३५४ २०१
उक्त भक्त लक्षण के मध्य में जो विशुद्ध दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर भाव के मध्य में किसी एक भाव भावित होकर प्रेष्ठ श्रीहरि सेवा परायण है-वह सर्वोत्तम है । सारार्थ यह है कि - भावावेश से जो व्यक्ति इष्ट सेवा व्यतीत अपर का महत्त्वानुसन्धान करने में अक्षम है- उस की अनन्यता ही स्थायी एवं मधुर है । और जो विचार प्रवणता से श्रीभगवान् की भक्ति में अनन्य भाव से रत है उस की अनन्यता दुर्बल है । भा० ११।११ ३३ में उक्त है ।
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P. 13श्री भक्तिसन्दर्भः
[[४१६]]
(२०१) “ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वे मां यावान् यश्चास्मि यादृशः ।
भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मताः ॥ “५८५ ॥
यावान् देशकालाद्यपरिच्छिन्नः, यश्च सर्वात्मा, यादृशः सच्चिदानन्दरूपः, तं मां ज्ञात्वा अज्ञात्वा वा ये केवलमनन्यभावेन श्रीवजेश्वरनन्दनत्वाद्यालम्बनो यः स्वाभीप्सितो दास्यादीनामेकतरो भावः, तेनैव भजन्ति न कदाचिदन्येनेत्यर्थः, ते तु मे मया भक्तत्मा मताः अतएव चतुर्थे श्रीयोगेश्वरैरपि प्रार्थितम् (भा० ४।७।३८) -
" प्रेयान् न तेऽन्योऽस्त्यमुतस्त्वयि प्रभो, विश्वात्मनीक्षेत्र पृथग् य आत्मनः । तथापि भृत्येशतयोपधावता, -मनन्यवृत्यानुगृहाण वत्सल ॥ " ५८६ ॥ इति । श्रीगीतासु हि (७१२) -
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“ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
(२०१) ‘ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वै मां यावान् यश्चास्मि यादृश ।
भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मता ।” ५८५॥
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देश कालादि द्वारा अपरिच्छिन्न सच्चिदानन्द रूप मैं हूँ । मुझ को उस प्रकार जानकर वा न जानकर केवल अनन्यभाव से श्रीव्रजेश्वरनन्दनादि रूप आलम्बन में दास्य, सख्य, वात्सल्य एवं मधुर भाव के मध्य में निज अभीप्सित एक भाव के द्वारा जो मेरा भजन करते रहते हैं, मैं उन सब को भक्ततम मानता हूँ. जब तक दास्यादि किसी एक भाव के सहित मेरा भजन नहीं करता है, तब तक भाव होन भजन से मेरा चित्त विगलित नहीं होता है । भाव की गाढ़ता एवं न्यूनता के अनुसार ही मेरा आस्वादन की गाढ़ता एवं न्यूनता का प्रकाश होता है। उस के मध्य में मुझ के उक्त रूप में न जानकर केवल मात्र प्रियत्व के कारण प्रिय, आत्मा, सुत, सखा, गुरु, सुहृद् प्रभृति लौकिक भाव को द्वारा मेरा भजन करता है, वह सर्व श्रेष्ठ भजन कारी है । ऐश्वर्य्य ज्ञान मिश्रित भाव से केवल सम्बन्ध युक्त भाव का गुरुत्व अत्यधिक हैं । अतएव भा० ४/७/३८ में श्रीयोगेश्वर वृन्द श्रीहरि का स्तब करते करते कहे थे ।
“प्रेयान् न तेऽन्योऽस्त्यमुतस्त्वयि प्रभो, विश्वात्मनीक्षेन पृथग् य आत्मनः । तथापि भृत्येशतयोपधावता-, मनन्यवृत्त्यानुगृहाण वत्सल ॥ ५८६ ॥
श्री टीका - योगेश्वरास्त्व भेदेन भजतामनुग्रहभावत्वं मन्यमानाः स्तुवन्ति - प्रेयानिति द्वाभ्याम् । विश्वात्मनि, परब्रह्मणि त्वयि य आत्मनः पृथक्त्वं नेक्षेत, अमृतः अमुस्मात् अन्यस्ते प्रेष्ठो नास्ति । आत्मनो जीवान् पृथङ् नेक्षेतेति वा । हे वत्सल ! भक्त प्रिय ! अनन्यवृत्त्या अव्यभिचारिण्या भक्तचा भजतोऽनु गृहाणेत्यर्थः ॥ "
