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अथ केवलमानसलिङ्गेराह यावत् प्रकरणम् (भा० ११।२।४६ ) -

(१६२) “देहेन्द्रियप्राणमनोधियां यो, जन्माप्ययक्षुद्भय तर्ष कृच्छ्रः ।

संसारधम्मैरविमुह्यमानः स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः ॥ ५५१ ॥

यो हरेः स्मृत्या देहादीनां संसारधम्मैर्जन्माप्ययादिभिर्विमुह्यमानो न भवति, स भागवत- प्रधानः, उक्तञ्च श्रीगीतासु (७/२८)-

समूह का वर्णन करते हैं - भा० ११।२०४८ में उक्त है-

(१९१) “गृहीत्वापीन्द्रियं रर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति ।

विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः ॥ “५५०॥

टीका– पुनरष्टभिः श्लोकैरभ्यर्हितत्वात् उत्तम भागवतस्यैव लक्षणान्याह गृहीत्वापीति । श्रीवासुदेवाविष्ट चेता न गृह्णाति तावदिन्द्रियैरर्थान् गृहीत्वापीति - अपिशब्दार्थः । इदं विश्वम् ॥

जो इन्द्रिय समूह द्वारा विषय ग्रहण करके भी द्व ेष वा आकाङ्क्षा नहीं करते हैं, वे ही श्रेष्ठ भागवत हैं । द्वेष एवं आकाङ्क्षा न करने का कारण यह है कि- दृष्ट श्रुत इन्द्रिय ग्राह्य वस्तु मात्र ही श्रीविष्णु मात्रा द्वारा रचित है, अतएव इस में हेय उपादेय कुछ भी नहीं है । जिस प्रकार एक उपादान द्वारा निम्मित विभिन्न वस्तु समूह उपादान गत पार्थक्य नहीं है, उस प्रकार माया द्वारा रचित विश्व में हेय उपादेय बुद्धि करने की सम्भावना नहीं है । कारण- सभी मायामय हैं ।

पूर्व वर्णित रोति से उत्तम भावत के चित्त का आवेश श्रीभगवान् में होने के कारण, इन्द्रिय समूह के द्वारा विषय ग्रहण करके भी उस में उत्तम भागवत आविष्ट नहीं होते हैं। यह विश्व वहिरङ्गा माया शक्ति का विलास स्वरूप होने के कारण - अत्यन्त हेय है । इस लक्षण में भी कायिक एवं मानसिक चेष्टा का साङ्कथ्य है । इन्द्रिय द्वारा विषय ग्रहण करना— कायिक चेष्टा है । एवं विश्व मायामय है- यह भावना मानस भाव है ॥ १६१॥

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अनन्तर केवल मानसिक चिह्न द्वारा महाभागवत का परिचय प्रदान करते हैं- प्रकरण समाप्ति पर्य्यन्त महाभागवत के लक्षण का वर्णन होगा । भा० ११।२।५६

(१९२) “देहेन्द्रियप्राणमनोधियां यो, जन्माप्ययक्षुद्भयत र्षकृच्छ्रः ।

संसारधम्मैरविमुह्यमानः स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः ॥ " ५५१ ॥

टीका - देहादीनां संसारधर्मे जन्माप्ययादिभिर्यो हरेः स्मृत्या अविमुह्यमानः, स भागवत प्रधानः । तत्र देहस्य जन्माप्ययौ । प्राणस्य क्षुत् पिपासे । मनसो भयम् । बुद्धस्तर्षस्तृष्णा । इन्द्रियाणां कृच्छ्र श्रमस्तः ।

“येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्म्मणाम् ।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़वताः ॥ " ५५२॥