३४८ १६८
तथा (भा० ११।२।२५)
(१६८) “विसृजति हृदयं न यस्य साक्षा, -हरिरवशाभिहितोऽप्यधौ नाशः ।
प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्यः, स भवति भागवतप्रधान उक्तः ॥ “५५८ ॥
टीका च - “उक्त समस्तलक्षणसारमाह, -विसृजतीति । हरिरेव स्वयं साक्षाद्यस्य हृदयं न विसृजति, न विमुञ्चति । अवशेनाप्यभिहितमात्रोऽप्यघौघं नाशयति यः सः । तत् किं न विसृजति, यतः प्रणय-रसनया धृतं हृदये बद्धमङ्घ्रि पद्म यस्य स भागवतप्रधान उक्तो भवति " इत्येषा । अत्र कामादीनामसम्भवे हेतुः साक्षादिति पदम्, तदुत्तरकालत्वात् साक्षात्कारस्य । तथा ‘हरिरवशाभिहितोऽपि’ इत्यादिना य एता दृशप्रणयवांस्तेनानेन तु सर्व्वदा परमावेशेनैव
पुनः सन्ताषः प्रभवति । चन्द्र उदिते सति अर्कस्थताप इव । न यस्य स्वः पर इत्यादिना श्लोकत्रयेण यादृश इत्यस्योत्तर मुक्तं वेदितव्यम् । यद् ब्रूते इत्यस्य च हरिनामानीति ज्ञातव्यम् ॥”
श्रीभगवान् के प्रचुर पराक्रम शाली चरण युगल की शाखास्थानीय अगुली समूह की च्छटा से कामादि सन्ताप निरस्त जिस के हृदय में हुआ है। उस के हृदय में वासना का उद्गम कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार चन्द्रोदय होने से सूर्य्यसन्ताप नहीं रहता है, उस प्रकार हृदय गगन में श्रीहरिचरण चन्द्रिका का उदय होने से उस हृदय में कैसे कामादि जनित सन्ताप का उद्गम हो सकता है ॥ १६७॥
३४९ १६८
पूर्वोक्त उत्तम भागवत के लक्षण समूह का सार निष्कर्ष रूप एक लक्षण कहते हैं । अर्थात् जिस लक्षण के द्वारा उत्तम भागवत का परिचय उत्तम रूप से होता है, उस को कहते हैं । भा० ११।२।५५
(१६८) “विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्धरिरवश भिहितोऽप्यघौघनाशः ।
प्रणयरशनया घृताङ्घ्रिपद्मः, स भवति भागवतप्रधान उक्तः ॥ ५५८ ॥
टीका- उक्त समस्त लक्षण सारमाह विसृजतीति हरिरेव स्वयं साक्षात् यस्य हृदयं न विसृजति न मुञ्चति । कथम्भूतः ? अवशेनापि अभिहित मात्रोऽपि अघोघं नाशयति यः सः । तत् किं न विसृजति ? यतः प्रणयरसनया घृतं हृदयं निबद्धम् अङ्घ्रिपद्म
ं यस्य स भागवत प्रधान उक्तो भवति ।
पूर्व वर्णित लक्षण समूह का सार रूप उत्तम भागवत का असाधारण लक्षण कहते हैं । जिस के हृदय को साक्षात श्रीहरि ही परित्याग नहीं करते हैं। अर्थात् श्रीहरि, अनवरत जिस के हृदय में स्फूर्ति प्राप्त होते रहते हैं । कभी भी उसका हृदय को परित्याग नहीं करते हैं । जो हरि, अवश से - अर्थात् अनुसन्धान से भी कीत्तित होने पर पाप राशि को विनष्ट करते हैं। क्यों नहीं त्याग करते हैं ? कारण, प्रेमरज्जु से हृदय में चरण कमल बद्ध है। अतएव कैसे भक्त हृदय को छोड़ कर श्रीहरि जा सकते हैं ? इस इस प्रकार लक्षणाक्रान्त भक्त हो भागवतोत्तन होते हैं । शास्त्र में वर्णित है। यह है स्वामि पाद कृत टीका की व्याख्या । यहाँपर कामादि वासना एवं उसका संस्कार हृदय में न रहने के हेतु कथन निमित्त ‘साक्षात्’ पद का उल्लेख श्लोक में हुआ है । कारण, जब तक जिस हृदय में काम एवं कामवीज विद्यमान होगा तब तक उस हृदय में साक्षाद् रूप में प्रकाशित नहीं होते हैं । निष्ठा भक्ति का उदय होने पर रजस्तमोगुण से उत्थित लय विक्षेपादि एवं काम क्रोध लोभ प्रभृति हृदय को स्पर्श करने में सक्षम नहीं होते हैं। अतएव ज्ञान मार्ग में जिस प्रकार सम्पूर्ण लय विक्षेपादि विदूरित होने से ही ब्रह्म स्वरूप का अनुभव होता है, किन्तु भक्ति मार्ग में लय विक्षेपादि सम्यक विनष्ट न होने पर भी हृदय में श्रीभगवद् स्फूति होती है । ज्ञान