हे प्रभो, जो भक्त, स्वामी भृत्य भाव से आप का भजन करता है, विश्वात्मा परब्रह्म आप को अपने से पृथक् नहीं देखता है । अर्थात् आप को पर बुद्धि से विदूरित करके आप का भजन नहीं करता है, किन्तु निज प्रभु बुद्धि से निज बुद्धि से अपृथक् निज जन मानता है, उस भक्त को छोड़कर अन्य कोई आप का प्रिय नहीं है ।
वत्सल ! हे भक्त प्रिय ! अव्यभिचारिणी भक्ति के द्वारा जो लोक आप का भजन करते रहते हैं, आप उन सब के प्रति अनुग्रह करते हैं ।
श्रीभगवद् गीता में भी लिखित हैं (७२)
[[४२०]]
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ “५८७॥
इत्युक्त्वाह, ( गी० ७१४-७ ) -
क
“भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ५८८॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महावाहो ययेदं धार्य्यते जगत् ॥५८६ ॥ P एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ ५६० ॥
मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ५६१ ॥ इति ।
प्रधानाख्य-जीवाख्य- निजशक्तिद्वारा जगत्कारणत्वं तच्छक्तिमयत्वेन जगतस्तदनन्यत्वं
“ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ “५८७॥
हे अर्जुन ! मैं तुम्हें अनुभव के सहित शास्त्रोक्त अशेष ज्ञान कहूँगा । जिस शास्त्रोक्त तत्त्वज्ञान को जानने पर अपर कुछ भी ज्ञातव्य अवशेष नहीं रहेगा। श्रीभगवान् कृष्ण, अर्जुन को उस के बाद यह कहे थे गोता (७।४–७)
18 T
“भुमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ५८८ ॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महावाहो ययेदं धार्य्यते जगत् ॥ ५८६ ॥ एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ ५०॥ मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्चय ।
मयि सर्वमिदं प्र तं सूत्रे मणिगणा इव ॥ “५६१॥
हे अर्जुन ! पृथिवी, जल, अनल, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहङ्कार, यह आठ प्रकृति मुझ से भिन्न हैं, अर्थात् मेरी वहिरङ्गा माया शक्ति की विभूति रूप हैं । इस प्रकृति वा अपर नाम अपरा है। इस से आपेक्षिक श्रेष्ठ प्रकृति का वृत्तान्त सुनो उस प्रकृत का नाम-जीव है । इस भोक्ता जीव शक्ति के द्वारा यह भोग्य प्रकृति का कार्य ब्रह्माण्ड परिव्याप्त है । यह उभय विध प्रकृति के मध्य में भूमि प्रभृति अष्ट प्रकार से विभक्ता प्रकृति जड़ रूपा होने के कारण निकृष्टा है । जाव रूपा प्रकृति - चैतन्य मयी होने के कारण श्रेष्ठ है । स्थावर जङ्गमात्मक निखिल प्राणी ही मुझ से समुत्पन्न हैं । मैं निखिल जगत् के उत्पत्ति प्रलय के हेतु हूँ । हे धनञ्जय ! मुझ को छोड़कर इस जगत् के अपर कोई निरपेक्ष कारण नहीं हैं। सूत्र के द्वारा ग्रथित मणिगण के समान यह जगत् मुझ में ग्रथित है । जिस प्रकार सूत्र की सत्ता से ही मणिगण की सत्ता है, उस प्रकार मेरी सत्ता से ही जगत् की सत्ता है ।
यह सब श्लोकों के द्वारा श्रीभगवान् - प्रधानाख्य एवं जीवाख्य निज शक्ति द्वारा जगत् कारण हैं,
श्रीभक्ति सन्दर्भः
[[४२१]]
