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तदेवमुपदिष्टा भागवतसत्सु मूच्छित - कषायादयो महद्भेदाः । भागवत-सन्मानभेदाश्च तत् सन्मानभेदेषु ‘अर्चायामेव हरये’ इत्यादिना तत्तद्गुणाविर्भाव तारतम्यात् लब्ध-नारतम्याः कतिचिद्दशिताः । अथ साधन तारतम्येनापि तेषां तारतम्यमाह पञ्चभिः । तत्रावरं मिश्र- भक्तिसाधकमाह त्रिभिः, (भा० ११।११।२६–३१) -
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(१६८) “कृपालुरकृतद्रोह स्तितिक्षुः सर्व्वदेहिनाम् ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सव्र्वोपकारकः ॥ ५७८ ॥
कामै रहतधोर्दान्तो मृदुः शुचिर किञ्चनः ।
अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥ " ५७६ ॥
इस लोक में जीव मेरा ही सनातन अंश है । अर्थात् मैं जीव का नित्य अंशी हूँ, जीव मेरा नित्य अंश है । श्रीनारद पश्चरात्र में भी लिखित है-
" यत्तटस्थन्तु चिद्रूपं स्वसम्वेद्याद्विनिर्गतम् ।
रञ्जितं गुणरागेण स जीव इति कथ्यते ॥ “५७७॥
जीव को जो तटस्था शक्ति स्वरूप कहा गया है, उसका उद्देश्य यह है- जीव स्वरूपतः चेतन होने पर भी निज उपास्य श्रीभगवान से विमुख है, एवं सत्त्व, रज, तमोगुण से अनुरञ्जित है । इस से सुस्पष्ट बोध होता है कि-जीव. श्रीभगवान् का ही नित्य अंश एवं तटस्थाशक्ति है । अतएव उस जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, न तो नाश हो सकता उपाधि का नाश एवं उस को उत्पत्ति होती है । जो इस पाँच अर्थ को जानते हैं, एवं जो तापादि पञ्च संस्कार युक्त हैं, तथा नौ प्रकार यज्ञ कर्म कारी हैं, वे महाभागवत हैं यह महाभागवत लक्षण- अपेक्षिक है । अर्थात् अर्चनाङ्ग भक्ति साधक के मध्य में यह श्रेष्ठ हैं, किन्तु लाक्षणिक महाभागवत नहीं हैं ।
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श्रीहवि योगेश्वर निमिमहाराज को कहे थे ॥१६८॥
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भगवद् भक्त साधु वृन्द के मध्य में मूच्छित कषाय, निद्ध ंत कषाय, प्राप्त भगवत् पार्षद देह इन त्रिविध महतों का भेद प्रदर्शित हुआ है । भगवद् भक्त साधु मात्र का भेद भी उपदिष्ट हुआ है । उस में “अर्चायामेव हरय’ इस प्रकार के द्वारा भक्त वृन्द के हृदय में भक्ति आविर्भाव के तारतम्य के अनुसार साधु भक्त का तारतम्य का कुछ प्रदर्शन भी हुआ है । सम्प्रति कर्म, ज्ञानी, योगी एवं भक्त साधु वृन्द मध्य में गुणों की तरतमता के अनुसार साधु लक्षणों की तरतमता का वर्णन भा० ११।११।२६-३१ अध्याय में पाँच श्लोकों के द्वारा श्रीउद्धव के निकट श्रीकृष्ण किये हैं। उस के मध्य में कनिष्ठ कर्मज्ञान मिश्र साधकों का परिचय प्रदान तीन श्लोकों के द्वारा करते हैं - ११।११।२६– ३१ ।
(१६६) “कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्व्वदेहिनाम् ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः ॥ ५७८ ॥
कामंरहतधीर्दान्तो मृदुः शुचिरकिञ्चनः ।
अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥ ५७६ ॥
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अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमान् जितषड् गुणः ।
अमानी मानदः कल्यो मंत्रः कारुणिकः कविः ॥ “५८० ॥
