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शुद्ध भक्त वृन्द किन्तु श्रीगुरु एवं श्रीशिव की श्रीभगवान् के सहित अभिन्नता को भगवत प्रियतम दृष्टि से मानते हैं । अर्थात् शस्त्र से श्रीगुरु देव के सहित श्रीभगवान् की जो अभिन्नता का वर्णन एवं श्रीशिव के सहित श्रीभगवान् की जो अभिन्नता वर्णित है, अर्थात् अभेद दृष्टि करने की जो विधि है-उस विषय में शुद्ध भक्त गण श्रीगुरु एवं श्रीशिव श्रीभगवान् के अत्यन्त प्रिय हैं, अतः अभेद भावना करते हैं । वस्तुत अभेद नहीं है । इस प्रकार भगवत् प्रियतम रूप से अभेद मान कर उपासना रत व्यक्ति अति विरल है, तज्जन्य ही मूल में ‘एके’ शब्द का प्रयोग किया गया है। श्रीधर स्वामिपाद ने भा०
१०.२।३६ “तत्रय्यम्बुजाक्षामलसत्त्वधाम्नि समाधिनावेशित चेत सैके ॥”
श्लोक की टीका मैं लिखा है- “एके मुख्या विवेकिनः ॥”
अतएव ज्ञातव्य यह है कि - तत्त्वतः श्रीगुरु एवं भगवान् अभिन्न होने पर भी सम्बन्ध में श्रीभगवान् एवं श्रीगुरु देव में सेव्य सेवक भाव है । श्रीभगवान् एवं श्रीगुरु देव में सेव्य सेवक भाव सम्बन्ध मानकर जो उपासना करते हैं, उन सब को शुद्ध भक्त कहते हैं, केवल तत्त्व दृष्टि से जो लोक अभेद भावना द्वारा उपासना करते हैं, उनके पक्ष में सम्बन्धानुगा रागानुभक्ति में यह अनुष्ठान सर्वथा प्रतिकूल पड़ता है । अतएव गुरु एवं भगवान् में शिव एवं भगवान् में अभेद दृष्टि करने के निमित्त यद्यपि शास्त्र का उपदेश है- तथापि श्रीगुरु एवं शिव को श्रीभगवान् के प्रिय बुद्धि से देखना एवं तदुचित पूजनादि सम्मान करना ही शुद्ध भक्त वृन्द का अभिमत है।
अर्थात् श्रीगुरुदेव तत्त्वत्तः श्रीभगवान् होने पर भी श्रीभगवत् प्रिय रूप में ही श्रीगुरुदेव एवं श्रीशिव शुद्ध भक्त गण के पक्ष में उपास्य हैं।
विशुद्ध भक्त गण, श्रीशिव को एवं श्रीगुरुदेव को श्रीभगवान् के सहित प्रियतमत्व रूप से ही जो अभेद दृष्टि से देखते हैं- इसका प्रमाण भा० ४।३०1३८ में लिखित है-
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चिनी ॥: सुदुश्चिकित्स्यस्य भवस्य मृत्यो, भिषक्तमं त्वाद्य गतिं गताः स्मः ॥ ६३० ॥
टीका च - " तव यः प्रियः सखा तस्य भवस्य, अत्यन्तमचिकित्स्यस्य भवस्य जन्मनो मृत्योश्च भिषक्तमं सद्वंद्य त्वां गति प्राप्ताः" इत्येषा । श्रीशिवो ह्येषां वक्तृणां गुरुः ॥ श्रीप्रचेतसः श्रीमदष्टभुजं पुरुषम् ॥