२०४

३५८ २०४

तत्र रुचिप्रधानानां श्रवणादिकम् (भा० १५२६)-

“तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायता–, मनुग्रहेणाशृणवं मनोहराः ।

ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विशृण्वतः, प्रियश्रवस्यङ्ग ममाभवद्रतिः ॥ " ६१० ॥ इत्याद्युक्तप्रकारम् । विचारप्रधानानां श्रवणं यथा चतुःश्लोक्यादीनाम् । मननं यथा (भा० २।२।३४) - “भगवान् ब्रह्म कार्तुं स्न्येन” इत्यादौ । अथ तज्जाता श्रीभगवति श्रद्धा यथा (भा० ४।२१।१७ - ३०)

(२०४) “अस्ति यज्ञपतिर्नाम केषाञ्चिदर्हसत्तमाः ।

इहामुत्र च लक्ष्यन्ते ज्यो, स्नावत्यः क्वचिद्भुवः ॥ ६११॥ मनोरुत्तानपादस्य ध्रुवस्यापि महीपतेः ।

प्रियव्रतस्य राजर्षेरङ्गस्यास्मत्पितुः पितुः ॥ ६१२॥

समझाने के निमित्त ऋषि वृन्द भिन्न भिन्न प्रकार की युक्ति की अवतारणा किये हैं ।

श्रीदत्तात्रेय यदु को कहे थे । २०३ ॥

३५९ २०४

उस के मध्य में रुचि प्रधान भक्ति साधक वृन्द के श्रवणादि का वर्णन भा० १।५।२६ में

श्रीदेवर्षि नारद ने किया है-

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“तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायता, – मनुग्रहेणाशृणवं मनोहराः ।

ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विशृण्वतः, – प्रियश्रवस्यङ्ग ममाभवद्रतः ॥ ६१०॥ टीका - अश्रृणवं श्रुतवानस्मि । मे श्रद्धया ममेव स्वतः सिद्धया नत्वनेन बलाज्जनितया, अतो ममेत्यस्यापौनरुक्तद्यम्, अनुपदं प्रतिपदम् । प्रियं श्रवो यशो यस्य तस्मिन् ।

मैं ऋषि वृन्द के आश्रम में रहकर उनके अनुग्रह से प्रतिदिन मुनिगण जो मनोहर श्रीकृष्ण कथा कीर्तन करते थे, उसका श्रवण करता था । श्रद्धा पूर्वक वर्णित श्रीकृष्ण कथा का प्रत्येक अक्षर मनोयोग के सहित श्रवण करते करते प्रियश्रवा श्रीहरि में मेरी प्रीति हुई । उस प्रकार श्रवण ही रुचि प्रधान साधन वृन्द का अनुकूल है। विचार प्रधान साधक वृन्द का अनुकूल चतुः श्लोकी प्रभृति तत्त्व विचार पर अंशी ही है। उनके पक्ष में मनन प्रकार भा० २ २१३४ में उक्त है -

“भगवान् ब्रह्म का स्त्येन त्रिरन्वीक्षमनीषया ॥”

तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥ "

इस प्रकार मनन हो उनका अनुकूल है । अर्थात् भगवान् ब्रह्मा निर्विकार चित्त से सम्पूर्ण वेद का अनुशीलन निज प्रज्ञाबल से तीनवार करके सार समझे थे कि - वेद का मुख्य उपदेश वह है-जिस से श्रीहरि में प्रोति का उदय हो, अर्थात् ब्रह्मा-समस्त वेदों का मुख्य उपदेश यह है जिस प्रकार साधन करने से श्रीहरि में प्रीति का उदय हो, उस साधन का अनुष्ठान करना ही कर्त्तव्य है । यह समझे थे । अनन्तर तज्जातीय विचार द्वारा श्रीभगवान् में जिस प्रकार श्रद्धा का उदय होता है-उस का विवरण श्रीपृथु- महाराज की उक्ति में सुस्पष्ट रूप से वर्णित है । भा० ४२११२७-३०

२०४) “अस्ति यज्ञपतिर्नाम केषाञ्चिदसत्तमाः ।

इहामुत्र च लक्ष्यन्ते ज्योत्स्नावत्यः क्वचिद्भुवः ॥ ६११॥

EN

[[४३१]]

ईदृशानामथान्येषामजस्य च भवस्य च । प्रह्लादस्य बलेश्चापि कृत्यमस्ति गदाभृता ॥ ६१३॥

दौहित्र्यादीनृते मृत्योः शोच्यान् धर्मविमोहितान् । वर्गस्वर्गापवर्गाणां प्रायेणैकालय हेतुना ॥ ६१४॥

