२०२

३५५ २०२

पूर्व प्रकरण में इन सब का वर्णन वैष्णव साधु महत् रूप में एवं साधु मात्र रूप में भेद करके किया गया है। उस के मध्य में साधु मात्र भेद तार तम्य का वर्णन यहाँ पर नहीं हुआ है । उसका वर्णन भक्तिभेद निरुपण नामक अग्रिम ग्रन्थ में विस्तृत रूप से होगा । किन्तु अपर जिन को वैष्णव शब्द से

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पेक्षया वैष्णवाः । तत्र कमिषु तदपेक्षया, यथा स्कान्दे मार्कण्डेयभगीरथसंवादे- “धर्मार्थं जीवितं येषां सन्तान थंच मैथुनम् । पचनं विप्रसुखार्थं ज्ञयास्ते वैष्णवा नराः ॥ ” ५६५॥ इति ।

तत्र श्रीविष्ण्वाज्ञाबुद्धेव तत्तत् क्रियत इति वैष्णव- पदेन गग्यते । श्रीविष्णुपुराणे च

(भा० ३।ः १२०)-

P

“न चलति निजवर्णधर्म्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे । फोन हरति न च हन्ति किञ्चिदुच्चैः, स्थिनमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम् ॥ ५६६ ॥ इति

॥ । तदर्पणे तु सुतरामेव वैष्णवत्वम् । यथा पाद्म े पाताल - खण्डे वैशाख माहात्म्ये-

“जीवितं यस्य धर्मार्थे धर्मो हर्य्यर्थ एव च । अगेरात्राणि पुण्यार्थं तं मन्ये वैष्णवं जनम् ॥” ५६७॥ तथैव शैवेषु तदपेक्षया, यथा बृहन्नारदीये-

अभिहित किया गया है, - अर्थात् श्रीविष्णु मन्त्र में दीक्षित नहीं हैं, किन्तु श्रीशिवमन्त्र में दीक्षित हैं, अथच उनको वैष्णव शब्द से निर्देश किया गया है, उस प्रकार कथन निज गोष्ठी को अपेक्षा से ही हुआ है । अर्थात् शैव, शाक्त, सम्प्रदाय में वैष्णव भावापन्न साधक को वैष्णव शब्द से उल्लेख किया गया है। उस में भी काम्य कर्म परायण व्यक्ति वृन्द के मध्य में कर्मानुष्ठान की सात्विकता को देखकर स्कन्द पुराण के मार्कण्डेय भगीरथ संवाद में जिस प्रकार उल्लेख है-

“धर्मार्थं जीवितं येषां सन्तानार्थश्च मैथुनम् । पचनं विप्रसुख थं ज्ञेयास्ते वैष्णवा नराः ॥ “५६५ ।

[[1]]

जो धर्म्माचरण हेतु जीवन धारण करते हैं, सन्तानार्थ ही मैथुन करते हैं, एवं उत्तम ब्राह्मण के निमित्त ही पाक करते हैं । उन सब मनुष्य को वैष्णव जानना चाहिये । स्कन्द पुराण में -श्रीविष्णु की आज्ञा बुद्धि से जो पूर्वोक्त क्रिया समूह निष्पन्न करते रहते हैं, उन को वैष्णव कहा गया है । किन्तु उस प्रकार श्रीविष्णु आज्ञा बुद्धि शून्य होकर पूर्वोक्त क्रिया समूह को निष्पन्न करने पर वे वैष्णव नाम से अभिहित नहीं होंगे । अर्थात् श्रीविष्णु अनुसन्धान होन किया अनुष्ठान के द्वारा विष्णु वहिर्मुखता दोष निबन्धन अवैष्णव संज्ञा होती है, एवं साधारण क्रिष्ठान में भी य व श्रीणुि अनुसन्धान विद्यमान होता है । तो अनुष्ठान धरी को वैष्णव कहा जा सकता है ।

श्रीविष्णु पुराण में कथित है-

“न चलति निजवर्णधर्म्मतो यः, सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे ।

न हरति न च हन्ति किञ्चिदुच्चैः स्थितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम् ॥ “५६६ ॥ जो, निज वर्ण धर्म से विचलित नहीं होता है, निज सुहृद पक्ष में एवं शत्रु पक्ष में जो सममति है, परद्रव्यापहरण नहीं करता है, वा, पर को व्यथा प्रदान नहीं करता है, एवं स्थिर चित्त हैं, उस को विष्णु भक्त जाने 1