श्रीभक्ति सन्दर्भः
[[४०७]]
कीर्त्यमानः सुतरामेव ‘अघौघनाशः’ स्यादित्यभिहितम् । उक्तञ्च (भा० २।१।११) एतन्निविद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम्” इत्यादि । ततः उभयथैव तेषामघसंस्कारो न स्थातुमिष्ट इति ध्वनितम् । अनेन वाचिकलिङ्गमपि निद्दिश्य ‘यद्ब्रूते’ इत्यस्योत्तरमुक्तम् । प्रकरणेऽस्मिन “गृहीत्वापि” इत्यादीनामुत्तमभागवत लक्षणपद्यानाममीषामपृथक् पृथक् च वाक्यत्वं ज्ञ ेयम्, तथाभूत-भगवद्वशीकारवति भागवतोत्तमे तत्तल्लक्षणानामप्यन्तर्भावात्, क्वचिद्वित्रादिलक्षणमात्र दर्शनाच्च
1 तत्रापृथग्वावयतायामेकैकवाक्यगते नैकं केनैव लक्षणेनायमेव “सर्व्वभूतेषु” इत्याद्युक्तो महाभागवतो लक्ष्यते । तत्तद्धर्महेतुत्वेन तु ‘विसृजति’ इत्यादिना सर्वलक्षणसारोपन्यासः । या च तत्रापि ‘स्मृत्या हरेः’ इत्यादिना हेतुत्वेन स्मृतिरुक्ता,
ज्ञान मार्ग से भक्ति मार्ग का यही वैशिष्टय है । जो श्रीहरि नाम, अवश अवस्था में उच्चारित होकर पाप राशि को विनष्ट करते हैं, प्रीति पूर्वक एवं आवेश के सहित वह उच्चारित होने से तब पाप विष्ट होगा । इस में आश्चर्य क्या है ? इस अभिप्राय से ही भा० २।१।११ में उक्त है -
“एतन्निविद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्त्तनम् ॥”
टीका - साधकानां सिद्धानाञ्च न तः परमन्यत् श्रेयोऽस्तीत्याह, एतदिति । इच्छतां कामिनां तत्तत् फल साधनमेतदेव, निविद्यमानानां मुमुक्षूणां मोक्ष साधनमेतदेव योगिनां ज्ञानिनां फलञ्चैतदेव, निर्णीतं नात्र प्रमाणं वक्तव्यमित्यर्थः ॥
श्रीशुकदेवने कहा- हे राजन् ! मुमुक्षु, विषय भोगेच्छ एवं विमुक्त आत्माराम सब के सम्बन्ध में ही एकमात्र श्रीहरिनाम ही अकुतोभय रूप में निर्दिष्ट है । अतएव उभय प्रकार से ही उत्तम भागवत वृन्द में पापाचरण करने का संस्कार नहीं रह सकता । अर्थात् श्रीहरि, सर्वदा हृदय में अवस्थान करते हैं, उस में भी पाप संस्कार नहीं रह सकता। और अनवरत यदि वह भक्त श्रीहरिनाम ग्रहण करते हैं, तो, उस से पाप संस्कार रह ही नहीं सकता है। यह ध्वनित हुआ ।
इस लक्षण के द्वारा - वाचिक लक्षण निर्देश करके अर्थात् “यन ते " भगवद् भक्त क्या कहते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर भी इस श्लोक से हुआ है । अर्थात् हरिभक्त सर्वदा श्रीहरि कथा कहते हैं - यह उत्तर दिया गया है ।
इस प्रकार से उत्तम भागवत के लक्षण वर्णन हेतु जो सब उल्लिखित हुये हैं । अर्थात् इन्द्रिय के द्वारा विषय ग्रहण करके भी उस में हेय उपादेय दृष्टि शून्य होने के कारण, किसी भी विषय में द्वेष वा आकाङ्क्षा नहीं होती है । इस लक्षण से प्रारम्भकर अष्ट श्लोकों के द्वारा भागवत का लक्षण प्रकाश हुआ है । उस के मध्य में श्लोक समूह में उक्त भागवत लक्षण का भिन्नाभिन्नत्व है । इस प्रकार जानना होगा । श्रीभगवान् की वशीभूत करने में समर्थ उत्तम भागवत में पूर्वोक्त लक्षण समूह अतर्भूत होने के कारण एवं किसी भागवत में दो वा तीन लक्षण दृष्ट होने से महा भागवत लक्षण में उक्त समस्त लक्षणों का प्रकाश एकत्र होने पर भी वह परम भागवत स्वीकृत होगा । एवं दो वा तीन लक्षण दृष्ट होने से वह परम भागवत नहीं होगा - इस प्रकार सिद्धान्त सङ्गत नहीं होगा । उस के मध्य में- अपृथक् वाक्य में एक एक पृथक् वाक्य गत एक एक लक्षण द्वारा ही - ‘जो सर्व भूत में निज अभीष्ट श्रीभगवान् की सत्ता उपलब्धि करते हैं,” इत्यादि पूर्वोक्त लक्षण के द्वारा महा भागवत लक्षित होते हैं । किन्तु पूर्वोक्त महाभागवत के लक्षण