स्वस्य तु ततः परत्वं तदाश्रयत्वञ्च वदन् निजज्ञानमुपदिष्टवान्’ प्रसङ्गेन जीव स्वरूपज्ञानञ्च । स चैवम्भूतो ज्ञानी मत्स्वरूप महिमानुसन्धानकृत्त्वा ज्ञानिभक्तादीनतिक्रम्य मतुप्रियो भवतीत्यप्यन्तेऽभिहितवान् ॥ ( गी० ७।१६-१८) -
“चतुविधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्ज्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ ५६२॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ ५६४ ॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
7FP
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ ५६४ ॥ इति ।
[[15]]
ततश्चायमर्थः – यस्त्वयि विश्वात्मनि आत्मनो जीवान् ईक्षेत् त्वच्छक्तित्वादनन्यत्वेन जानाति, न तु पृथक् स्वतन्त्रत्वेन ईक्षेत, अमुतोऽमुष्माद् यद्यपि ते प्रेयान् नास्ति, तथापि हे
से एवं यह जगत् श्रीभगवान् की शक्ति का कार्य होने के कारण, भगवान से अभिन्न है, भगवान्-जगत् भिन्न हैं, एवं उनको अवलम्बन कर ही जगत् है, जगत् की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, इन सब तत्त्वों को कहकर निज स्वरूप ज्ञान का उपदेश प्रदान किये हैं । प्रसङ्ग क्रम से जीव स्वरूप का वर्णन भी किये हैं। इस रीति से ज्ञानवान् भक्त मेरी स्वरूप महिमा का अनुसन्धान करता है, अतः निखिल भक्तों से ज्ञानिभक्त ही
मेरा प्रिय है ।
इस प्रकार गीता शस्त्र के सप्तम अध्याय (१६-१८) में श्रीभगवान् अर्जुन को कहे हैं-
“चतुविधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्ज्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥५६२ ॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ ५६३॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ “५६४ ॥
हे अर्जुन ! आतं, जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानी- यह चतुविध मानव मेरा भजन करते रहते हैं । किन्तु चतुविध भजन कारी व्यक्ति यदि साघु सङ्ग रूप सौभाग्य लाभ करते हैं तभी मेरा भजन करते हैं, तद्व्यतीत क्षुद्र देवता प्रभृति का ही भजन करते रहते हैं । एवं संसार दशा को भी प्राप्त करते हैं। उक्त चतुविध भजन कारी के मध्य में ज्ञानी नित्य युक्त एवं एक भक्ति हेतु श्रेष्ठ है । कारण, ज्ञानी का ही मैं एकान्त प्रिय हूँ एवं ज्ञानी भी मेरा प्रिय है। यह चतुविध मदीय भजन कारी ही उदार हैं। अर्थात् मुक्ति पथ का अधिकारी होने के कारण महत हैं । किन्तु ज्ञानी मेरा स्वरूप है। कारण वह ज्ञानी भक्त, मुझ में आविष्ट चित्त होने के कारण सर्वोत्कृष्ट गति रूप मुझ को आश्रय किया है। अतएव चतुर्थ स्कन्धोक्त " प्रेयान् न तेऽन्यः " योगेश्वर गण कृत स्तोत्र की व्याख्या निम्नोक्त रीति से ही सुसङ्गत है । हे प्रभो ! जो विश्वात्मा स्वरूप आप के सहित निखिल जीव वर्ग को आप की शक्ति जान कर अपृथक् रूप से देखता है। अर्थात् शक्ति, शक्तिमान कोई भेद नहीं है-इस प्रकार जानता है । कारण, अग्नि के सहित उस की
।
[[४२२]]
TH
।
