३५२ २००
मध्यम मिश्रसाक्षादर्भात साधकमाह (मा० ११।११।३२) -
(२००) “आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान् ।
धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत् स च सत्तमः ॥ “५८१ ॥
परोपकारी सत्यवादी प्रभृति गुण सम्पन्न होते हैं तो यह सब गुण भगवद् वहिर्मुखता दोष दुष्ट होने के कारण दोष के अन्तर्भुक्त होते हैं । इस के बाद भा० ११।११३२ श्लोक में कहा गया है-
“आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान् ।
धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत् स च सत्तमः ॥
टीका - किश्चमया वेद रूपेण आदिष्ठानपि स्वधर्मान् सन्त्यज्य यो मां भजेत सोऽप्येवं पूर्वोक्तवत् सत्तमः । किमज्ञानान्नास्तिवयाद्वा । न । धर्माचरणे सत्त्वशुद्ध चादीन् गुणान् विपक्षे नरक पाता दीन दोषांश्चा- ज्ञाय ज्ञात्वापि मद्ध्यान विशेषतया मद् भक्तंव सर्वं भविष्यतीति दृढ़ निश्चयेनैव धर्मान् सन्त्यज्यो यद्वा भक्ति दान निवृत्ताधिकार तथा सन्त्यज्य अथवा विद्धैकादश्युपवास कृष्णैकादश्यनुपदासानि देद्य श्रद्धादयो ये भक्ति विरुद्धा धर्मास्तान् सन्तज्येत्यथः ॥
इस श्लोक के साधु लक्षण में “स च सत्तमः” कहा गया है । अर्थात् पूर्व वर्णित लक्षणाकान्त साधु, जिस प्रकार सत्तम है, अर्थात् साधुओं के मध्य में श्रेष्ठ है, इसी प्रकार यह व्यक्ति भी सत्तम है । इस में सुस्पष्ट बोध होता है कि - श्रीभगवान के श्रीचरणों में शरणागति लक्षणाक्रान्त साधु का ही मुख्य साधुत्व है । समस्त सद् गुण हीन होकर भी यदि भगवान् में एकान्त शरणागत होता है। तो उस को साधु जानना होगा ॥ १६६ ॥
३५३ २००
मध्यम मिश्र साक्षात् भक्ति साधक का परिचय प्रदान, एक श्लोक के द्वारा करते हैं-११।११ ३२
(२००) “आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान् ।
श्रीधरस्वामि पाद कृत
धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत् स च सत्तमः ॥ ५८१ ॥
टीका का अर्थ यह है-मैंने वेद रूप में जो सब स्वधर्मोपदेश प्रदान किया है । उन सब को सम्यक् रूप से परित्याग करके जो मेरा भजन करता है, वह भी पूर्वोक्त साधु लक्षण के समान सत्तम है । किन्तु अज्ञान वा नास्तिक्य वशतः यदि धर्म त्याग करता है तो उस को साधु नहीं कहा जा सकता है । जो सम्यक् रूप से जानता है कि-धर्माचरण से चित्त शुद्धि प्रभृति गुण हैं, एवं धर्माचरण करने से अकरण हेतु प्रत्यवाय है । यह सब जान कर भी मेरा ध्यान विघातक समझकर भक्ति से ही चित्त शुद्धि होती है, सद् गुणों का आविर्भाव भी होता है, इस प्रकार निश्चय करके समस्त परित्याग पूर्वक मेरा भजन करता है वह सत्तम है, अर्थात् साधुओं के मध्य में वह श्रेष्ठ साधु है । तात् पर्थ्य यह है कि - जब तक भक्ति में सुदृढ़ विश्वास नहीं होता है, तब तक काम्य कर्म करना चाहिये ।
जब श्रीभगवान् में भक्ति करने से ही स्वार्थ सिद्धि होती है, इस प्रकार दृढ़ विश्वास होता है, तब काम्य कर्म करने की आवश्यकता नहीं है । भा० ११ स्कन्ध में उक्त है-
यह
“तावत् कर्माणि कुर्वीत न निविद्येत यावता ।
मत् कथा श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥