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तस्या एव विवरणमिदमन्तिमवाक्यमिति ज्ञेयम् । तत्र केनैव वाक्येन कृतेऽपि भागवतोत्तम- लक्षणे स्पष्टीकरणार्थमेवान्यद्वाक्यमिति समर्थनीयम् । अतएव पृथक् पृथक् भागवतोत्तम इत्याद्यनुवादोऽपि सङ्गच्टते पृथग् वाक्यतायान्तु यत्र साक्ष द्भगवत् सम्बन्धो न श्रूयते तत्र भागवत पदबलेनैव प्रकरणबलेनैव वा ज्ञेयः । पूर्वोत्तरपद्यस्थ- स्मृत्येत्यादि पदं वा योजनीयम् । तथात्र पक्षे चापेक्षिकमेवान्यत्र भागवतोत्तमत्वम् । तत्रोत्तरोत्तर चक्रमोऽयम्- ‘अच्चयामेव’
तत्रोत्तरोत्तरचक्रमोऽयम्- इति, ‘न यस्य जन्म-कर्म्मभ्याम्’ इति, ‘न यस्य स्वः परः’ इति, ‘गृहीत्वापीन्द्रियैः’ इति, ‘देहेन्द्रियप्राण’ इति । अस्य संस्कारोऽस्ति, किन्तु तेन विमोहो न स्यादिति मूच्छितसंस्कारोऽयं जात नवीनप्रेमाङ्कुरः स्यात् । तथा ‘न कामकर्म्मवीजानाम्, इत्यस्यैव विवरणम् -‘त्रिभुवन-
का सार वर्णन “विसृजति हृदयं” श्लोक के द्वारा हुआ है । अर्थात् जिस के हृदय में अनवरत श्रीभगवत् स्फूत्ति होती रहती है, वहीं महाभागवत है। इस आट श्लोकों के मध्य में “स्मृत्या हरे भगवत प्रधानम्” इस श्लोक का जो अर्थ किया गया है- “हृदय में अनवरत भगवत् स्मृति विद्यमान होने के कारण संसार धर्म से मुग्ध नहीं होता है” इस प्रकार अर्थ का भी मुख्य रूप से पर्यवसान अन्तिम वाक्य में ही हुआ है । अर्थात् “जिस के हृदय का साक्षात् श्रीहरि परित्याग नहीं करते हैं” इस लक्षण में हो पूर्वोक्त श्लोक का तात्पर्य पर्यवसित हुआ है। यह एक वाक्य के द्वारा है “अर्थात् हरि जिस हृदय को परित्याग नहीं करते हैं, वही श्रेष्ठ भागवत है” श्रेष्ठ भागवत का लक्षण पर्याप्त होता, अत्यधिक लक्षण करने का प्रयोजन हो क्या है ? उत्तर में कहते हैं- यद्यपि उक्त एक लक्षण से ही इष्ट सिद्धि होती, तथापि सुस्पष्ट करने के निमित्त ही अपरावर लक्षणों का प्रणयन हुआ है। अतएव पृथक् पृथक् लक्षणों के द्वारा भागवतोत्तम का परिचय प्रदान किया गया है । इस प्रकार अर्थ सुसङ्गत हो सकता है । किन्तु पृथक् पृथक् वाक्य में जहाँ साक्षात् भगवत् सम्बन्ध श्रुत नहीं है, वहाँ भागवत पदोल्लेख के द्वारा हो, अथवा प्रकरण बल से ही हो भगवद् भक्त लक्षण को जानना होगा । अथवा, पूर्वोत्तर लक्षण समूह में “भगवत् स्मृति द्वारा।” पद की योजना कर लेनी चाहिये । पक्षान्तर में पृथक् पृथक् रूप से भागवत लक्षण निर्णय हो तो, उस में आपेक्षिक उत्तमत्व जानना होगा। इस पक्ष में उत्तरोत्तर श्रेष्ठत्व का क्रम निम्नोक्त रीति से जानना चाहिये ।
[[390]]
1,
