२११

३७२ २१२

ततः सुतरामेव परमार्थिभिस्तादृशे गुरावित्याह, (भा० ११५।२६-२७) — (२१२) " यस्य साक्षाद्भगवति ज्ञानदीपप्रदे गुरौ ।

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मर्त्यासद्धीः श्रुतं तस्य सर्वं कुञ्जरशौचवत् ॥ " ६२८ ॥

“एष वै भगवान् साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वरः । योगेश्वरैविमृग्याङ्घ्रिर्लोकोऽयं मन्यते नरम् ॥ " ६२६ ॥

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पिता प्रभृति के सहित तव तक ही गुर्वादि व्यवहार करना कर्त्तव्य है, जब तक संसार बन्धन मोचक श्रीगुरु चरण आश्रय नहीं होता है ।

श्री ऋषभदेव - निज पुत्र दृन्द को कहे थे । २१०॥

३७३ २११

अन्य प्रकार से अर्थात् निज उद्देश्य सिद्धि हेतु काम्य कर्म परायण व्यक्ति को निज

गुरु में भगवद् दृष्टि करना चाहिये। इस अभिप्राय को व्यक्त करते हुये भगवान् श्रीकृष्ण- उद्धव को भा० ११।१७७ २७ में कहे हैं-

Pag

(२११) “आचाय्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।

न म बुद्धयासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥” ६२७॥

मुझ को ही, आचार्य गुरु जानना चाहिये । कभी भी उनको अवमानन न करें। मनुष्य दृष्टि से उन के प्रति असया, अर्थात् दोषारोपण भी न करे। गुरु सर्व देवता स्वरूप हैं। अभिप्राय यह है कि-श्रीभगवान् जीव शिक्षा हेतु मनुष्याकार में मनुष्य समाज में अवस्थित होकर पारमार्थिक तत्त्वोपदेश प्रदान कर स्वयं आचरण करके आचरण शिक्षा प्रशन करते हैं । अतएव मनुष्यवत् दृष्ट होने पर भी मनुष्य बुद्धि से अवज्ञा करने से नरक पात अवश्यम्भावी है। यह श्लोक ब्रह्मचारि धर्मवर्णन प्रसङ्ग में उक्त होने के कारण, काम्य कर्म परायण व्यक्ति गण के पक्ष में पारमार्थिक तस्वोपदेष्टा श्रीगुरु चरण के भगवद् दृष्टि करना कर्त्तव्य है।

श्रीभगवान् कहे थे । २११ ॥

। २१२ । अतएव पारमार्थिक गुरु के प्रति भगवद् बुद्धि करना परम कर्तव्य है– भा० १।१५/२६-२७ में श्रीनारद युधिष्ठिर को कहे थे-

(२१२)

(२१२) ’ यस्य साक्षाद्भगवति ज्ञानदीपप्रदे गुरौ ।

मसद्धीः श्रुतं तस्य सर्वं कुञ्जरशौचवत् ॥ ६२८ ॥

“एष वै भगवान् साक्षात् प्रधान पुरुषेश्वरः योगेश्वरैविमृग्याङ्घ्रिलोंकोऽयं मन्यते नरम् ॥ ६२६॥

॥”

TR

टोका-ननु कथं गुरौ भक्तया सत्त्वस्य जयः स्यात्, तस्थापि मनुष्यत्वेन तदवस्थत्वात् । तत्राह यस्येति । मसद्धीः, मनुष्य इति दुर्बुद्धिः । तस्य शास्त्र श्रवणं कुञ्जर शौचवत् व्यर्थम् ॥२६॥ ननु गुरोः पितृ पुत्रादयस्ते तं नरमेव मन्यन्ते । अति आह । एष गुरुः साक्षात् भगवानेव भवेत्, लोकस्य नरोऽसावितिश्रीभक्ति सन्दर्भः

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एष श्रीकृष्णलक्षणोऽपि ततः प्राकृतदृष्टिर्न भगवत्तत्व ग्रहणे प्रमाणमिति भावः ॥ श्रीनारदो

युधिष्ठिरम् ॥

IS

। २१३ । शुद्धभक्तास्त्वेके श्रीगुरोः श्रीशिवस्य च श्रीभगवता सहाभेददृष्टि तत् प्रियतमत्वेनैव मन्यन्ते, यथा ( भा० ४ । ३० ३८) -

((२१३) “वयन्तु साक्षाद्भगवन् भवस्य, प्रियस्य सख्युः क्षणसङ्गमेन ।

PF

बुद्धि भ्रान्तिरित्यर्थः । यद्वा नहि तत् पुत्रादेर्मनुष्य बुद्ध्या प्रतीयमानोऽपि गुरुर्भगवान् न भवेत् । यथैव श्रीकृष्ण इत्यर्थः ॥२७॥

साक्षात् भगवान् ज्ञान दीपप्रद श्रीगुरुदेव में जिस की मनुष्य रूप दुर्बुद्धि है, उस के शास्त्र श्रवण प्रभृति अनुष्ठान हस्तिस्नान के समान व्यर्थ होते हैं । यह श्री गुरु देव साक्षात् भगवान् ही हैं । अर्थात् श्रीभगवान् ही श्रीगुरु रूप में आविर्भूत होकर जीव को श्रीभगवद् भजन तत्त्वोपदेश प्रदान करते हैं । उन श्रीगुरुदेव में मनुष्य बुद्धि - भ्रान्ति

मनुष्य बुद्धि-भ्रान्ति प्रसूत है । साक्षात् प्रकृति पुरुष नियन्ता श्रीभगवान् ही जीव वृन्द को शिक्षा प्रदान हेतु आविर्भूत होते हैं। योगेश्वरगण, जिन के चरणारविन्द का अन्वेषण करते रहते हैं । उन श्रीगुरु देव को मायामुग्ध मानव साधारण मनुष्य मानता है । इस से प्रतिपन्न हुआ है कि -सत् शिक्षा प्रदान करना श्रीभगवान का ही कार्य है अतः साक्षात भगवान् शिक्षावतार श्रीगुरु रूप में मनुष्य रूप में अवस्थान करते रहते हैं । अतएव भगवत्तत्त्व के प्रति प्राकृत दृष्टि करना कर्त्तव्य नहीं है ।

सत्

श्रीनारद युधिष्ठिर को कहे थे ॥ २१२ ।