जब तक ऐहिक पारलौकिक सुख भोग में वितृष्णा नहीं होती है, तब तक कर्म करना कर्त्तव्य है । विधि ज्ञानी के पक्ष में है । भक्त के पक्ष में- जब तक भगवत् कथा श्रवणादि में दृढ़ विश्वास उत्पन्न नहीं
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टीका च - “मया वेदरूपेण आदिष्टानपि स्वधर्मान् सन्त्यज्य यो मां भजेत्, सोऽप्येवं पूर्वोक्तवत् सत्तमः । किमज्ञानात् नास्तिक्याद्वा ? न, धमाचरणे सत्त्वशुद्धयादीन् गुणान् विपक्षे दोषांश्चाज्ञाय ज्ञात्वापि मद्ध्यानविक्षेपकतया मद्भक्त्यैव सर्वं भविष्यतीति दृढ़निश्रयेनैव धर्मान् सन्त्यज्य, यद्वा, भक्तिदाढर्थेन निवृत्ताधिकारितया सन्त्यज्य " इत्येषा । यथा हयशीर्ष- पञ्चरात्रोक्त-नारायणव्यू हस्तवे–
“ये त्यक्तलोकधर्मार्था विष्णुभक्तिवशं गताः । ध्यायन्ति परमात्मानं तेभ्योऽपीह नमो नमः ॥५८२ ।
अत्र त्वेवं व्याख्या - यदि च स्वात्मनि तत्तद्गुणयोगाभावस्तथापि एवं पूर्वोत्तप्रकारेण गुणान् कृपालुत्वादीन् दोषांस्तद्विपरीतांश्चाज्ञाय हेयोपादेयत्वेन निश्चित्यापि यो मया तेषु गुणेषु मध्ये तत्रादिष्टानपि स्वकान् नित्यनैमित्तिक-लक्षणान् सर्वानेव वर्णाश्रर्माविहितान् धर्मान तंदुपलक्षणं ज्ञानमपि मदनन्य भक्तिविघातकतया सन्त्यज्य मां भजेत्, स च सत्तमः । च- कारात् पूर्वोकोऽपि सत्तम इत्युत्तरस्य तत्तद्गुणाभावेऽपि पूर्वसाम्यं बोधयति । ततो यस्तु तत्तद्गुणान् लब्ध्वा धर्मज्ञानपरित्यागेन मां भजति केवलम् स तु परमसत्तम एवेति व्यक्त्यानन्यभक्तस्य पूर्वत आधिक्यं दर्शितम् ।
होता है, तब तक ही काम्य कर्मानुष्ठान करना कर्त्तव्य है । हयशीषं पञ्चरात्र के नारायण व्यूहस्तव में लिखित है—
“ये त्यक्तलोकधर्मार्था विष्णुभक्तिवशं गताः ।
ध्यायन्ति परमात्मानं तेभ्योऽपीह नमो नमः ॥” ६८२ ॥
जो विष्णु भक्ति से वशीभूत होकर अर्थात् भक्ति भिन्न अपर कुछ आचरण करने की सामर्थ्य नहीं है, अतएव लोक वेद धर्म को परित्याग करके परमाश्रयतत्त्व श्रीभगवान् का ध्यान करते हैं-उनके चरणों में मेरा पुनः पुनः नमस्कार हैं। इस प्रमाण से प्रतिपन्न होता है कि भक्ति के प्रति दृढ़ता के कारण लोक धम्मं को परित्याग करने से दोषावह नहीं होता है ।
“आज्ञायैव गुणान् दोषान्” इस श्लोक की व्याख्या निम्मोक्त रूप जानना होगा । यद्यपि भक्त में पूर्व वणित गुणों का योग नहीं है, तथापि, पूर्व में जिस प्रकार कहा गया है— उस प्रकार कृपालुत्व प्रभृति गुण हैं, एवं उस का विपरीत निर्दयत्व प्रभृति दोष हैं । हेय एवं उपादेय रूप से दोष गुण को जानकर भी जो व्यक्ति, मेरे द्वारा कथित नित्यनैमित्तिक लक्षण वर्णाश्रय विहित धर्म समूह हैं, यह सब धर्म एवं मुक्ति साधक ज्ञान को भी अर्थात् जीव एवं ईश्वर में अभेद भावना को भी मेरी अनन्य भक्ति का विधातक को सम्पूर्ण रूप से परित्याग करके मेरा भजन करता है, यहाँ ‘‘व’ कार का उल्लेख होने के कारण पूर्वोक साधु भी सत्तमः है । और यह व्यक्ति, कृपालुता प्रभृति उक्त गुण शून्य होने पर भी - ज्ञान कर्मादि द्वारा अनावृत अन्याभिलाषिताशून्य आनुकूल्य से कृष्णानुशीलन रूपा विशुद्धा भक्ति का अनुष्ठान करता है, उस व्यक्ति में पूर्वोक्त गुण समूह विद्यमान न होने पर भी वह सत्तम है । अतएव जो, पूर्व वर्णित कृपालुत्व प्रभृति गुण प्राप्त न करके भी काम्य कर्म एवं ज्ञान को परित्याग करके केवल मेर। भजन करता है, वह किन्तु परम सत्तम है । अर्थात् जो भक्त अन्य देवता का भजन स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धि से नहीं करता है, केवल मेरा भजन