प्रथमतः “अचयामेव हरये” इस कनिष्ठ भागवत जक्षण से “न यस्य जन्म कर्माभ्यां” अर्थात् जिस की आसक्ति माथिक देह में जन्म, कर्म, वर्ण आश्रम, प्रभृति के द्वारा नहीं हुई है, वह उत्तम भागवत है - इस लक्षण का श्रेष्ठत्व है । इस लक्षण से “न यस्य स्त्रः परः” अर्थात् जिस के देह एवं गृह में स्व-पर बोध नहीं है, वह उत्तम भागवत है-लक्षणाक्रान्त भक्त का श्रेष्ठत्व है। इस से “गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान अर्थात् इन्द्रिय समूह के द्वारा विषय ग्रहण करके भी जो सर्वत्र हिष्णु माया वैभव दृष्टि से कहीं हेय उपादेय ज्ञान नहीं करता है, वह उत्तम भागवत है - इस लक्षण का श्रेष्ठत्व है । इस प्रकार लाक्षणिक भक्त से “देहेन्द्रिय प्राण मनोधियाम्” अर्थात् देह इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्ध, धर्म, जन्म, नाश, क्षुधा, भय, तृष्णा परिश्रम, जो यह सब धर्म के द्वारा मुग्ध वा विश्वान्त नहीं होता है, वह उत्तम भागवत है । यह लाक्षणिक भक्त-पूर्वापेक्षा श्रेष्ठ है । इस ल क्षणिक भक्त के सम्बन्ध में जानना होगा कि - इस भक्त के हृदय संस्कार है - किन्तु उस से भक्त मुग्ध नहीं होता है, इस को मूच्छित संस्कार कहते हैं । अर्थात् भजन के प्रभाव से संस्कार मूच्छित होकर है । इस में नवीन प्रेमाङ्कुर उत्पन्न हुआ है । अन्य लक्षण - “न काम कर्म वीजानां” अर्थात् जिस के हृदय में काम, कर्म दीज, वासना वा संस्कार नहीं है। वह उत्तम भागवत है ।
में
।
[[४०६]]विभवहेतवेऽपि’ इति । इयमेव नैष्ठिकी भक्तिर्ध्यानाख्या ध्रुवानुस्मृतिरित्युच्यते । अस्य प्रेमाकुरोऽप्यनाच्छाद्यतयैव जातोऽस्ति । अन्यथा तादृशस्मरण- सातत्याभावः स्यात् । अयं हि निर्धू तकषायो निरूढप्रेमाङ्कुर इति लभ्यते । तत ऊर्ध्वं साक्षात् प्रेमजन्मतः ‘ईश्वरे तदधोनेषु’ इति । अस्य मैत्र्यादिकं त्रयमपि भक्ति हेतुकमेवेति, न कषायस्थितिरवगन्तव्या । निर्धू तकवाय महाप्रेमसूचकस्य ‘सर्व्वभूतेषु’ इत्यस्य तु विवरणम् - ‘विसृजति’ इति ।
PE
“तापादिपञ्चसंस्कारी नवेज्याकर्म्मकारकः । अर्थपञ्चकविद्विप्रो महाभागवतः स्मृतः ॥ ५५६ इति पाद्मोत्तरखण्डोक्तं महस्वन्तु अर्चनमार्गपराणां मध्य एव ज्ञेयम्, असिद्धप्रीतित्वात् । अत्र तापादि - पश्चसंस्कारित्वम्, “तापः पुण्डू तथा नाम” इत्यादिना तत्र’ व दर्शितम् ।
है। इस श्लोक का ही विशेष विवरण, “त्रिभुवन विभव हेतवेऽप्यकुण्ठ स्मृति” अर्थात् त्रिभुवनस्थ वैभव प्राप्त करने का अवसर उपस्थित होने पर भी लब निमेषार्द्ध काल पर्य्यन्त जो श्रीहरि चरण विस्मृत नहीं होता है - वह उत्तम भागवत है, इस प्रकार कहा गया है। इस प्रकार ध्यानाख्या भक्ति का नाम हो नैष्ठिकी भक्ति वा ध्रुवानुस्मृति है । इस प्रकार लक्षणाक्रान्त भक्त में प्रेमाङ्कुर अनावृत है। ऐसा न होने से सतत उस प्रकार स्मरण की सम्भावना नहीं हो सकती है । इस प्रकार लक्षणाक्रान्त भक्त को ही निघूत कषाय वा सञ्जात प्रेमाङ्कुर जानना होगा। इस के बाद - साक्षात् प्रेमाङ्कुर का आविर्भाव हेतु जो उत्तम भागवत है-उस का विवरण “सर्व भूतेषु यः पश्येत्” इस लक्षण में व्यक्त हुआ है । ‘ईश्वर तदधीनेषु” इत्यादि लक्षण में कहा गया है, जो ईश्वर में भक्ति युक्त है, भगवद् भक्त में जिस की बन्धुता है, जो अज्ञ जन के प्रति कृपा एवं विद्व ेष कारी जन को उपेक्षा करता है - वह मध्यम भागवत है ।
