१६६

३४४ १६६

किञ्च, (भा० ११।२।५२)

(१६६) “त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुष्ठ, स्मृतिरजितात्मसुर। विभिर्विमग्यात् ।

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न चलति भगवत्पदारविन्दा, ल्लवनिमिषार्द्धमपि स वैष्णवाग्रयः ॥ ५५६॥

लोमज, मूर्द्धाभिषिक्त प्रभृति, इन सब के द्वारा जिस को उस देह में अहम्भाव नहीं होता है । अर्थात् मैं कुलीन, मैं तपस्वी, मैं ब्राह्मण, मैं सन्न्यासी इस प्रकार मायिक अभिमान, मायिक देह में नहीं होता है, किन्तु भागवत देह में ही आसक्त होता है। वह व्यक्ति ही श्रीहरि का प्रिय है, अर्थात् भागवतोत्तम है । पूर्व श्लोक के सहित इस श्लोक का अन्वय करना चाहिये । कारण, उत्तम भागवत लक्षण का परिचय प्रदान करना प्रस्तुत प्रकरण का उद्देश्य है । विशेष कर जब तक उत्तम भागवत नहीं होता है । तव तक श्रीहरि का प्रिय होने की सम्भावना नहीं है ॥१६४॥

३४५ १६५

उस प्रकार भा० ११।२ ५२ में वर्णित है-

[[11538]]

(१६५ ) " न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।

सर्व्वभूतसुहृच्छातः स वै भागवतोत्तमः ॥ “५५५॥

टीका - वित्तेषु स्वीयं परकीयमिति । आत्मनि स्वः पर इति ।

जिस की वित्त सम्पत्ति में स्वीय परकीय इस प्रकार भेद बुद्धि नहीं है। शरीर में भी स्वपर भेद ज्ञान नहीं है, अर्थात् यह मेरा, वह दूसरे का है, इस प्रकार बुद्धि नहीं है । अतएव पक्षपातित्व दोष शून्य है। यहाँ पक्ष पातित्व दोष निरास हुआ है । किन्तु व्यक्तिगत भेद का निरास नहीं हुआ है। इस प्रकार भेद दृष्टि शून्य होकर जो व्यक्ति सर्वभूत सुहृत् एवं शान्त होता है, वही भागवतोत्तम है ॥१६५॥

३४६ १६६

और भी भा० १११२५३ में कहा है-

(१९६) “त्रिभुवनविभव हे नवेऽप्यकुष्ठ, स्मृतिर जितात्मसुरादिभिविमृग्यात् ।

न चलति भगवत्पदारविन्दा, –ल्लवनिमिषार्द्धमपि स वैष्णवाग्रचः ॥ " ५५६ ॥ टीका - किश्व त्रिभुवन विभव हेतवेऽपि त्रैलोक्य राज्यार्थमपि लवार्द्धमपि निमिषार्द्धमपि भगवत् पदारविन्द भजनात् यो न चलति स वैष्णवाग्रयः

श्रीभक्ति सन्दर्भः

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अचलनत्वे हेतुः - त्रिभुवनेति । तत्र हेतुः - अजिते हरावेव आत्मा येषां तैब्रह्म प्रभृतिभिः सुरादिभिरपि विमृग्याद्दुर्लभादित्यर्थः ॥

B. १६७ । अपि च विषयाभिसन्धिना चलनं कामेनातिसन्तापे सति भवेत्, स तु भगवत्- सेवानिवृतौ न सम्भवतीत्याह, (भा० ११।२।५४)

(१६७) “भगवत उरुविक्रमाङ्घ्रिशाखा, नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे ।

हृदि कथमुपसीदतां पुनः स, प्रभवति चन्द्र इवोदितेऽर्कतापः ॥ ५५७ ॥ उरुविक्रमौ च तावङ्घ्री च तयोः शाखा अङ्गुलयः, चन्द्रिका तापहारिणी दीप्तिः, तापः कमादिसन्तापः ॥

ननु लवार्द्धमात्र भजनोपरमे चेत् तावान् लाभो भवेत् तत् कुतो न चलेत् । तत्राह । अकुण्ठस्मृतिः । भगवत् पदतोऽन्यत् सारं नास्तीत्येवं रूपा अष्ठा अनपगता स्मृतिर्यस्य सः । भगवत् पदारविन्दात् अन्यत् सारं नास्तीति कुतः ? अतः आह । अजिते हरावेव आत्मा येषां तथाभूतैः सुरादिभिरपि दुर्लमात् किन्तु केवलं विमृग्यात् तदपेक्षया सर्वस्य तुच्छत्वं स्मरन् यो न चलतीत्यर्थः ॥

अपर लक्षण का वर्णन करते हैं—जो त्रिभुवन विभव प्राप्ति हेतु भी लव निमेषार्द्ध काल भी भगवत् पदारविन्द भजन से विचलित नहीं होता है । जिस की श्रीहरि स्मृति क्षण काल के निमित्त भी विलुप्ता नहीं होती है, वह वैष्णव श्रेष्ठ है । कारण, जिन्होंने त्रिभुवन के आधिपत्य को प्राप्त किया है, ऐसे जो ब्रह्मादि हैं । वे भी जिन के चरण कमल को अन्वेषण हो करते रहते हैं । साधु कृपा से जिस ने श्रीहरि चरण स्मृति सौभाग्य को प्राप्त किया है। कुछ त्रिभुवन विभव हेतु कैसे वह ब्रह्मादि दुर्लभ श्रीहरि चरण स्मृति से वह अपने को विचलित करेगा। यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं है

इस अवस्था का नाम वानुस्मृति है । अर्थात् निष्ठा भक्ति है। इस अवस्था में लय, विक्षेप, कषाय, रसास्वाद एवं अप्रतिपत्ति यह पाँच अनर्थ - श्रीहरि चरण स्मरण कारी के मन को स्पर्श नहीं कर सकते हैं । गङ्गा प्रवाहवत् निष्ठाभक्ति प्राप्त हृदय विशुद्ध सत्व में प्रविष्ट होता है। अतएव रजस्तमो गुण सञ्जात काम लोभ प्रभृति राजस तामसभाव भी उस हृदय को स्पर्श करने में असमर्थ हैं । अर्थात् जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति- यह तीन अवस्था में हरिस्मृति अक्षुण्ण रहती है । इस अवस्था में उपनीत साधक को वैष्णवाग्रय को महाभागवत कहते हैं। तात्पर्य यह है कि-विषय वासना से चित्त आकृष्ट होने से विषयाभिसन्धि हेतु श्रीहरि चरण स्मृति से चित्त विचलित होता है । यह श्रीहरिस्मृति परायण चित्त से विलक्षण होता है। किन्तु भगवत् चरण र विन्द सेवा सुखानुभव होने से विषयानुसन्धान करने की सम्भावना ही नहीं रहती है ॥ १८६॥