जो, समस्त कर्म, श्रीविष्णु को समर्पण करता है, उस को तो सुतरां वैष्णव कहना ही पड़ेगा । जैसे पद्म पुराण के पातल खण्ड के वंशख माहात्म्य में वर्णित है-

“जीवित यस्य धर्म्मार्थे धम्म हर्य्यर्थ एव च ।

RE

अहोरात्राणि पुण्यार्थं तं मन्ये वैष्णवं जनम् ॥ “५६७॥

धर्माचरण हेतु ही जिस का जीवन धारण है, एवं हरि के निमित्त ही जिस का धर्मानुष्ठान है,

[[४२४]]

’ शिवे च परमेशाने विष्णो च परमात्मनि । समबुद्धया प्रवर्त्तन्ते ते वै भागवतोत्तमाः ॥ ५६८ ॥ इति ।

[[1]]

शैवगोष्ठीषु भागवतोत्तमत्वं तवं व प्रसिद्धमिति तथोक्तम् । वैष्णवतन्त्रे तु तन्निन्देव-

“यस्तु नारायणं देवं ब्रह्मरुद्रादि दैवतैः । समत्वेनैव वीक्षेत स पापण्डी भवेद्ध वम् ॥ “५६६॥ इति ।

तदेवं तेषां बहुभेदेषु सत्सु तेषामेव प्रभाव-तारतम्येन कृपातारतम्येन भक्तिवासना - भेद- तारतम्येन सत्सङ्गात् कालशैघ्रय स्वरूपवैशिष्टयाभ्यां भक्तिरुदयते । एवं ज्ञानिसङ्गाच्च ज्ञानं ज्ञेयम् । तत्र यद्यप्यकिञ्चना भक्तिरभिधेयेति तत्कारणत्वेन मद्भक्तसङ्ग एवाभिधेये सति भक्तोऽपि स एव लक्षितव्यः, तथापि तत्तत्परीक्षार्थमेव तत्तदनुवादः क्रियते । तत्र प्रथमं तावत् तत्तत्सङ्गाज्जातेन

तत्तच्छुद्धा - तत्तत् परम्परा- कथारुच्यादिना जात- भगवत् साम्मुख्यस्य तत्तदनुसङ्गेनैव तत्तद्भजनीये भगवदाविर्भावविशेषे तद्भजन मार्गविशेषे च रुचिर्जायते ।

पुण्याचरण हेतु ही जो दिन रात्र अति वाहित करता है । उसको वैष्णव समझना चाहिये ।

इस रीति से शैव गणों के मध्य में भी विष्णुके प्रति भक्ति की सत्ता है । अतः वैष्णव शब्द से उल्लेख बृहन्नारदीय पुराण में है । मैं है।

“शिवे च परमेशाने विष्णौ च परमात्मनि । समबुद्धया प्रवर्त्तन्ते ते वै भागवतोत्तमाः ॥ “५६८ ॥

जो परमेश्वर शिव में एवं परमात्मा विष्णु में भी समबुद्धि से प्रवृत्त होते हैं, वे भागवतोत्तम हैं । इस प्रकार शेव गोष्ठी के मध्य में भी बृहन्नारदीय पुराण में भागवतोत्तम का प्रसिद्ध वर्णन है। किन्तु, वैष्णव शास्त्र में शिव एवं विष्णु में अभेदभावना की निन्दा वर्णित है ।

“यस्तु नारायणं देव

ं ब्रह्मरुद्रादिदैवतैः ।

समत्वेनंव वीक्षेत स पाषण्डी भवेद्ध वम् । ५६६॥

में

जो,ब्रह्मा महादेव प्रभृति देवतावर्ग के सहित नारायण को समदृष्टि से देखेगा, वह निश्चय ही पाषण्डी होगा। उक्त रीति से वैष्णव साधु के मध्य में विविध भेद विद्यमान होने पर भी उन की प्रभावतरतमता के अनुसार एवं कृपा की तरतमता के अनुसार तथा भक्ति वासना का भेद तारतम्य हेतु सत् सङ्ग से अति सत्वर एवं विलम्ब में, तथा स्वरूप व चित्री के द्वारा भक्ति का उदय होता है । अर्थात् यदि साधु प्रभावातिशय्य हो, एवं करुणा प्राचुर्य्य हो तब स्वल्प काल सङ्ग में ही श्रीभगवान् के प्रति भक्ति का उदय होता है । और यदि साधु में प्रभाव कम हो, एवं करुणा का परिमाण भी कम हो, उस प्रकार साधु के

