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मन्त्रगुरु स्त्वेक एवेत्याह, (भा० ११।३।४८)

(२०७) लब्धानुग्रह आचार्य्यात्तेन सन्दशितागमः ।

महातुरुषमभ्यर्चेन्मूर्थ्याभिमत्यात्मनः ॥ ६१६ ॥

अनुग्रहो मन्त्रदीक्षारूपः, आगमो मन्त्रविधिशास्त्रम्, अस्यैकत्वमेकवचनेन बोध्यते । “बोधः कलुषितस्तेन दौरात्म्यं प्रकटीकृतम् । गुरुर्येन परित्यक्तस्तेन त्यक्तः पुरा हरिः ॥ " ६२० ॥

शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयन् ॥”

इस प्रकार लक्षण सम्पन्न शिक्षा गुरु के निकट से भागवत धर्म शिक्षा करे । शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता का वर्णन करते हैं । श्रीगुरु ही एकमात्र प्रिय एवं परमाराध्य हैं, इस प्रकार बुद्धि सम्पन्न होकर निष्कपट भाव से श्रीगुरु सेवा करतः भागवत धर्म शिक्षा करे। जिस से श्रीभगवान् सन्तुष्ट होकर आत्मदान पर्य्यन्त करते हैं । अर्थात् उस भागवत धर्म की ही शिक्षा करे, जिस से अन्तर में एवं बाहर श्रीहरि की स्फूत्ति होती है ।

गुरु ही आत्मा–जीवन है जिस का - इस प्रकार बुद्धि सम्पन्न होकर एवं दैवत - निज इष्ट देव रूप में गुरु को अङ्गीकार करके ही धर्म शिक्षा करे । तथा अमायया - दम्भ शू य होकर अर्थात् शरीर सम्बन्ध में अहं बुद्धि हीन होकर एवं अनुवृत्त्या - श्रीगुरुदेव के अनुगत्य से ही शिक्षा ग्रहण करे। जिस भागवत धर्माचरण से आत्मा, परमात्मा भक्त को आत्मदान करते हैं, जैसे श्रीबलि प्रभृति को आत्मदान किये थे । इस प्रकार गुरु का अनेकत्व को पूर्व प्रकरण के समान ही जानना होगा ।

श्रीप्रबुद्ध निमिमहाराज को कहे थे ॥ २०६ ॥

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किन्तु मन्त्र प्रदाता गुरु एक ही होते हैं-मन्त्र गुरु का बहुत्व विधान नहीं है । अर्थात् मन्त्र गुरु अनेक नहीं होते हैं। एक ही होते हैं । भा० ११।३।४८ में उक्त है-

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(२०७ ) " लब्धानुग्रह आचार्य्यात्तेन सम्दशितागमः ।

महापुरुषमभ्यर्चे मूर्त्याभिमतयात्मनः ॥ ६१९ /

टीका - तमेव विधिमाह - लब्धानुग्रह इत्यादिना । तेन आचार्येण सन्दर्शितः, आगमोऽर्च्चन प्रकारो यस्य सः ॥”

श्रीगुरु देव के निकट से मन्त्र दीक्षा रूप अनुग्रह प्राप्तकर गुरुदेव कर्तृक प्रदर्शित आगमविधि शास्त्र के अनुसार अर्थात् जिस मन्त्र से जो दीक्षित है, उस मन्त्र में जिस प्रकार अर्चन विधि शास्त्र में वर्णित है, उस विधि के अनुसार अनन्त भगवदाविर्भाव के मध्य में जो अवतार स धक का अभिमत है, उस मूर्ति द्वारा श्रीभगवान् का अर्चन करे । यहाँ ‘आचार्य्यात्’ एक वचन प्रयोग होने के कारण मन्त्र गुरु का एकत्व विहित हुआ हैं । अनुग्रह शब्द से - मन्त्रदीक्षा को जानना होगा, आगम - शब्द से मन्त्र विधि शास्त्र को जानना होगा । तज्जन्य ब्रह्मवैवर्त प्रभृति में वर्णित है ।

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इति ब्रह्मवैवर्त्तादौ तत्तयागनिषेधात् । तदपरितोषेणैवान्यो गुरुः क्रियते । । ततोऽनेकगुरु- करणे पूर्वत्याग एव सिद्धिः । एतच्चापवादवचनद्वारापि श्रीनारदपञ्चरात्र

े बोधितम्, - “अवैष्णवोपदिष्टेन मन्त्रेण निरयं ब्रजेत् । पुनश्च विधिना सम्यग् ग्राहयेद् वैष्णवाद्गुरोः ॥ ६२१॥ इति । श्रीमदाविर्होत्रो निमिम् ॥