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शिक्षागुरोरप्यावश्यकत्वम हुः (भा० १०८७ ३३)— (२०८) “विजितहृषीकवायुभिर दान्तमनस्तुरगं य इह यतन्ति यातुमतिलोलमुपायखिदः ।
व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं, वणिज इवाज सन्त्य कृतकर्णधरा जलधौ ॥ ६२३।
ये गुरोश्चरणं समवहायातिलोलुपमदान्तमदमितं मन एव तुरगं विजितैरिन्द्रियैः प्राणैश्व कृत्वा यन्तु भगवदन्तर्मुखीकर्त्ती प्रयतन्ते, ते उपाय खिदस्तेषु तेषूपायेषु खिद्यन्ते, अतो व्यसन- शतान्विता भवन्ति, अतएव इह संसारे तिष्ठन्त्येव । हे अज ! अकृतकर्णधरा अस्वीकृतनाविका जलधौ यथा तद्वत् । श्रीगुरुप्रदर्शित भगवद्भजनप्रकारेण भगवद्धर्मज्ञाने सति तत्कृपया व्यसनानभिभुतौ सत्यां शीघ्रमेव मनो निश्चलं भवतीति भावः । अतो ब्रह्मवैवर्त्ते-
“गुरुभक्त्या स मिलति स्मरणात् सेव्यते बुधैः । मिलितोऽति न लभ्यते जीवैर हमिकापरैः ॥ ६२४॥ श्रुतिश्च (श्व े० ६।२३)
आश्रय करे । श्रुति में और भी दृष्ट होता है । ’ : आचार्य्यवान् पुरुषोवेद” । जिस ने गुरु चरणाश्रय किया है, वही परम तत्त्व जानते हैं। श्रीगुरुचरणाश्रय न करने पर परतत्त्व का परिज्ञान नहीं होता है । कठोपनिषद् में लिखित है-
“नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ”
हे प्रिय ! यह पारमार्थिक मति को तर्क के द्वारा प्राप्त नहीं कर सकते । अन्य – अर्थात् श्रवण गुरु के मुख से श्रवण करके ही सुन्दर ज्ञान लाभ किया जा सकता है। श्रीभगवान् कहे थे ॥ २०८ ॥
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शिक्षा गुरु का आश्रय ग्रहण करना अत्यावश्यक है । भा० १० ८७३३ में श्रुतियों का कथन यह है - (२०६) “विजित हृषीक वायुभिरदान्तमनस्तुरगं य इह यतन्ति यन्तुम तिलोलमुपायखिदः ।
से
दुःखमय
व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं, वणिज इवाज सन्त्य कृतकर्णधरा जलधौ । ” ६२३। जो, श्रीगुरु चरण आश्रय ग्रहण न करके निज साधन रूप पुरुष कार के द्वारा अति लोलुप, अदान्त (अदमित) मनोरूप अश्वको विजित–इन्द्रिय एवं प्राण वायु द्वारा संयत करने में अर्थात् अन्तर्मुख करने में प्रयत्नवा : होते हैं । वे उपायों को अवलम्बन कर खेद प्राप्त करते हैं, अतएव उन सब का जीवन होता है । वे इस संसार में रह जाते हैं । कारण, मन को भगवदुन्मुख करने में अक्षम होने से संसार बन्धन मुक्त होना भी असम्भव होता है । हे अज ! कर्णधार विहीन तरी समूद्र में अवस्थित होने पर जिस प्रकार अवस्था प्राप्त होती है । श्रीगुरु चरण आश्रय विहीन साधक भी संसार सागर में निपतित होकर उस प्रकार विषय अवस्था को प्राप्त करता है। श्रीगुरु च ण द्वारा प्रदर्शित भगवद् भजन प्रकार से भगवद् धर्म ज्ञान होने पर भगवत् कृपा से दुःख समूह से अभिभूत न होकर आशु मनको संयत कर सकता है। अर्थात् गुरु– चरणाश्रय से शीघ्र मन निश्चल होता है। श्रुति कृत स्त्रोत्र का यही सारार्थ है । अतएव ब्रह्म वैवर्त में लिखित है-
“गुरुभक्तचा स मिलति स्मरणात् सेव्यते बुधैः । मिलितोऽपि न लभ्यते जीवं रहमिकापरैः ॥ ६२४॥
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गुरु भक्ति द्वारा श्रीभगवान् की कथा का स्मरण होता है, एवं स्मरण से भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है । विज्ञव्यक्तिगण श्रीगुरु चरण की ही सेवा करते रहते हैं। “मैं उत्तम जानता हूँ” इस प्रकार
भीभक्तिसन्दर्भः
“यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
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तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥” ६२५॥ इति । श्रुतयः ।