इस लक्षण में वर्णित - भक्तजन के सहित मित्रता, अभक्त जन की प्रति दया, एवं निज विद्व ेषी व्यक्ति के प्रति उपेक्षा करता है-यह तीन ही भगवद् भक्ति से उत्थित हैं, एवं समझना होगा कि - इस के हृदय में कषाय नहीं है, अर्थात् भोग वासना का संस्कार नहीं है । समस्त भूतों में निज अभीष्ट भगवान् की सत्ता का अनुभव करना, एवं समस्त भूतों को भगवदाश्रित रूप में अनुभव करना निर्धूत कषायत्व का एवं महाप्रेम का परिचायक है । अर्थात् भक्त जिस समय सर्वभूत में निजाभीष्ट भगवान् की सत्ता को उपलब्धि करता है, उस समय जानना होगा कि उस के हृदय में भोग संस्कार नहीं है । एवं श्रीभगवान् में उसका प्रेमाविर्भाव हुआ है। इस लक्षण का विशेष विवरण - “विसृजति हृदयं” अर्थात् जिस के हृदय को साक्षात् हरि परित्याग नहीं करते हैं— इस श्लोक में है । अर्थात् जिस समय निरन्तर हृदय में साक्षात् श्रीहरि की स्फूति होगी, उस समय ही जानना होगा कि उस हृदय में प्रेम का आविर्भाव हुआ है । एवं सर्वभूत में भगवत् स्फूर्ति लाभ की योग्यता भी हुई है।
पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में जो महाभागवत का लक्षण वर्णित है— वह अच्चन अङ्ग
भक्ति साधक भक्त वृन्द के मध्य में उक्त लक्षणाकान्त भक्त का श्रेष्ठत्व प्रति पादक है । कारण-उस में भगवत् प्रीति का संवाद है ही नहीं। वह लक्षण यह है—न
“तापादिपञ्चसंस्कारी नवेज्याकर्म्म कारकः ।
"
अर्थपञ्चकविद्विप्रो महाभागवतः स्मृतः ॥ ५५॥
अर्थात् जो तापादि पञ्च संस्कारयुक्त एवं नव यागकारी तथा अर्थ पञ्चकको जानते हैं - वह महाभागवत । उस के मध्य में पद्म पुराण में ही लिखित है-ताप शब्द का अर्थ - मुद्राधारण, पुण्ड्र शब्द से ऊद्वं
[[४१०]]
नवेज्याकर्म कारकत्वञ्चानेन वचनेन दृश्यते,
“अर्चनं मन्त्रपठनं योगो यागो हि वन्दनम् । नाम संङ्कीर्त्तनं सेवा तह्नि रङ्कनं तथा ॥ ५६० ॥ तदीयाराधनञ्चेज्या नवधा भिद्यते शुभे । नवकर्म्मविधानेज्या विप्राणां सततं स्मृता ॥ " ५६१ ॥
अर्थ पञ्चक वित्त्वञ्च - उपास्यः श्रीभगवान्, तत्परमं पदम्, तद्द्रव्यम् तन्मन्त्रः, जीवात्मा
}
चेति पञ्चतत्त्व ज्ञातृत्वम् तच्च श्रीहयशीर्षे विवृतं सक्षिप्य लिख्यते, -
“एक एवेश्वरः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः । पुण्डरीकविशालाक्षः कृष्णच्छुरित मूर्द्धजः ॥५६२॥ वैकुण्ठाधिपतिर्देव्या लीलया चित्स्वरूपया । स्वर्णकान्त्या विशालाख्या स्वभावादुतिः । ५६३ ॥ नित्यः सर्व्वगतः पूर्णो व्यापकः सर्व्वकारणम् । वेदगुह्यो गभीरात्मा नानाशवत्युदयो नव ॥ ५८४ ॥ इत्यादि
“स्थानतत्त्वमतो वक्ष्ये प्रकृतेः परमव्ययम् । शुद्धसत्त्वमयं सूर्य्य चन्दकोटिसमप्रभम् ॥५६५॥
[[1]]
चिन्तामणिमयं साक्षात् सच्चिदानन्दलक्षणम् । आधारं सर्व्वभूतानां सर्व्वप्रलयवर्जितम् ॥ “५६६ ॥ इत्यादि " द्रव्यतत्त्वं शृणु ब्रह्मण प्रवक्ष्यामि समासतः । सर्व्वभोगप्रदा यत्र पादपाः कल्पपादपाः ॥ ५६७॥ भवन्ति तादृशा वल्लयस्तद्भवञ्चापि तादृशम् । गन्धरूपं स्वादुरूप द्रव्यं पुष्पादिकञ्च यत् ॥५६८ ॥ हेयांशानामभावाच्च रसरूपं भवेद्धि तत् । त्वग्वीजञ्चैव हेयांशं कठिनांशञ्च यद्भवेत् । ५६६॥ सर्वं तद्भौतिकं विद्धि न ह्यभूत्मयश्च तत् । रसस्य योगतो ब्रह्मन् भौतिक स्वादुवद्भवेत् ॥५७०॥ पुण्ड्र, नाम-शब्द से हरिदास प्रभृति नाम करण को जाना होगा । “नवेज्याकर्मकारकत्व " अर्थात् नवम प्रकार यज्ञ का कर्तृत्व का उल्लेख निम्नोक्त वचन द्वारा ज्ञात होता है ।
