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अत्र ब्रह्मवैवर्त्ते विशेषः-
एक
क
“वक्ता सरागो नीरागो द्विविधः परिकीर्तितः । सरागो लोलुपः कामी तदृत्त
ं हृन्न संस्पृशेत् ॥६०५॥ उपदेशं करोत्येव न परीक्षां करोति च । अपरीक्ष्योपदिष्ट’ यत् लोकनाशाय तद्भवेत् । “६०६॥
पद्धति के मध्य में भक्ति साधक भक्त की जो पद्धति अभिमत होगी. वह भक्त उस भजन पद्धति के अनुसार ही मेरी उपासना करे। यह पद्धति श्रीभगवदभिप्रेत है । अनन्तर श्रवण गुरु का लक्षण कहते हैं- ( भा० ११।२।२१)
(१०२) " तस्माद्गुरुं प्रपद्य ेत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥ " ६०३ ॥
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जो, शब्द ब्रह्म वेदादि शास्त्र तात्पर्य्यं विचार विषय में अनुरूप निष्ठा प्राप्त हैं, एवं व्याख्या युक्ति में भी सुनिपुण हैं, अथच सर्व प्रकार अपेक्षा शून्य हैं, एवं अपरोक्षानुभवसम्पन्न हैं, तथा उपासना रत भी हैं, उन को, सम्बन्ध, साध्य, एवं साधन तत्त्व जानने के निमित्त श्रवण गुरु रूप में वरण करना कर्त्तव्य है । शब्द ब्रह्म में निष्णात शब्द का अर्थ है वेद शास्त्र का तात्पर्य्यं निर्णय में निष्णात, परे ब्रह्मणि निष्णात– शब्द का अर्थ है - भगवदादि रूपाविर्भाव विषय में सम्यक् ज्ञानवान् होना, एवं अपरोक्षानुभव सम्पन्न होना आवश्यक है, उस प्रकार ही उपासना में निष्ठा प्राप्त करना भी आवश्यक है। जिस प्रकार पुरञ्जनोपाख्यान के उपसंहार में देवष श्रीनारद ने (भा० ४।२६।५१) में कहा है-
" स वै प्रियतमश्चात्मा यतो न भयमण्वपि । इति वेद स व विद्वान् यो विद्वान् स गुरुर्हरिः ॥ ६०४ ॥
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टीका- न च तद् भजने ऽन्यभजन इव दुःखंभयञ्चेत्याह स इति । इति यो वेद स एव विद्वान, स गुरुः, स एव हरिश्च ॥
वह आत्मा ही प्रियतम है, जिस के ज्ञान से किसी प्रकार विन्दुमात्र भी भय की सम्भावना नहीं है, इस प्रकार तत्व ज्ञान जिस के हृदय में यथायथ रूप से उदित हुआ है, वही विद्वान् है, वही गुरु वही श्रीहरि हैं ।
श्रीप्रबुद्ध निमिमहाराज को कहे थे ॥ २०२ ॥
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इस विषय का ब्रह्म वैवर्त पुराण में विशद वर्णन है—
“वक्ता सरागो नीरागो द्विविधः परिकीत्तितः ।
सरागो लोलुपः कामी तदुक्तं हृन्न संस्पृशेत् ॥ ६०५॥
किश्च, -
[[४२६]]
“कुलं शीलमथाचारम विचार्य्यं गुरु गुरुम् । भजेत श्रवणाद्यथीं सरसं सार - सागरम् ॥ " ६०७ ॥
सरसत्वादिकं व्यञ्जितं तत्र वान्यत्र-
“कामक्रोधादियुक्तोऽपि कृपणोऽपि विषादवान् । श्रुत्वा विकाशमायाति स वक्ता परमो गुरुः ॥ ६०८
(C) 151F (TV) एवम्भूतगुरोरभावाद्युक्तिभेदबुभुत्सया बहून प्याश्रयन्ते केचित्, यथा ( भा० ११०६।३१)
(२०३) “न ह्य कस्माद्गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात् सुपुष्कलम्
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ब्रह्म तदद्वितीयं वं गीयते बहुधषभिः ॥ " ६०६ ॥
स्पष्टम् ॥ श्रीदत्तात्र यो दु
उपदेशं करोत्येव न परीक्षां करोति च ।
अपरोक्ष्योपदिष्टं यत् लोकनाशाय तद्भवेत् ॥ ६०६॥
वक्ता सराग एवं नीरोग भेद से द्विविध हैं, तन्मध्ये लोलुप, कामी, वक्ता सराग है, उस के द्वारा उपदिष्ट विषय, श्रोताका हृदय स्पर्शी नहीं होता है। जो केवल उपदेश ही करता है, किन्तु उस का उपदिष्ट विषय को शिष्य ग्रहण कर रहा है वा नहीं. इस की परीक्षा नहीं करता है, परीक्षा न करके केवल उपदेश करने पर वह उपदेश लोक नाश का हेतु बन जाता है ।
अनन्तर नीराग वत्ता का वर्णन करते हैं-नीराग वक्ता को सरस एवं सार ग्राही होना आवश्यक है। नीराग वक्ता के कुल, शील, एवं आचरण विषय में विचार न करके श्रवणार्थी होकर उन को गुरु रूप में वरण करे ।
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“कुलं शीलमथाचारमविचार्य्यं गुरु ं गुरुम् । भजेत श्रवणाद्यर्थी सरसं सार–सागरम् ॥ ६०७॥
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अन्यस्थल में लिखित है-
“कामक्रोधादियुक्तोऽपि कृपणोऽपि विषादवान् ।
श्रुत्वा विकाशमायाति स वक्ता परमो गुरुः ॥” ६०८ ॥ इति ।
में उल्लास
जिस वक्ता का उपदेश श्रवण कर काम क्रोधादि युक्त, कृपण एवं विपन्न व्यक्ति भी हृदय को प्राप्त करता है, वह वक्ता हो श्रेष्ठ गुरु होने का उपयुक्त है । एतादृश लक्षण सद् गुरु का अभाव होने पर युक्ति एवं व्याख्या प्रभृति जानने के निमित्त कतिपय व्यक्ति अनेक गुरु करन करते हैं । यहाँपर गुरु शब्द से श्रवण गुरु को जानना होगा । कारण, भजन दीक्षा गुरु का बहुत्व अभीष्ट साधक नहीं होता है । भा० ११६ ३१ में उक्त है-
(२०३)
“न ह्य ेकस्माद्गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात् सुपुष्कलम् । ब्रह्म तदद्वितीयं वै गीयते बहुधषिभिः ॥ ६०६॥
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टीका - ननु कि बहुभिर्गुरुभिः ? नहि श्वेतकेतु भृगु प्रमुखैर्बहवो गुरव आश्रितास्तत्राहन - ह्य कस्मादिति । बहुधा सप्रञ्च निष्प्रपञ्च यदादिभिः । अथं भावः । नैते परमार्थोपदेश का गुरवः, किन्तु अन्वय व्यतिरेकाभ्या- मात्मन्यसम्भावनादि मात्र निवर्त्तकास्तेषां बहुत्व युक्त मेवेति । ज्ञान प्रदं गुरुमेकमेव वक्ष्यति मदभिक्षं गुरु शान्तमुपासीतेति । उक्तञ्च तस्माद् गुरुं प्रपद्येन जिज्ञासुः श्रेय उत्तममिति ।
एक गुरु से पारमार्थिक ज्ञान सुस्थिर एवं पूर्ण नहीं होता है। कारण, एक ही अद्वितीय ब्रह्म को
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