सङ्गः

से भक्ति का उदय विलम्ब में होता है । उस साधु की श्रीभगवान् के प्रति जिस प्रकार भक्ति है, उस भगवत् स्वरूप का वैशिष्ट्य एवं अवशिष्टय के द्वारा भी भक्ति उदय की तरतमता होती है । इस प्रकार ज्ञानि साधु सङ्ग से भी ज्ञानोदय की तरतमता को समझना होगा ।

उस के मध्य में यद्यपि निखिल शास्त्रों का उपदेश - अकिञ्चना अर्थात् अपेक्षाशून्या भक्ति आचरण करने के निमित्त ही है । एवं महत् सङ्ग हो उक्त अकिञ्चना भक्ति प्राप्ति का एकमात्र कारण है । शास्त्रों का यह निर्णय है । अतएव अकिञ्चना भक्ति ही जब शास्त्र का अभिधेय है तब, उस प्रकार भक्त एवं उस प्रकार भक्ति का परिचय प्रदान, लक्षण के द्वारा करना कर्त्तव्य है । तथापि उक्त भक्त एवं भक्ति इन दोनों की परीक्षा हेतु अर्थात् तदुभय के सहित परिचय कराने के निमित्त उन उन का अनुवाद होगा । अर्थात् पुनरुल्लेख किया जायेगा ।

[[४२५]]ततश्च विशेषबुभुत्सायां सत्यां तेष्वेकतोऽनेकतो वा श्रीगुरुत्वेनाश्रितात् श्रवणं क्रियते । तच्चोपक्रमोपसंहारादिभिरर्थावधारणम् । पुनश्चासम्भावनाविपरीत भावनाविशेषवता स्वयं तद्विचाररूपं मननमपि क्रियते । ततो भगवतः सर्व्वस्मिन्नेवाविर्भावे तथाविधोऽसौ सदा सव्र्व्वत्र विराजत इत्येवंरूपा श्रद्धा जायते । तत्र कस्मिस्त्वनया प्रथमजात्या रुच्या सह निजाभीष्ट- दानसामर्थ्य द्यतिशय वत्तानिर्द्धारणरूपत्वेन सेव श्रद्धा समुल्लसति । तत्र यद्यप्येकत्र वातिशयिता- पर्य्यवसानं सम्भवति, न तु सर्व्वत्र, तथापि केषाञ्चित् ततो विशिष्टस्याज्ञानादन्यत्रापि तथा बुद्धिरूपा श्रद्धा सम्भवति । एवं भजन मार्गविशेषश्च व्याख्यातव्यः । तदेवं सिद्धे ज्ञाने विज्ञानार्थं निदिध्यासनलक्षण- तत्तदुपासनमा गंभेदोऽनुष्ठीयते । इत्येवं विचारप्रधानानां मार्गो दर्शितः । रुचिप्रधानानान्तु न तादृग्-विचारापेक्षा जायते, किन्तु साधुसङ्ग - लीलाकथा- श्रवण-रुचि-श्रद्धा-श्रवणाद्यावृत्तिरूप एवासौ मार्गः, यथा (भा० १ २ १६) “शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य'