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अत्र ( गी० १२।१३) “अद्व ेष्टा सर्व्वभूतानाम्” इत्यादि श्रीगीताद्वादशाध्याय प्रकरणमप्यनु- सन्धेयम् । सत्तम इत्यनेन तदवरत्रापि सत्तरत्वं सत्तमत्वमप्यस्तीति दर्शितम् । अस्तु तावत् सदाचारस्य तद्भक्तस्य सत्त्वम्, अनन्यदेवता-भक्तत्वमात्रेण दुराचारस्यापि सत्त्वान्यपर्याय- साधुत्वं विधीयते, ( गी० ६।३० ) “अपि चेत् सुदुराचारः” इत्यादौ च । अत्र च साधुसङ्ग प्रस्तावे यत्तादृशं लक्षणं नोत्थापितम्, तत् खलु तादृशसङ्गस्य भक्त्युन्मुखेऽनुपयुक्तताभिप्रायेण । यथोक्तं श्रीप्रह्लादेन (भा० ७।७।३०) “सङ्गेन साधुभक्तानाम्” इति । साधुरत्र सदाचारः । तदेवमीश्वर-
ही करता है, वह पूर्व वर्णित गुण सम्पन्न साधु से श्रेष्ठ है । अर्थात् समस्त साधु लक्षणाक्रान्त व्यक्ति से अनन्य भजन कारी व्यक्तिका श्रेष्ठत्व है । यह जानना होगा ।
यहाँ पर भगवद् गीता के १२०१३ में वर्णित “अद्वेष्टा सर्व्वभूतानाम्” इत्यादि प्रकरण का अनुसन्धान करना कर्त्तव्य है । उक्त श्लोक में जब सत्तम पद का उल्लेख है, अर्थात् साधु वृन्द के मध्य में वह सर्व श्रेष्ठ है, इस प्रकार कहा गया है, तब उस के कनिष्ठ भक्त में सत्तरत्व एवं सत्तमत्व भी है। अनेक के मध्य से एक का उत्कर्ष कहने के निमित्त तमट् प्रत्यय का प्रयोग होता है, एवं उभय के मध्य से एक का उत्कर्ष प्रदर्शन आवश्य होने पर तर प्रत्यय का प्रयोग होता है । अर्थात् ‘सत्तम’ कहने से सत्तर, सत्त्व का बोध आनुषङ्गिक रूप से होता ही है। अर्थात् उस में भी साधु धर्म है। यह समझना होगा। सदाचार सम्पन्न भगवद् भक्त का साधुत्व तो हो ही सकता है । किन्तु यदि कोई भक्त अन्य देवता का भजन न करके एक मात्र श्रीकृष्ण का ही भजन करता है, तो उस को दुराचारी का प्रतियोगी साधु कहा जाता है । अर्थात् जो केवल भगवद् भक्ति ही करता है। किन्तु स्वतन्त्र रूप से अन्य किसी देवता का भजन नहीं करता है, केवल मात्र एक गुण से हो उस को श्रीभगवान् साधु कहते हैं । भगवद् गीता के 81 ३० में कथित है-
“अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितोहि सः ॥”
जो अन्य देवता का भजन न करके केवलमात्र मेरा भजन करता है, उस को भी साधु मानना चाहिये । कारण, उस का निश्चय अतीव मनोरम है । अर्थात् श्रीकृष्ण भजन से ही समस्त कर्त्तव्य सम्पन्न होता है इस प्रकार सुदृढ़ धारणा ही समस्त पातकों से उद्धार कर विशुद्ध भक्ति में प्रवेश कराने में सक्षम है। इस से प्रतीत होता है कि अनन्य भाव से श्रीकृष्ण भजन कारी व्यक्ति दुराचारी होने पर भी साधु शब्द से
साधु अभिहित होता है । यहाँ प्रश्न हो सकता है - साधु सङ्ग प्रस्ताव में इस प्रकार दुराचार विशिष्ट को क्यों नहीं कहा गया है ? उत्तर में कहते हैं-साधु सङ्ग प्रस्ताव में दुराचारी साधु का नामोल्लेख न होने का कारण है, तादृश दुराचार विशिष्ट साधु सङ्ग से भगवद् भक्ति नहीं हो सकती है । अर्थात् उस प्रकार साधु सङ्ग में भगवद् भक्ति में उन्मुखता सम्पादन करने की सामर्थ्य नहीं है । भा० ७ ७ ३० में श्रीप्रह्लाद ने भी कहा है-