हे अर्हतत्तमाः ! यज्ञपतिर्नाम सर्वकर्मफलदातृत्वेन श्रुतिप्रतिपादितः परमेश्वरः केषाश्चित् श्रुत्यर्थतत्वज्ञानां मते तावदस्ति, तथापि विप्रतिपत्तेर्न तत् सिद्धिरित्याशङ्कय तत्र जगद्वं चित्र्यान्यथानुपपत्ति प्रमाणमप्युपोद्वलकमित्याह–इह प्रत्यक्षेणामुत्र शास्त्रेण तद्वदित्यनुमानेन च ज्योत्स्नावत्यः कान्तिमत्यो भुवो भोगभूमयो देहाश्च ववचिदेवोपलभ्यन्ते न सर्वत्रेति । अयं भावः, -न वा जड़स्य तत् कर्मणस्तत्तत् फलदातृत्वं घटते, (ब्र० सू० ३।२।३८) “फलमत उपपत्तेः” इति न्यायात् । न चार्वाग्देवतानां स्वातन्त्र्यम्, अन्तर्यामिश्रुतेः । न च कर्मसाम्ये फलतारतम्यं ववचिन्ञ्च तदसिद्धिः सम्भवति । अतः स्वतःत्र ेण परमेश्वरेण भाव्यम् ।

मनोरुतानपादस्य ध्रुवस्यापि महीपतेः ।

प्रियव्रतस्य राजर्षेरङ्गस्यास्मत् पितुः पितुः ॥ ६१२॥ ईदृशानामथान्येषामजस्य च भवस्य च ।

प्रह्लादस्य बलेश्चापि कृत्यमस्ति गदाभृता ॥६१३॥

दौहित्र्य दीनृते मृत्योः शोच्यान् धर्मविमोहितान् । वर्गस्वर्गापवर्गाणां प्र येणंकात्म्य हेतुना । ६४॥

पृथुमहाराज प्रजावर्ग को कहे थे । अर्हत्तमवृन्द ! अर्थात् पूजनीयतम वृन्द ! कतिपय विज्ञवृन्द के मत में श्रुति तात्पर्य प्रति पादित रूप में सर्व कर्म फल दाता यज्ञपति नामक परमेश्वर हैं । उन परमेश्वर के अस्तित्व सम्बन्ध में मुनिगण के मध्य में मत भेद विद्यमान हेतु परमेश्वर का अस्तित्व सिद्ध होना असम्भव है । इस प्रकार आशङ्का करके कहते हैं-ईश्वर की सत्ता न होने से जगत् की विचित्रता का सम्भव नहीं होता तज्जन्य अर्थापत्ति प्रमाण से ईश्वर का अस्तित्व सप्रमाणित करने के निमित्त कहते हैं- इस जगत् में प्रत्यक्षसिद्ध एवं शास्त्रीय प्रमाण द्वारा एवं अनुमान द्वारा ज्ञात होता है कि- इस जगत् के समान परलोक में भी ज्योत्स्नावती अर्थात् कान्तिमती भोगभूमि एवं देह है। किन्तु वह सर्वत्र दृष्ट एवं श्रुत नहीं है । जगत् की विचित्रता का सम्पादन करने में, न करने में, अन्यथा करने में समर्थ रूपी ईश्वर व्यतीत अपर के द्वारा होना असम्भव है । अर्थात् ईश्वर शक्ति भिन्न विचित्रता स्वयं सिद्ध नहीं हो सकती । कहने का अभिप्राय यह है कि जड़, जड़ीय कर्मानुष्ठान का अनुरूप फल प्रदान करने में सक्षम नहीं है । अतएव ब्रह्म सूत्र के ३।२।३६ में उक्त है “फलमत उपपत्तेः” परमेश्वर सेही फल प्राप्ति सम्भव है । आधुनिक देव वृन्द का किसी प्रकार स्वातन्त्र्य नहीं है । कारण, अन्तर्य्यामी की प्रेरणा से ही वे कर्मक्षम हैं, कर्मगत साम्य विद्यमान होने पर फलगत तारतम्य होना सम्भव नहीं है । देखने में आता है, कर्म किया गया है, किन्तु फललाभ में वञ्चित होना पड़ता है। अतएव परमस्वतन्त्र परमेश्वर विद्यमान हैं ।

सूत्रस्थ श्रीभागवत भाष्य - “अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।६-३०

तीव्र ेण भक्ति योगेन यजेत पुरुषं परम् ॥ भा० २।३।१०

[[४३२]]