PT

प्रथमतः उन उन भगवत् स्वरूप में श्रद्धा, भजनाङ्ग में श्रद्धा, एवं साधु परम्पराक्रम से भगवत् कथा में रुचि प्रभृति का उदय होने से भगवत् साम्मुख्य होता है । एवं आनुषङ्गिक रूप से भजनीय श्रीभगवदाविर्भाव विशेष में एवं उन भगवदाविर्भाव विशेष के आविर्भाव विशेष में भी रुचि उत्पन्न होती है । अनन्तर सम्बन्ध अभिधेय प्रयोजन तत्त्व विशेष को विशेष रूप से जानने की इच्छा का उद्गम होने पर, पूर्व वर्णित महानुभव वृन्द के मध्य में एक व्यक्ति से हो, अथवा अनेक व्यक्ति से हो श्रवण गुरु रूप में आश्रय ग्रहण कर, सम्बन्ध अभिधेय प्रयोजन तत्त्व का विचार श्रवण करे। उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता फल, अर्थवाद, एवं उपपत्ति अर्थात् युक्ति के द्वारा यथार्थ तात्पर्य निर्णय करने का नाम श्रवण है । पुनर्वार अर्थात् श्रवण के पश्चात् असम्भावना, विपरीत भावना निवृत्ति हेतु जिस विषय का श्रवण होगा, उस विषय का विचार रूप मनन भी करे । तत् पश्चात् श्रीभगवान् के समस्त आविर्भाव हो अर्थात् श्रीराम, नृसिंह, वामनादि रूप में - श्रीभगवान् सदा सर्वत्र विद्यमान हैं, इस प्रकार श्रद्धा अर्थात् विश्वास उत्पन्न होता है । अनन्तर साधु के समीप से श्रवणादि करते करते अनन्त भगवत् स्वरूप में निश्चला श्रद्धा का उदय होने पर भी किसी एक विशेष भगवत् स्वरूप में प्रथम साधु सङ्ग के बाद में जो रुचि हुई थी, उस रुचि के सहित निज अभीष्ट प्रदान करने में अतिशय समर्थ किसी एक विशेष आविर्भाव में मानसिक आकर्षण होता है । उस समय जो श्रद्धा, साधारण रूप से समस्त भगवत स्वरूप में उदय हुई थी, किसी एक विशिष्ट भगवत् स्वरूप में - स्वीय अभीष्ट प्रदान समर्थ - श्रीराम हों श्रीनृसिंह हों अथवा श्रीकृष्ण हों- हैं, इस प्रकार निर्द्धारण के पश्चात् पूर्व वर्णित साधारणी श्रद्धा सम्यक् रूप से उल्लसित वा उच्छलित होती है। उस विषय में एक विचार यह है कि- अनन्त भगवत् स्वरूप के मध्य में किसी एक विशिष्ट भगवत् स्वरूप में हीं सर्व प्रकार से श्रेष्ठता का पर्यवसान होना सम्भवपर है । समस्त भगवत् स्वरूपो में सर्व प्रकार श्रेष्ठता विद्यमान होना सम्भव पर नहीं है। तथापि कोई कोई साधक भक्त को अपना अभीष्ट प्रदान करने में समर्थ रूप में निर्दिष्ट भगवत् स्वरूप से अपर सर्वोत्कृष्ट उत्कर्षशाली भगवान् को छोड़कर अल्प शक्ति प्रकाशक भगवत् स्वरूप में - यह सर्वार्थ प्रदान में समर्थ - इस प्रकार श्रद्धा का उदय होता है । सर्वोत्कर्ष मण्डित भगवत् स्वरूप विषयक अज्ञता ही उस विषय में कारण है ।

अतएव जिस प्रकार भजनीय तत्त्व का निद्दश किया गया है, उस प्रकार भजन पद्धति का निर्देश करना भी अवश्य कर्त्तव्य है । पूर्व वर्णित प्रकार से शास्त्रार्थ विचार से भी वस्तु परिचय होने पर, उस

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इत्यादिना पूर्व्वं दर्शितः, (भा० ३।२५।१५) “सतां प्रसङ्गान्मम वीर्य्य संविदः” इत्यादौ च द्रष्टव्यः । प्रीतिलक्षण-भक्तीच्छुनास्तु रुचिप्रधान एव मार्गः श्रेयान, नाजात रुचीनामिव विचारप्रधानः, यथोक्तं श्रीप्रह्लादेन (भा० ७६।४६–५०) -

“नंते गुणा न गुणिनो महदादयो ये, सर्व्वे मनः प्रभृतयः सह देवमत्याः ।

आद्यन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वामेवं विविच्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ॥ ६०० ॥ तत्तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्म्म पूजाः, कर्म्मस्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम् ।

संसेवया त्वयि विनेति षड़ङ्गया कि, भक्ति जनः परमहंसगतौ लभेत ॥ " ६०१ ॥ इति ।

तत्त्व वस्तु अनुभव हेतु निदिध्यासन नामक उस स्वरूप की उपासना पद्धति विषयक भेद भी अनुष्ठित होता है । विचार प्रधान साधक वृन्द की इस प्रकार साधन पद्धति प्रदर्शित हुई । रुचि प्रधान साधक गण को विचार प्रधान साधक वृन्द के समान विचार की अपेक्षा नहीं है । किन्तु साधुसङ्ग लीला कथा श्रवण में रुचि, एवं श्रद्धा तथा पुनः पुनः श्रवणादि रूप भजन पद्धति अनुष्ठित होती रहती है। जिस प्रकार भा० १। २।१६ में उक्त है – “शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य” अर्थात् पुण्य तीर्थ निषेवण से साधुसङ्ग प्रप्त करने की सम्भावना होती है, एवं साधु सङ्ग से श्रीहरि कथा का श्रवण सौभाग्य होता है, श्रीहरि कथा श्रवण करते करते साधु एवं श्रीहरि कथा में श्रद्धा का उदय हो सकता है। इस के बाद भा० ३।२५।२५ में कहा गया है- P