वत्सल, हे भृत्यप्रिय, भृत्येश-भावेन ये भजन्ति, तेषां या अनन्या वृत्तिरव्यभिचारिणी निजा भक्तिस्तयैव अनुगृहाण । प्रस्तुतत्वे नास्मात् ज्ञानिभक्तानिति लभ्यत इति । अथ मूलपद्ये ‘ज्ञात्वाज्ञात्वा’ इत्यत्राज्ञानज्ञानयोर्हेयोपादेयत्वं निषिद्धम् । भक्ततमा इत्यत्र पूर्ववाक्यस्थ- सत्पद निद्दशमतिक्रम्य विशेषतो भक्तपदनिद्दशाद्भक्तेः स्वरूपाधिक्यमत्रैव विवक्षितम् । मे मता इत्यत्र मम तु विशिष्टा सम्मतिरत्र वेति सूचितम् ईदृशानुक्तचरत्वात् । अतएव प्रकरण प्राप्त मेकवचननिर्देशमप्यतिक्रम्य गौर वेणंव ये ते’ इति बहुवचनं निद्दिष्टम् । ततः किमुत तद्भावसिद्धप्रेमाण इति भावः । एषां भावभजनविवृतिरग्रे रागानुगाकथने ज्ञेया ॥श्रीभगवान् । २०२ । त एते वैष्णवसन्तो महत्त्वेन सन्मात्रत्वेन च विभिद्य निद्दिष्टाः । सम्मात्रभेद- तारतम्यञ्चात्र यदविविक्तं तद्भक्तिभेदनिरूपणे पुरतो विवेचनीयम् । अन्ये तु स्वगौष्ठय- स्फुलिङ्ग राशि का जिस प्रकार पार्थक्य नहीं होता है। इस प्रक र ही परमेश्वर से जीव की पृथक् सत्ता का दर्शन नहीं करता है । आप के इस प्रकार भक्त से यद्यपि अन्य कोई प्रिय नहीं हैं, तथापि हे वत्सल ! हे भृत्य प्रिय ! जो भूत्य प्रभु भाव से आप का भजन करते हैं, आप के प्रति उनकी जो अनन्य वृत्ति अर्थात् अयभिचारिणी - असाधारणी भक्ति है, उस प्रकार भक्ति प्रदान हम सब को करके हमें अनुग्रह आप करें । अर्थात् प्रस्तुत विषय हेतु ज्ञानि भक्त हम सब को उस प्रभु भृत्यभावमयी भक्ति प्रदान कर कृपा करें । इस प्रकार व्याख्या करने का कारण यह है कि - यह प्रकरण - योगेश्वर वृन्द कृतस्तव है । सुतरां ज्ञानि भक्त की अपने प्रति भृत्य प्रभु भाव से अनुग्रह प्रार्थना रूप व्याख्या ही समीचीन है । अतएव मूल पद्य में ‘ज्ञात्वा एवं अज्ञात्वा’ अर्थात् जानकर एवं न जानकर जो मेरा भजन करता है - इस प्रकार उल्लेख होने के कारण, जो, जानकर भजन करता है, उस का उपादेयत्व, एवं जो, न जानकर भजन करता है, उसका अनुपादेयत्व है अर्थात् हेयत्व है, अथवा, जो न जानकर भजन करता है - उसका उपादेयत्व, एवं जो जान कर भजन करता है । उस का हेयत्व है - इस प्रकार व्याख्या समीचीन नहीं है । कारण, “आज्ञ. यवं” इस पूर्वोक्त श्लोक में जिस प्रकार ‘सत्तम’ सत् पद का उल्लेख हुआ है, किन्तु यहाँ पर सत् पद का उल्लेख न करके ‘भक्ततमाः” पद का उल्लेख किया गया है । अतएव भक्त पदाल्लेख के कारण भक्ति का स्वरूप गत आधिक्य का प्रकाश-भक्त में होता है- प्रवक्ता भगवान् का यही कथनाभिप्राय है । विशेषतः - “ते मे भक्त तमा मताः " अर्थात् मैं उन सब को भसतम जानता हूँ । इस प्रकार उल्लेख हेतु वे सब ही श्रीभगवान् के ऐकान्तिक भक्त हैं, यह सूचित हुआ है। इस के पहले इस प्रकार किसी श्लोक का कथन नहीं हुआ है । अतएव साधु लक्षण प्रकरण में प्रत्येक पद में एक बच्चन का ही प्रयोग हुआ है । किन्तु यहाँ पर उस क्रम का लङ्घन करके गौरव प्रकटन निबन्धन ‘ये ते मताः” अर्थात् जो यह जान कर वा न जानकर भजन करते हैं, वे ही मेरा विशेष गौरव के पात्र हैं। इस प्रकार बहु वचन निद्दश किया गया है ।
अतएव इस प्रकार भाव युक्त साधक भक्त ही यदि श्रीभगवान् के गौरव पात्र होते हैं तो, जो दास्यादि भाव से भजन करके भगवान् में प्रेमलाभ करने में समर्थ हुये हैं, वे सर्वाधिक गौरव के पात्र तो हैं ही । यह दास्य दि भाव से भजन का विस्तार रागानुगा भक्ति वर्णन प्रसङ्ग रूप अग्रिम ग्रन्थ में होगा ।
प्रकरण प्रवक्ता श्रीभगवान् हैं ॥ २०१ ॥