अत्र विद्वदनुभवोऽपि प्रमाणमित्याह-मनोरिति त्रिभिः । अस्मत्पितुः पितुः पितामहस्याङ्गस्य प्रह्लाद-बली तदानीं शास्त्रादेव ज्ञात्वा गणितौ । गदाभृता परमेश्वरेण कृत्यमस्ति, हृदये वहिरपि आविभूय तेषां मुहुः कृत्यसम्पादनाशेन यत् कृत्य करणीयं तत् तेषामस्तीत्यर्थः । तेषामेव तेन सह कृत्यमस्ति नान्येषामित्यर्थो वा । तदन्यांस्तु निन्दितत्वेनाह- मृत्योर्दौहित्यादीन् वेणप्रभृतीन् धर्मविमोहितान् । गदाभृच्छब्देन तनाम्ना प्रसिद्धात् श्रीविष्णोरन्यत्र परमेश्वरत्वं वारयति श्रुतियुक्तिविद्वदनुभवेषु । तं गदाभृतं विशिनष्टि- वर्गेति । वर्गोsa त्रिवर्गः, स्वर्गो धर्मस्य फलम, अपवर्गो मोक्षः, तेषामेकात्म्येनैकरूप्येण सर्वान्तर्गतेन हेतुना, तत्रापि प्रायेण प्रचुरेण हेतुना । तदुक्तं स्कान्दे

“बन्धको भवपाशेन भवपाशाच्च मोचकः । कैवत्यः परं ब्रह्म विष्णुरेव सनातनः । " ६१५॥ इति ।

( २०५ । अथ भजनश्रद्धा यथा ( गा० ४२११३१-३२)

(२०५) यत्पादसेवाभिरुचिस्तपस्विना, मशेषजन्मोपचितं मलं धियः ।

तपस्विनो दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मन्त्रविदः सुमङ्गलाः ।

क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं तस्मै सुभद्र श्रवसे नमोनमः ॥ भा० १।४।१७ यहाँपर विद्वदनुभव को प्रमाण रूप में कहते हैं ।

स्वायम्भुव मनु उनके पुत्र, उत्तान पाद तत् पुत्र -ध्रुव, राजर्षि प्रियव्रत, मेरा पितामह - अङ्ग एवं इस प्रकार अन्यान्य महानुभव वृन्द के सम्बन्ध में एवं ब्रह्मा शङ्कर, प्रह्लाद, बलि के सम्बन्ध में गदाधर श्रीहरि के अनेक कृत्य हैं। अर्थात् उन के हृदय में एवं बाहर आविर्भूत होकर पुनः पुनः उनके प्रयोजनीय कृत्य सम्पादन किये हैं । उन सब महानुभव वृन्द की प्रयोजन सिद्धि के निमित्त जिस प्रकार परमेश्वर भगवान् के कृत्य हैं, उस प्रकार श्रीभगवान् के सम्बन्ध में उक्त महानुभव वृन्द के भी अनेक कृत्य हैं किन्तु दूसरे के सम्बन्ध में इस प्रकार नहीं है । इस प्रकार अर्थ भी किया जा सकता है । यहाँपर बलि एवं प्रह्लाद का जो उल्लेख किया गया है, यद्यपि वे दोनों स्वयम्भुव मन्वन्तर में नहीं थे, किन्तु षष्ठ चाक्षुष मन्वन्तर में आविभूत हुए थे। तब जो पृथमहाराज ने उन दोनों का उल्लेख किया है - वह शास्त्र श्रवण करके ही किया है । अन्यान्य मृत्यु के दौहित्र धर्मविमोहित वेणराज प्रभृति का उल्लेख निन्दित रूप में किया है, अतः वे शोकार्ह हैं, अर्थात् जो ईश्वर का अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं, उन सब के समान हत भाग्य जन निकर के निमित्त महानुभव वृन्द अत्यन्त शोक करते हैं । मदाधर शब्दोल्लेख के द्वारा सूचित किया गया है कि गदाधर श्रीविष्णु व्यतीत उस नाम से प्रसिद्ध व्यक्तियों में परमेश्वरत्व नहीं है. यह श्रुति युक्ति एवं महानुभव वृन्व के अनुभव सिद्ध है । श्रीगदाधर का विशेष रूप से परिचय प्रदान करते हुये कहते हैं-काम, मोक्ष, धर्मफल, स्वर्ग, ज्ञान साध्य मोक्ष, इन सब के फल प्रदाता एवं सर्वान्तर्गत हेतु रूप में जिन का वृत्तान्त प्रचुर रूप से शास्त्र में वर्णित है । स्कन्द पुराण में उक्त है-

“बन्धको भवपाशेन भवपाशाच्च मोचकः । कैवल्यदः परं ब्रह्म विष्णुरेव सनातनः ॥ " ६१५ ॥

भव पाश से बन्धन करने में समक्ष, एवं भवपाश से मुक्त करने में समर्थ, तथा कैवल्य प्रदान करने

में एक मात्र समर्थ - परम ब्रह्म सनातन श्रीविष्णु ही हैं ॥ २०४॥