण्डल के भीतर एवं बाहर अलौकिक सप्ताश्वरथ प्रभृति एवं परस्पर पृथकीभूत रश्मि एवं रश्मि परमाणु रूप विशेष है । किन्तु नेत्र यह सब ग्रहण करने में असमर्थ है । किन्तु देववृन्द सकल विशेष को ही ग्रहण कर सकते हैं। उस प्रकार केवल चैतन्य स्वरूप वस्तु में भी स्वरूप भूत जो सब विशेष हैं, निर्भेद अनुसन्धानात्मक ज्ञान साधन के द्वारा यह सब विशेष गृहीत नहीं होते हैं। अतएव ज्ञानिगण, स्वरूपगत अनन्त धर्मविद्यमान होने पर भी ज्ञान नेत्र के द्वारा उसको ग्रहण करने में अक्षम हैं । अतः निर्विशेष चिन्मात्र स्वरूप का ही अनुभव करते हैं। भक्त गण, भक्ति नेत्र के द्वारा वह सब ऐश्वर्य्य माधुर्य्य प्रभृति स्वरूपगत अनन्त धर्म ग्रहण कर
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पृथग्भूत- रश्मिपरमाणुरूपा विशेषास्तांश्चर्म चक्षुषो न क्षमन्त इत्यन्वयः, तद्वत् । पूर्ववच्च यदि महत्कृपाविशेषेण दिव्यदृष्टिता भवति, तदा विशेषोपलब्धिश्च भवेत्, न चेनिविशेष- चिन्मात्र ब्रह्मानुभवेन तल्लीन एव भवति । तथैव निदिध्यासनमपि तेषाम्, तद्यथा (भा० २।२।१५-१६)
(२१५) “स्थिरं सुखञ्च सनमास्थितो यति, यंदा जिह सुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्, प्राणान् नियच्छेन्मनसा जितासुः ॥ ६३१॥
मनः स्वबुद्धयामलया नियम्य, क्षेत्रज्ञ एतां निलयेत्तमात्मनि । आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो, लब्धोपशान्तिविरमेत कृत्यात् ॥६३२॥
एतां बुद्धि क्षेत्रज्ञ बुद्धयादिद्रष्टरि निलयेत् प्रविलापयेत् । तञ्च क्षेत्रज्ञ स्वरूपभूतया बुद्धया आत्मनि तद्द्रष्टृत्वादि-रहिते शुद्धे जीवे । तञ्च शुद्धमात्मानमात्मनि ब्रह्मणि, अवरुध्य एक अनिर्वचनीय आनन्दोच्छ् वास से मत्त हो जाते हैं। वह सब ज्ञान साधक वृन्द भी यदि महत् कृपा भाव मयी दृष्टि प्राप्त करें तो वे भी स्वरूपगत विशेष की उपलब्धि कर सकते हैं। यदि महत् कृपा लाभ न हो तो निर्विशेष चिन्मात्र ब्रह्मानुभव में अर्थात् ब्रह्म स्वरूप में ही लीन होकर रहते हैं । ज्ञानि वृद्ध की निदिध्यासन रूप उपासना का वर्णन भा० २।२।१५-१६ इस प्रकार है-
(२१५) “स्थिरं सुखञ्चासनमा स्थितो यति, –र्यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्, प्राणान् नियच्छेन्मनसा जितासुः ॥ ६३१ ॥ मनः स्वबुद्धयामलया नियम्य, क्षेत्रज्ञ एतां निलयेत्तमात्मनि । आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो, लब्धोपशान्तिविरमेत कृत्यात् ॥ " ६३२॥
टीका - एवं तावदासन्न मृत्योः पुंसः कृत्यमुक्तम् । इदानीं तस्येव स्वयं देहं त्यक्तु मिच्छनः कृत्यमाह- स्थिरमिति सार्द्धश्चतुभिः । अङ्ग ! हे राजन् ! एवम्भूतो यति र्यदा इमं लोकं देहं जिज्ञासुः हातु मिच्छति, तदा देशे पुण्य क्षेत्रे, काले च उतरायणादौ, मनो न सज्जयेत् न प्रापयेत् । न देश कालौ योगिनः सिद्धि हेतुः किन्तु योग एवेति दृढ़निश्चयो भूत्वा स्थिरं सुखकरञ्चः सनमास्थितः प्राणान् नियच्छेदित्यर्थः (१५) तद् गृहीत विषयं मनोबुध्या निश्चयरूपया नियम्य तन्मात्रं कृत्वा, एतां बुद्धि क्षेत्रज्ञे बुद्धयादि द्रष्टरि निलयेत् प्रविलापयेत् । तञ्च क्षेत्रज्ञम्, आत्मनि शुद्धे । तञ्श्च शुद्धमात्मानम्, आत्मैवाहमिति आत्मनि ब्रह्मणि अवरुध्य एकी कृत्य, लब्धोपशान्तिः प्राप्त निवृत्तिः सन् कृत्याद् विरमेत् । ततः परं प्राप्याभावात् ॥१६॥
सम्प्राप्त आसन्न मृत्यु मानव यदि देहत्याग करने के इच्छ ुक होता है, तो उस के पक्ष में कर्त्तव्य क्या है - उसको कहते हैं- हे राजन् ! पूर्व वर्णित लक्षणाकान्त योगी यदि यह शरीर त्याग करने के इच्छ ुक होता है, तो, पुण्य क्षेत्र एवं उत्तरायण प्रभृति काल में आसत्तिन रखे । कारण, देश वा काल योगी के पक्ष में सिद्धि लाभ का हेतु नहीं है । किन्तु योग ही सिद्धि लाभ का हेतु है । इस प्रकार दृढ़ निश्चय होकर स्थिर एवं सुखकर आसन में अवस्थान करतः प्राण संयम करे । तत् पश्चात् अमला निज बुद्धि के द्वारा मन को संयत रखकर इस अमला बुद्धि को बुद्धि प्रभृति के द्रा क्षेत्रज्ञो विलीन करे । इस क्षेत्रज्ञ को स्वरूप भूना बुद्धि द्वारा “बुद्धयादि द्रष्टृत्व प्रभृति धर्म रहित शुद्ध जीव में लीन करे । उस शुद्ध आत्मा को भी ब्रह्म स्वरूप में अवरुद्ध करे । अवरोध शब्द का अर्थ है - ब्रह्म के सहित शुद्ध जीवात्मा की
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तदेकत्वेन विचिन्त्य, लब्धोपशान्तिः प्राप्तनिर्वृतिः सन् कृत्याद्विरमेत्, तस्य ततः परं प्राप्याभावात् ॥ श्रीशुकः ॥