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अथ श्रवणगुरु भजन शिक्षागुर्वोः प्रायिकमेकत्वमिति तथैवाह, (भा० ११।३।२२)

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॥ (२०६ ) " तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद्गु र्वात्मदैवतः ।

अमाययानुवृत्त्या यैस्तुष्येदात्मात्मदो हरिः ॥ " ६१८ ॥

(२०५) " यत्पादसेवाभिरुचिस्तपस्विनामशेषजन्मोपचितं मलं धियः ।

सद्यः क्षिणोत्यन्वहमेधती सती, यथा पदाङ्गुष्ठविनिःसृता सरित् ॥ ६१६॥ विनिधू ताशेषमनोमलः पुमा–, नसङ्गविज्ञानविशेषवीर्थ्यवान्

यदङ्घ्रिमूले कृतकेतनः पुनः, र्न संसृति क्लेशवहां प्रपद्यते ॥ ६१७॥

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श्रीपृथुमहाराज सम्यवर्ग को कहे थे जिन की सेवा करने को अभिरुचि, - संसार तापतप्त तपस्वि गण के अशेष जन्म साधित चित्त मालिन्य को सद्यो विनष्ट कर देती है । श्रीहरि चरण के सहित मानस सम्बन्ध स्थापन की ही यह महिमा है । अनन्तर प्रतिदिन वह अभिरुचि - क्रमश, वद्धिता होकर श्रीहरिचरण निःसृता श्रीगङ्गा जिस प्रकार समस्त पापों को विनष्ट कर देती है–उस प्रकार चित्त के अशेष मालिन्य विदूरित कर देती है । चित्त के अशेष मालिन्य विदूरित करके अन्यत्र अनासक्ति रूप वैराग्य, अनुभव, एवं अनन्त भगवदाविर्भाव के मध्य में किसी एक भगवत् स्वरूप के सहित साक्षात् कार कराती है । श्रीहरि चरणों का आश्रय ग्रहण करने पर पुनर्वार दुःख मयी संसार दशा प्राप्त नहीं होती है । अर्थात् जन्म मरण प्रभृति दुःख राशि से निम्मु क्त आश्रय ग्रहण कारी होता है। विचार प्रधान साधक, आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति एवं परमानन्द प्राप्ति रूप पुरुषार्थ के प्रति दृष्टि देकर ही भजन में श्रद्धालु होता है । किन्तु रुचि प्रधान भक्ति साधक की प्रवृत्ति, फलोन्मुखी नहीं होती है, रुचि प्रेरित होकर ही भगवत् प्रीति हेतु भजन में श्रद्धालु होती है। विचार प्रधान साधक एवं रुचि प्रधान भक्ति साधक के मध्य में यह भेद है ।

श्रीपृथुराज - सभ्यवृन्द को कहे थे ॥२०५॥

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अनन्तर श्रवण गुरु एवं भजन शिक्षा गुरु का प्रायशः एकत्व ही दृष्ट होता है । अर्थात् जो श्रवण गुरु हैं, वही भजन शिक्षा गुरु होते हैं, इस उद्देश्य से भा० ११।२।२२ में कथित है-

(२०६ ) " तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदेवतः ।

अमाययानुवृत्त्या यैस्तुष्येवात्मात्मदो हरिः ॥ " ६१८ ॥

टीका- गुरुरेवात्मा दैवतश्च यस्य सः अनुवृत्त्या सेवया । ये धम्मैः । वस्तुत आत्मा आत्मप्रदश्वोपासकानाम् । यथा बलि प्रभृतीनाम् ।

भा० ११।३।२१ में उक्त है - " तस्माद् गुरु प्रपद्य ेत जिज्ञासुः श्रेयः उत्तमम् ।

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(भा० ११।३।२१) “तस्माद्गुरु ं प्रपद्येत" इति पूर्वोक्तस्तत्र श्रवणगुरौ गुरुरेवात्मा जीवनं दैवतं निजेष्टदेवततयाभिमतश्च यस्य तथाभूतः सन् । अमायया निर्दम्भया, अनुवृत्त्या तदनुगत्या शिक्षेत् । येर्धरात्मा परमात्मा, भक्तेभ्य आत्मप्रदः श्रीबलिप्रभृतिभ्य इव । अस्य शिक्षा- गुरोर्बहुत्वमपि प्राग्वज्ज्ञेयम् ॥ श्रीप्रबुद्धो निमिम् ॥