“अर्चनं मन्त्रपठनं योगो यागो हि वन्दनम् ।
नामसङ्कीर्त्तनं सेवा तच्चिह्न रङ्कनं तथा ॥ ५६०॥ तदीयाराधनञ्चेज्या नवधा भिद्यते शुभे ।
नवकर्म्मविधानेज्या विप्राणां सततं स्मृता ॥ ५६१॥
अर्चन, मन्त्र पाठ, योग, (चित्त वृत्ति निरोध ) याग (नित्य होम) वन्दन - (नमस्कार) नाम कीर्तन, श्रीविष्णु वैष्णव सेवा, भगवत् चरण चिह्नादि के द्वारा निज देह अङ्कन, एवं भगवद् भक्त की सेवा है । इस प्रकार आचरण करना ब्राह्मण वृन्द का एवं वैष्णव वृन्द का कर्तव्य है । अर्थ पञ्चक को जानना आवश्यक है - उपास्य श्रीभगवान् हैं, उनका धाम तत्त्व ज्ञान, श्रीधाम का द्रव्य, तरुलता, पशु पक्षी प्रभृति का स्वरूप ज्ञान, श्रीभगवन्मन्त्र का अर्थ ज्ञान, एवं जीव स्वरूप को जानना आवश्यक है। इस पाँच तत्त्व का ज्ञातृत्व एवं पञ्च तत्त्व का अर्थ विस्तार श्रीहपशीर्षपञ्चरात्र में है-उस का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है ।-
“एक एवेश्वरः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः । पुण्डरीकविशालाक्षः कृष्णच्छ रित मूर्द्धजः ॥ ५६२॥ वैकुण्ठाधिपतिर्देव्या लीलया चित्स्वरूपया । स्वर्णकान्त्या विशालाख्या स्वभावाद्गाद्माश्रितः । ५६३ । नित्यः सर्व्वगतः पूर्णो व्यापकः सर्व्वकारणम् । वेदगुह्यो गभीरात्मा नानाशवत्युदयो नव ॥ ५६४॥ “स्थानतत्त्वमतो वक्ष्ये प्रकृतेः परमव्ययम् । शुद्धसत्वमयं सूर्य्यचन्द्रकोटिसमप्रभम् ॥ ५६५॥ चिन्तामणिमयं साक्षात् सच्चिदानन्दलक्षणम् । आधारं सर्व्वभूतानां सर्व्वप्रलयवर्जितम् ॥ “५६६॥ " द्रव्यतत्त्वं शृणु ब्रह्मन् प्रवक्ष्यामि समासतः । सर्व्वभोगप्रदा यत्र पादपाः कल्पपादपाः ॥५६७॥ भवन्ति तादृशा वल्लयस्तद्भवञ्चापि तादृशम् । गन्धरूपं स्वादुरूपं द्रव्यं पुष्पादिकश्च यत् ॥ ५६८॥ हेयांशानामभावाच्च रसरूपं भवेद्धि तत् । त्वग्वीजञ्चैव हेयांशं कठिनांशञ्च यद्भवेत् ॥ ५६६ ॥
श्री भक्तिसन्दर्भः
[[४११]]
तस्मात् साध्यो रसो ब्रह्मन् रमः स्याद्व्यापकः परः । रसवद्भौतिकं द्रव्यमत्र स्यादसरूपकम् ॥ ५७१ ॥ “वाच्यत्वं वाचकत्वञ्च देव तन्मन्त्रयोरिह । अभेदेनोच्यते ब्रह्मन् तत्त्वविद्भिविचारितः ॥ ५७ ॥ इत्यादि । “मरुत् मागरसंयोगे तरङ्गात् कणिका यथा । जायन्ते तत्स्वरूपाश्च दुधसमावृत्ाः ॥ ५७३ ॥ आश्लेषादुभयोस्तद्वात्मानश्च सहस्रशः । सञ्जाताः सर्वतो ब्रह्मन् मूर्त्तामूर्त्तस्वरूपतः ॥ ५७४ ॥ इत्यादि
सर्वं तद्भौतिकं विद्धि न ह्यभूतमयञ्च तत् । रसस्य योगतो ब्रह्मन् भौतिकं स्वादुवद्भवेत् ॥५७० ॥ तस्मात् साध्यो रसो ब्रह्मन् रसः स्याद्व्यापकः परः । रसनद्भौतिकं द्रव्यमन्त्र स्यादुसरूपकम् ॥५७१ “वाच्यत्वं वाचकत्वञ्च देव- तन्मन्त्रयोरिह । अभेदेनोच्यते ब्रह्मन् तत्त्वविद्भिविचारितः ॥ ५७२ ॥ “मरुत्सागरसंयोगे तरङ्गात् कणिका यथा । जायन्ते तत् स्वरूपाश्च तदुपाधिर मावृताः ॥ ५७३ ॥ आश्लेषादुभय स्तद्वदात्मानश्च सहस्रशः । सज्जाताः सर्वतो ब्रह्मन् मूर्त्तामूर्त्तरवरूपतः ॥ ५७४ ॥