टीका च - “कृपालुः परदुःखासहिष्णुः सर्वदेहिनां केषाञ्चिदपि अकृतद्रोहः, तितिक्षुः क्षमावान्, सत्यं सारः स्थिरं बलं वा यस्य सः, अनवद्यात्मा असूयादिरहितः, सुखदुःखयो समः, यथाशक्ति सर्वेषामुः कारकः, कामैरक्षुभितचित्तः, दान्तः संयतवाह्य न्द्रियः, मृदुर कटिन- चित्तः, शुचिः सदाचारः, अकिञ्चनोऽपरिग्रहः, अनीहो दृष्टक्रियाशून्यः, मितभुक् लध्वाहारः, शान्तो नियतान्तः- करणः, स्थिरः स्वधर्मे, मच्छरणो मदेकाश्रयः, मुनिर्मननशीलः, अप्रमत्तः सावधानः, गभीरात्मा निर्विकारः, धृतिमान् विपद्यप्यकृपणः, जितषड़ गुणः ‘शोकमोहौ जरा मृत्युः क्षुत्पिपासे षड़ र्मयः- एते जिता येन सः, अमानी न मानाकाङ्क्षी, अन्येभ्यो मानदः, कल्यः परबोधने दक्षः, मैत्रः अवञ्चकः, कारुणिकः करुणयैव प्रवर्त्तमानः, न तु दृष्टलोभेन, कविः सम्यग् ज्ञानी” इत्येषा । अत्र मच्छरण इति विशेष्यम् । उत्तरत्र ‘स च सत्तमः’ इति च-कारेण तु पूर्वोक्तो यथा सत्तमस्तथायमपि सत्तम इति व्यत्तिरेवमेवम्भूतो मच्छरणः सत्तम इत्याक्षिप्यते ॥
अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमान् जितषड़ गुणः ।
अमानी मानदः कल्यो मैत्रः कारुणिकः कविः ॥ “५८०॥
श्रीधरस्वामि पाद कृत टीका की व्याख्या- (१) कृपालु - परदुःख असहिष्णु, प्राणि मात्र के सम्बन्ध में अकृतद्रोह, अर्थात् अनिष्ट करने पर अनिष्टकारी के प्रति भी अनिष्ट आचरण न करना । (२) तितिक्षु- क्षमावान् । (३) सत्यसार - सत्य ही सार अर्थात् बल है जिस का (४) अनवद्यात्मा - अस्यादि दोष ररित । (५) सम - सुख एवं दुःख में समान, अर्थात् सुख में स्पृहा शून्य, दुख उपस्थित होने पर भी उद्वेग रहित (६) उपकारक - यथाशक्ति सब के हितकारी । (७) विषय भोग के द्वारा अक्षुब्धचित्त । (८) दान्त - संयत वाह्य ेन्द्रिय । (१) मृदु-अकठिन चित्त । (१०) अकिञ्चन - परिग्रह शून्य (११) अनीह दृष्ट क्रियाशून्य, (१२) मितभुक् -लघु भोजन कारी (१३) शान्त- संघत अन्तः करण । ( १४ स्थिर - निज धर्म में अचश्वल (१५) मच्छरण - एकमात्र मुझ को आश्रय करके स्थित (१६) मुनि - मननशील (१७) अप्रमत्त - सावधान (१८) गम्भीरात्मा - निर्विकार (१९) धृतिमान् - विपद् काल में भी कातरता शून्य (२०) जितसड़ गुण– जिस ने शोक, मोह, जरा, मृत्यु, क्षुधा, पिपासा, संसार सागर की इन छै तरङ्गों को जय किया है । (२१) अमानी - अन्य के निकट से जो मानाकाङ्क्षा नहीं करता है । (२२) मानद -जो दूसरे को सम्मान प्रदान करता है । (२३) कल्य जो दूसरे को प्रबोध प्रदान करने में निपुण (२४) मंत्र - जो दूसरे को वञ्चना नहीं करता है (२५) कारुणिक - पर दुख से कातर होकर जो समस्त कार्यों में प्रवृत्त होता है, किन्तु दृष्ट वस्तु लाभ हेतु किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है । (२६) कवि - सम्यक् ज्ञानी । यह है स्वामिपाद कृत टीका की व्याख्या ।
यहाँ पर ज्ञातव्य यह है कि- श्रीभगवत चरणों में शरणा गति का लक्षण ‘मच्छरणः " यह पद विशेष्य है, एवं अन्य पद समूह विशेषण हैं । कारण, श्रीभगवच्चरणों में आश्रय ग्रहण व्यतीत समस्त सद् गुण मायिक हैं, अर्थात् मायामय सात्त्विक हैं, यदि कोई श्रीभगवच्चरणों में आश्रय ग्रहण न करके
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