“गुरुशुश्रूषया भक्तचा सर्वलाभार्पणेन च ।
सङ्गेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च ।
टीका - तत्रैवान्तरङ्गान् धम्र्मानाह । गुरोः शुश्रूषया भक्तधा प्रेम्ना सर्वेषां श्रद्धानामर्पणेन । हे भ्रातृवृन्द ! गुरु सेवा भक्ति द्वारा, भगवान् सर्वलाभार्पण के द्वारा अर्थात् जो कुछ लाभ हो, परम प्रिय श्रीहरि को अर्पण करके, एवं सदाचार सम्पन्न भक्त के सङ्घ से तथा, ईश्वराराधन प्रभाव से श्रीभगवत् चरणों में प्रीति लाभ कर सकते हैं । यहाँ पर भक्त का विशेषण रूप में साधु पद का उल्लेख किया गया
[[४१८]] बुद्धया विधिमार्गभक्कयो स्तारतम्यमुक्तम् । तत्रंवोत्तरस्यानन्यत्वेन श्रेष्ठत्वं दर्शितम् । तत्र वाचनमार्गे त्रि वधत्वं लभ्यते पद्मोत्तरखण्डात्, तत्र महत्वम् “तापादिपचरक री” इत्यादौ, मध्यत्वमम्-
कनिष्ठत्वम्-
“तापः पुण्ड्र तथा नाम मन्त्रो योगश्च पञ्चमः ।
अमी हि पश्चसंस्काराः परमैकान्ति-हेतवः ॥ ५८३ ॥ इत्यत्र ।
TRETIRE
“शङ्खचक्राद्य दुर्ध्वपुण्ड्रधारणाद्यात्मलक्षणम् । तन्नमस्करणञ्चैव वैष्णवत्वमिहोच्यते ॥ ५८४॥ इत्यत्र । २०१ । अत्र शुद्धदास्य- सख्यादि-भावमात्रेण योऽनभ्यः, स तु सर्वोत्तम इत्याह, (भा० ११।११ ३३)
है। उस से जानना चाहिये कि - सदाचार सम्पन्न भक्त सङ्ग ही भगवद् उन्मुखता के प्रति हेतु है । यहाँ पर साधु शब्द का अर्थ - सदाचार है।
पूर्व वर्णित साधु लक्षण में ईश्वर बुद्धि से विधिमार्ग में भजनशील द्विविध भक्त के मध्य में तारतम्य का उल्लेख किया गया है । अर्थात् जो ईश्वर बुद्धि से शास्त्र शासन से प्रवृत्त होकर भगवद् भजन करता । किन्तु काम्य कर्म ज्ञानादि का भी अनुष्ठान करता है-उस भक्त से अर्थात् कर्मज्ञानादि मिश्रा भक्ति साधक से ज्ञान कर्मादि अनावृत भक्ति साधक का श्रेष्ठत्व प्रदर्शित हुआ है । अर्च्चन मार्ग में प्रवृत्त साधक के त्रिविध विवरण पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में लिखित है । उस में कनिष्ठ भक्त के मध्य में उत्तम भक्त का लक्षण है-
“तापादि पञ्चसंस्कारी नवेज्या कर्म कारकः ।
अर्थ पञ्चकविद् विप्रो महाभ गवतः स्मृतः ॥
अर्थात् “तापादि पञ्च संस्कारी, नवेज्या कर्म कारक, अर्थ पञ्चक विद्विप्र” महाभागवत संज्ञा से अभिहित हैं । अर्थात् उक्त लक्षण युक्त भक्त, कनिष्ठ लक्षणाक्रान्त भक्त से उत्तम हैं । एवं मध्यम भागवत लक्षण में उक्त है-
“तापः पुण्ड्र तथा नाम मन्त्रो योगश्च पञ्चमः ।
अमी हि पञ्चसंस्काराः परमैकान्ति-हेतवः ॥ “५८३॥
ताप, पुण्डु, नाम, मन्त्र, याग - इन पाँच संस्कारों से युक्त भक्त कनिष्ठ भक्त से श्रेष्ठ है - अर्थात् मध्यम भक्त है । कनिष्ठ भक्त के लक्षण में कथित है–
शङ्ख चक्राद्युर्ध्व पुण्ड्र धारणाद्यात्मलक्षणम् । तन्नमस्करणञ्चैव वंष्णवत्वमिहोच्यते ॥ “५८४ ॥
शङ्क, चक्र, गदा, पद्म, ऊर्ध्वं पुण्ड्रादि वैष्णव चिह्न धारण करी एवं भगवान् को प्रणाम कारी व्यक्ति कनिष्ठ भागवत है ॥२००॥