श्रीकृष्ण ही एक मात्र परमेश्वर हैं । सच्चिदानन्दविग्रह हैं, कमलदलवत् विशाल नेत्र कृष्णवर्ण सुकुञ्चित केश कलाप, द्वारा सुशोभित, विस्मय धाम की स्वामिनी चैतन्य स्वरूपिणी स्वर्ण कान्ति विशाल लोचनालं लाशक्ति द्वारा गाढ़ आलिङ्गित, नित्य, सर्वगत, पूर्णव्यापक, सर्व कारण, वेद गुह्य, गंम्भीरात्मा विविधशक्ति का समाश्रय हैं, एवं पुरातन हं ने पर भी प्रतिक्षण में अभिनव इत्यादि लक्षणों से निज अभीष्ट आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण तत्त्व का विस्तुत परिचय उल्लेख किया गया है । सम्प्रति स्थानतत्व का वर्णन करते हैं। यह धाम प्रकृति एवं कारण समुद्र के परवार में अवस्थित है । यह धाम, अव्यय, शुद्ध सत्त्वमय कोटि चन्द्र सूर्य सम कान्ति शाली चिन्तामणिमय भूमि, साक्षात् सत् चित् आनन्द स्वरूप, सर्वभूतों के आधार स्वरूप, एवं नित्य नैमित्तिक प्रभृति सर्व प्रलयवज्जित है ।
अधुना द्रव्य तत्त्व का वर्णन संक्षेप से करते हैं-धाम के प्रत्येक वृक्ष सर्व भोग प्रद हैं, लता समूह– कल्पलता सर्वभोग दायिनी, हैं, एवं उक्त तरुलता में जो सब फल, पुष्प, पत्र हैं, सब ही सच्चिदानन्द स्वरूप एवं सुगन्धि एवं आस्वाद्य स्वरूप हैं, हेयांश वर्जित होने के कारण रस रूप हैं। जिस में त्वक्, वीज, कठिनांश प्रभृति हेयांश विद्यमान हैं, वे ही पाञ्चभौतिक अर्थात् पञ्चभूत के विकार स्वरूप होते हैं, किन्तु श्रीभगवद्धाम जो सब पदार्थ हैं, वे सब अभौतिक हैं। रस युक्त होने के कारण, भौतिक आस्वादन के समान प्रतीत होते हैं । अतएव यह रस भूरि साधन लभ्य है । यह रस ही पर ब्रह्म है, रस विशिष्ट भौतिक द्रव्य, इस जगत् में रस रूप में विख्यात होता है । मन्त्र एवं उस के प्रति पाद्य देवता के मध्य में मन्त्र वाचक है, एवं देवता, उसका वाच्य है । वाच्य वाचक परस्पर भेद शून्य होने के कारण, तत्त्वज्ञ मुनिवृन्द इस में विचार करते हैं । अर्थात् मन्त्र एवं मन्त्र प्रतिपाद्य देवता में कोई भी भेद नहीं है, जो मन्त्र हैं, वही श्रीकृष्ण हैं, इस प्रकार अभेद भावना से उपासना न करने पर अभीष्ट वस्तु का आस्वादन नहीं होता है । समीर एवं सागर के संयोग से जिस प्रकार तरङ्ग उपस्थित होती है, उस तरङ्ग से ही भूरि भूरि जल कणिका उत्पन्न होती हैं, उस प्रकार चैतन्य सिन्धु में उपाधि संयोग से भगवत् स्वरूप भूत सहस्र सहस्र आत्मा की अभिव्यक्ति होती हैं । वहाँपर आश्रय स्वरूप परतत्त्व- मूर्त्त एवं अमूर्त- द्विविध रूप में नित्य अभिव्यक्त हैं । किन्तु श्रीभगवदाविर्भाव प्रभृति में निज निज उपासना शास्त्र की रीति के अनुसार कुछ विशेष है । अर्थात् मूर्त्त भगवत् स्वरूप समूह अनादि सिद्ध सच्चिदानन्द विग्रह हैं । उक्त श्रीविग्रह के कर चरणादि स्वरूप से भिन्न नहीं हैं । “आनन्द मात्र पाणि पाद मुखोदरादिः, सर्वत्र च स्वगत भेद विर्वाज्जतात्मा " श्रीभगवान् के हस्त पद मुख उदर प्रभृति आनन्द रस की ही अभिव्यक्ति हैं । आनन्द रस व्यतीत अपर कुछ भी नहीं है, निज चिच्छक्ति रूपा योगमाया की वैचित्र्यो से आनन्द रस वस्तु कर चरणादि विशिष्ट श्रीविग्रह रूप में अभिव्यक्त होते हैं। मनुष्य देह में अवयव प्रभृति में स्वगत भेद विद्यमान
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श्रीभक्तिस दर्भः
किन्तु श्रीभगवदाविर्भावादिषु स्वस्वोपासनाशास्त्रानुसारेणापरोऽपि विशेषः कश्चिज् ज्ञेयः । जीवनिरूपणञ्चेदम् (भा० १० ८७१३१) — “न घटत उद्भवः” इत्यनुसारेणोपाधि- सहितमेव कृतम् । निरुपाधिकन्तु ( वि० पु० ६।७।६१) -
