३७५ २१४
तदेवं रुच्यादिः श्रीगुर्वाश्रयान्तः उपासनापूर्वाङ्गरूपः साम्मुख्य भेदो बहुविधो दर्शितः । अथ साक्षादुपासनालक्षणस्तद्भेदोऽपि बहुविधो दर्श्यते । तत्र साम्मुख्यं द्विविधम्– निर्विशेषमयं सविशेषमयञ्च । तत्र पूर्वं ज्ञानम्, उत्तरन्तु द्विविधम्- अहंग्रहोपासनारूपं भक्ति-
(११३) “वयन्तु साक्षाद्भगवन् भवस्थ, प्रियस्य सख्युः क्षणसङ्गमेन
सुदुश्चिकित्स्यस्य भवस्य मृत्यो, भिषक्तमं त्वाद्यगतिं गताः स्मः ॥ ६३० ॥
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टीका - सत्सङ्गः फलमस्माभिरेवानुभूतमित्याहुः वयन्त्विति । तव यः प्रियः सखा, तस्य भवस्य । अत्यन्तमचिकित्स्यस्य भवस्य जन्मनो भृत्योश्च भिषक्तमं सद्वैद्य त्वां गति प्राप्ताः ।
क्रमसन्दर्भ - शुद्ध भक्तास्त्वेके प्रचेतोमार्कण्डेय बयः । श्रीगुरोः श्रीशिवस्य च श्रीभगवता सहाभेद दृष्टि तत् प्रियतमत्वेनैव मन्यन्ते । तत्र न वयं भीतत्वेन सत्सङ्ग प्रार्थयामहे, किन्तु परमपुरुषार्थ बुद्धधव, क्षणिकेनंव सच्छिरोमणि सङ्गलामेन सर्वाभयापवर्गस्य तव लब्धत्वादित्याह– वयत्विति । तु शब्दोऽन्य तो वैशिष्टय द्योतनाय । प्रियस्य सख्युरिति गुर्गेश्वरयोभवेश्वरयोश्च । भेदोपदेशोऽपीत्यमेव तैः शुद्धभक्तं मतम् । श्रीशिवशेषां वक्तृणां गुरुः ॥
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विशुद्ध भक्त गण श्रीशिव को एवं श्रीगुरुदेव को श्रीभगवान् के सहित प्रियतमत्व रूप में ही देखते हैं, उस का प्रमाण निबन्धन यह श्लोक उट्टङकित हुआ । अटभुज पुरुष को लक्ष्य करके प्रचेतागण कहे थे - हे प्रभो ! हम सब आप के प्रियसखा जो महादेव हैं, उनके क्षण काल सङ्ग प्रभाव से, जो भवरोग अत्यन्त दुश्चिकित्स्य है, उस संसार का साक्षात् भिषक् तम - अर्थात् सद् वेद्य स्वरूप आप को प्राप्त करने में सक्षम हुए हैं। यावत् काल पर्यन्त जीव, आप को प्राप्त नहीं करता है, तावत् काल पर्य्यन्त इस विषम संसार व्याधि से वह किसी भी उपाय से मुक्त नहीं हो सकता है, आप भी इस प्रकार सद् वैद्य हैं- आप का दर्शन मात्र से ही संसार व्याधि स्वयं हि निवृत्त हो जाती है। आप को भी अप्प के प्रिय जन सङ्ग व्यतीत किसी भी उपाय प्राप्त नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत श्लोक में “वयन्तु” ‘तु’ शब्द का प्रयोग होने के कारण, अन्य सब प्रकाश से वैशिष्टय प्रकाश हेतु श्लोकोक्त “प्रियस्य सख्युरिति” प्रिय सखा का, इस प्रकार प्रयोग किया गया है। शिव एवं भगवान् में, गुरु एवं भगवान् में यद्यपि अभेद मनन शास्त्र विहित है । तथापि, श्रीशिव एवं गुरुदेव को श्रीभगवान् के प्रिय मानना ही प्रसिद्ध शुद्ध भक्त वृन्द का अभिमत है। शिव, प्रचेता गण के गुरु हैं, इस श्लोक में उसका उल्लेख हुआ है। वह श्रीगुरु भी श्रीभगवान् के सखा हैं, इसका उल्लेख वक्ता प्रचेतागण की उक्ति में सुस्पष्ट रूप से हुआ है
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श्रीप्रचेतागण श्रीमदष्टभुज पुरुषो को कहे थे ॥ २१३॥
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उक्त रीति से भक्ति अङ्ग के प्रथम सोपान - भक्तयङ्ग में रुचि से आरम्भ करके श्रीगुरु- चरणाश्रय पय्यन्त उपासना के पूर्वाङ्ग रूप बहु प्रकार भगवत् साम्मुख्य भेद प्रदर्शित हुये हैं। सम्प्रति साक्षात् उपासनारूप साम्मुख्य के जो विविध भेद हैं, उस का प्रदर्शन किया जा रहा है। उस के मध्य में भगवत् साम्मुख्य, आपाततः द्विविध हैं, एक निर्विशेषमय द्वितीय सविशेषमय । उस के मध्य में अभेद
श्रीभक्ति सन्दर्भः
रूपञ्च । अथ ज्ञानस्य लक्षणम् (भा० ११।१६।२७) -
(२१४) “ज्ञानचैकात्म्य दर्शनम्” इति ।
अभेदोपासनं ज्ञानमित्यर्थः ॥ श्रीभगवान् ॥
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