“सतां प्रसङ्गात् मम वीर्य सम्बिदः” साधु के प्रकृष्ट सङ्ग से श्रीहरि कथा श्रवण प्रसङ्ग होता है । आसक्ति पूर्वक उस कथा का श्रवण करते करते श्रद्धा, भावभक्ति, एवं प्रेम भक्ति का उदय होता है। प्रीति लक्षणा भक्ति प्राप्त करने के निमित्त जिस की इच्छा है, उस के पक्ष में रुचि प्रधान भक्ति ही श्रेष्ठ एवं अनुकूल है। किन्तु अजात रुचि साधक वृन्द के समान विचार प्रधान मार्ग अनुकूल नहीं है । इस अभिप्राय से ही भागवत ७।६।४६-५० में श्रीप्रह्लाद ने कहा है-

“नंते गुणा न गुणिनो महदादयो ये, सर्वे मनः प्रभृतयः सह देवमर्त्याः ।

आद्यन्तवन्त उरुगाय विदान्त हि त्वा, मेवं विविच्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ॥६००॥ तत्तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्म्मपूजा, कर्म्मस्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम् ॥

संसेवया त्वयि विनेति षड़ङ्गया कि, भक्ति जनः परमहंसगतौ लभेत ॥ " ६०१ ॥ इति ।

हे प्रभो ! भक्ति के द्वारा ही आप को जाना जा सकता है । किन्तु शास्त्राध्ययन बुद्धि कौशल प्रभृति द्वारा आप को जाना नहीं जा सकता है। भक्ति होन जन, सर्वदा सर्वमूत में अवस्थित होने पर भी आप को जानने में अक्षम है। सत्व, रजः तमोगुण-गुणाधिष्ठात्री देवी, गुणी गण–ब्रह्मादि, महदादि, मनः प्रभृति, एवं देवता, मनुष्य, यह सब जड़ोपाधि विशिष्ट होने पर आदि एवं अन्त विशिष्ट हैं । अतएव निरुपाधि आप को कैसे जान सकते हैं ? तज्जन्य पण्डित वृन्द विचार पूर्वक अध्ययनादि व्यापार से विरत होते हैं। श्रुति भी कहती है-

“किमर्था वयमध्येक्ष्यामहे किमर्था वयं यक्ष्यामहे ।

नानुध्यायेद् बहून् शब्दान् वाचो विग्लापनं हि तत् ॥'

अध्ययन करके क्या होगा । किस के निमित्त हम अध्ययन करेंगे ? किस उद्देश्य से हम सब यज्ञादि कर्मानुष्ठान करेंगे ? भूरि भूरि ग्रन्थानुशीलन न करे, इस प्रकार अध्ययन केवल वाणी को ग्लानि दायक है । हे पूज्यतम ! आप के चरणों में प्रणाम है। आप की स्तुति, आप की परिचर्थ्या, आप की लीला का

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कर्म परिचय, कर्मस्मृतिर्लोला- स्मरणम्, चरणयोरिति सर्वत्रान्वितं भक्तिव्यञ्जकम्, तदेतदुभयस्मिन्नपि तत्तद्भजनविधि- शिक्षागुरुः प्राक्तनः श्रवणगुरुरेव भवति, तथाविधस्य प्राप्तत्वात् । प्राक्तनानां बहुत्वेऽपि प्रायस्तेष्वेवान्यतरोऽभिरुचितः । पूर्वस्मादेव हेतोः श्रीमन्त्र- गुरुस्त्वेक एव, निषे स्यमानत्वाद्वहूनाम् ।

अथात्र प्रमाणानि - तत्र तदाविर्भावविशेषे रुचिः (भा० ११।३।४८) “महापुरुषमभ्य चर्चेन- मूर्त्याभिमतयात्मनः” इत्यादौ श्रीमदाविर्होत्रादिनाभिप्रेता भजन विशेष रुचिश्च (भा० ११।२७।७)

“वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः ।

त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चयेत् ॥ ६०२॥

स्मरण, आप की कथा का श्रवण, आप की यह षड़ङ्ग भक्ति के विना किस उपाय से मानव परम हंस वृन्द के एक मात्र प्राप्य आप के प्रति प्रेम भक्ति को प्राप्त कर सकते हैं ? अतएव हे नाथ ! मुझ को आप के भक्त वृन्द की सेवा करने का अधिकार प्रदान कर कृतार्थ करो। इन दोनों प्रकार भजन मार्ग की भजन शिक्षा

के

गुरु, पूर्वाश्रित श्रवण गुरु ही होते हैं । कारण, उन शिक्षा गुरु के निकट से ही भजन विधि की शिक्षा करे । इस प्रकार आचरण की विधि भा० ११।३।२२ अध्याय में इस प्रकार है-

“तत्र भागवतान् धर्म्मान शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः ।

अमाययानुवृत्त्या ये स्तुष्येदात्मात्मदो हरिः ॥”

यस्य सः । अनुवृत्त्या सेवया । ये धम्मैः । वस्तुत आत्मा आत्मप्रदश्चोपसकानाम् ।

[[199]]

टीका–गुरुरेवात्मा दैवतश्व यथा बलि प्रभृतीनाम् ॥

पूर्वोक्त श्रवण गुरु यद्यपि बहु हो सकते हैं. तथा उन शिक्षा गुरु वृन्द के मध्य में निज अभिमत एक व्यक्ति को भजन शिक्षा गुरु रूप में वरण करना कर्त्तव्य है । पूर्वोल्लिखित कारण से ही भजन शिक्षा गुरु एवं श्रीमन्त्र गुरु एक व्यक्ति ही होता है । कारण, अनेक मन्त्र गुरु करण करना शास्त्र विहित नहीं है ।

पूर्वोल्लिखित विषय समूहों के प्रमाण समूह का प्रदर्शन करते हैं । उस के मध्य में प्रथमतः अनन्त भगवदाविर्भाव के मध्य में किसी एक आविर्भाव विशेष के प्रति रुचि करने का विधान भा० ११।३।३८ में है–

“लब्धानुग्रह आचार्य्यात् तेन सन्दर्शितागमः । महापुरुषमभ्यर्चेत् भूत्यभिमतयात्मनः ॥”

HRES

टीका-तमेव विधिमाह लब्धानुग्रह इत्यादिना । तेन आचार्येण सन्दशितः आगमोऽच्चन

प्रकारो यस्य सः ॥

निज अभिमत किसी भगवन् मूर्ति विशेष के द्वारा महापुरुष का अच्चन करे। यह सब विधि श्रीमदाविर्होत्र प्रभृतियों को सम्मता हैं । भजन विशेष में रुचि की कथा तो भगवान् श्रीकृष्णने निज मुख से ही कही है । भा० ११।२७/७)

“वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः

त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समच्चयेत् ॥ " ६०२ ॥

TASTE

टीका - वैदिक एव मन्त्रो वैदिकान्येवाङ्गानि च यस्मिन् पुरुष सूक्तादौ स वैदिकः । एवं तान्त्रिकोऽपि मिश्रोऽष्टाक्षरादिः मख पूजा ॥ "

वैदिक, तान्त्रिक, एवं उभयमिश्र भेद से मेरा यज्ञ वा मेरी उपासना तीन प्रकार हैं। यह त्रिविध

४२८]

इत्यादौ श्रीभगवताभिप्रेता । अतः श्रवणगुरुमाह (भा० ११।३।२१)

(२०२) “तस्माद्गुरु ं प्रपद्य ेत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम् ।

शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥” ६०३॥

शाब्दे ब्रह्मणि वेदे तात्पर्य्यविचारेण, परे ब्रह्मणि भगवदादिरूप विर्भावे तु अपरोक्षानु- भवेन निष्णातं तथैव निष्ठां प्राप्तम् । यथोक्तं पुरञ्जनोपाख्यानाद्य पसंहारे श्रीनारदेन ( भा० ४।२६।५२)

श्रीप्रबुद्धो निमिम् ॥

“स वै प्रियतमश्वात्मा यतो न भयमध्वपि ।

इति वेद स वै विद्वान् यो विद्वान् स गुरुर्हरिः ॥ " ६०४ ॥ इति ।