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“विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञास्या तथापरा । अविद्याकर्मसंज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥ “५७५ ॥ इति श्रीविष्णुपुराणानुसारेण, तथा, ( गी० ७१५ ) -
“अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृति विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महावाहो ययेदं धार्य्यते जगत् ॥ " ५७६॥ इति,
( गी० १५/७ ) - " मर्मवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः” इति च श्रीगीतानुसारेण, तथा-
है, एक एक इन्द्रिय एक एक कार्य्य करने में सक्षम है ।
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किन्तु श्रीभगवान् के कर चरणादि में उस प्रकार स्वगत भेद नहीं है । कारण, अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्तिमन्ति” अर्थात् भगवा के प्रत्येक अङ्ग हो समस्त इन्द्रिय की शक्ति से परिपूर्ण है, भगवान् नेत्र से देखते भी हैं, सुनते भी हैं, कारण, विशुद्ध अनुभव वस्तु हो मूर्त्त श्रीभगवान् हैं। अतएव प्रत्येक अङ्ग ही प्रत्येक विषय का अनुभव करने में समर्थ है । केवल आनन्द वस्तु एवं मूत्तं श्रीभगवान् में किसी प्रकार भेद विद्यमान न होने पर भी आग्वादन में जो पार्थक्य की उपलब्धि होती है उस को विशेष कहते हैं, विशेष का लक्षण है । " स्वरूपाभिन्नत्वे सति, स्वरूप गत भेद निर्वाहको विशेषः” अर्थात् स्वरूप से भिन्न न होकर स्वरूप गत भेद निर्वाहक को विशेष करते हैं । श्रीकर चरणादि स्वरूप से भिन्न न होकर भी जिस के द्वारा भेदवत् प्रतीत होता है-उस का नाम हो विशेष है । निज निज उपासना शास्त्र के उल्लिखित भगवत् स्वरूप के सम्बन्ध में अपर कुछ विशेष है । हषशीर्ष पञ्च रात्र में जीव स्वरूप के अनुसार सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है-वह उपाधि को लक्ष्य करके ही सम्भव होता है, भा० १० ८०1३१ में भी उक्त है - न घटत उद्भवः " अतएव जहाँ जहाँ जीवोत्पत्ति की कथा कही गई है, वहाँ समझना होगा कि– उपाधि के सहित ही जीव का निर्देश हुआ है । अर्थात् उपाधि की उत्पत्ति है । एवं उपाधि का ध्वंश भी है, किन्तु ज व स्वरूप की उत्पत्ति नहीं है, न तो उस का ध्वंस ही है । निरुपाधि जीव के सम्बन्ध में विष्णु पुरण में उक्त है-
“विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञःख्या तथापरा ।
अविद्याकर्मसंज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥’ ५७५ ॥
श्रीविष्णु की तीन शक्ति हैं, उस में से स्वरूप शक्ति का नाम– ‘परा है, जीव शक्ति का नाम – ‘अपरा’ है, माया शक्ति का कार्य अविद्या एवं कर्म है । श्रीभगवद् गीता ७ ५ में भी उक्त है-
“अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महावाहो ययेदं धार्य्यते जगत् ॥ “५७६ ॥
श्रीकृष्ण अर्जुन को कहे थे - हे अर्जुन ! मेरी यह योग्या, माया शक्ति से श्रेष्ठा जीव स्वरूपा शक्ति की कथा सुनो, जो जीव शक्ति - इस जगत् में व्याप्त होकर है ।
श्रीभगवद् गीता के १५/७ में और भी कथित
“ममंत्रांशो जीवलोके जीवभूत. सनातनः
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“यत्तटस्थन्तु चिद्रूपं स्वसम्वेद्याद्विनिर्गतम् । रञ्जितं गुणरागेण स जीव इत्ति कथ्यते ॥ “५७७॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्रानुसारेण ज्ञेयम् ॥ हविर्योगेश्वरो निमिम् ॥