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अथ मानसलिङ्गविशेषेणैव मध्यमभागवतं लक्षयति ( भा० ११।२।४६) -
(१८८६) “ईश्वरे तदधीनेषु वालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेम-मैत्री - कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥ ५४४ ॥
परमेश्वरे प्रेम करोति, तस्मिन् भक्तियुक्तो भवतीत्यर्थः, तथा तदधीनेषु भक्तेषु च मैत्रीं
इत्यादि श्लोक में सर्वभूत में भगवद् भक्त गण निजाभीष्ट भगवान् की सत्ता की जो उपलब्धि करते हैं, उस में ब्रह्म ज्ञानी को लक्ष्य नहीं किया गया है। कारण, भगवद् भक्त गण - अभेद ब्रह्म ज्ञान एवं उस की फल रूप मुक्ति में तुच्छ बुद्धि हो करते हैं। विशेषतः जीव एवं भगवान् में धर्मगत जो पाथकच ब्रह्म ज्ञान में नहीं रहता है, वह ब्रह्म ज्ञान ही भगवद्धर्म्म का अत्यन्त विरोधी है । भा० ३।२६ १२ में उक्त “अहैतुकध व्यवहिता” इत्यादि श्लोक में कथित ऐकान्तिक भक्ति लक्षण के सहित ब्रह्म ज्ञान का विरोध उपस्थित होने के कारण ब्रह्म ज्ञान को कभी भी भक्ति नहीं कही जा सकती है । कारण, उत्तमा भक्ति लक्षण में उक्त है–
जो भक्ति, अव्यवहिता है, अर्थात् ज्ञान कर्मादि के सहित अमिश्रिता है एवं अहेतुकी शब्द से धर्म, अर्थ, काम मोक्ष कामना शून्या है, वह भक्ति, श्रोभगवान् में प्रयोजिता होने से सालोकय, सारूप्य, सामीप्य, एवं एकत्व यह पञ्चविधा भक्ति के प्रति तुच्छ बुद्धि हो जाती है। वस्तुतः जीव एवं ईश्वर में विभाग विद्यमान न होने से भक्ति की रक्षा हो ही नहीं सकती है । अतएव ज्ञानी को लक्ष्य करके भा० ११।२।४५ श्लोक की व्याख्या सङ्गत नहीं होगी । यदि कोई निराकार ईश्वर ज्ञान पर उस श्लोक की व्याख्या करते तो वह असङ्गत होगी । कारण, भागवद्धर्म लक्षण के ( भा० ११/२/५५) वाक्य उपसंहार में उस्लेख है । “प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्मः” अर्थात् जिन्होंने प्रणयरशना के द्वारा श्रीहरि के चरण कमल को हृदय में धारण किये हैं, वे ही भागवत् भक्त वृन्द के मध्य में उत्तम हैं । अतएव साक्षात् चरण कमल का उल्लेख होने के कारण, भागवत् धर्म लक्षण की व्यख्या निराकार पर करने से सर्वथा वह व्याख्या असमीचीन ही होगी । अथच यह लक्षण उत्तम भागवत वृन्द के मध्य में सर्वश्रेष्ठ लक्षण है । यह विषय विशेष रूप से विवेचनीय है ॥ १८८ ॥
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अनन्तर मानस लक्षण विशेष के द्वारा मध्यम भागवत का परिचय प्रदान करते हैं भा० ११।२।४६
(१८९) “ईश्वरे तदधीनेषु व लियेषु द्विषत्सु च ।
प्रेम मंत्री - कृपं. पेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥ " ५४४ ।
टीका - प्रेम च मंत्री च कृपा च उपेक्षा च ता ईश्वरादिषु चतुर्षु यः करोति स मध्यमो भागवतः । एवम्भूतस्य भेदस्य दर्शनात् ।
जो परमेश्वर में प्रेमवान् हैं, अर्थात् उन में भक्ति युक्त होते हैं । एवं ईश्वराधीन भक्त वृन्द में मंत्री अर्थात् उन के साथ बन्धुता स्थापन करते हैं, वालिश अर्थात् जो भगवान् में भक्ति करना नहीं जानते हैं, अथच श्रीभगवान् को एवं भक्त जन को द्वेष भी नहीं करते हैं. इस प्रकार उदासीन जन समूह को कृपा
"
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बन्धुभावम्, वालिशेषु तद्भक्तिमजानत्सु उदासीनेषु कृपाम, यथोक्तं श्रीप्रह्लादेन (भा० ७ ६।४३) “शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थ – मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान्” इत्यात्मनो द्विषत्सु उपेक्षा तदीयद्वषे चित्ताक्षोभेणौदासीन्य मित्यर्थः तेष्वपि वालिशत्वेन कृपांश सद्भावात् यथैव श्रीप्रह्लादो हिरण्यकशिपौ । भगवतो भागवतस्य वा द्विषत्सु तु सत्यपि चित्तक्षोभे तत्रानभिनिवेशमित्यर्थः । अस्य वालिशेषु कृपाया एव स्फुरणम्, द्विषत् सूपेक्षाया एव, न तु प्राग्वत् सर्व्वत्र तस्य तत्प्रेम्णो वा स्फुरणम्, ततो मध्यमत्वम् ।
अयोत्तमस्यापि तदधीनदर्शनेन तत्स्फुरणानन्दादयो विशेषत एव । ततश्च तस्मिन्नधिकैव मंत्री यद्भवति, तन्नो निषिध्यते, किन्तु सर्व्वत्र तद्द्भावावश्यकता विधीयते । परमोत्तमोत्तमेऽपि तथा दृष्टम् (भा० ४ २४।५७)
करते हैं । अज्ञजन गण के प्रति जो प्रचुरतर कृपा करते हैं, उस का विवरण भा० ७।६।४३ में है ।
“शोचे ततोविमुख चेतस इन्द्रियार्थ । मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ॥”
श्रीप्रह्लाद श्रीनृसिंह देव को कहे थे - हे नाथ ! जो लोक आप की कथासुधा का आस्वादन में विमुख हैं, अथच मायामय इन्द्रिय तृप्ति हेतु गुरुतर भार वहन कर रहे हैं मैं यह सब विमूढ़ मनुष्यों के निमित्त शोक कर रहा हूँ । इस से सूचित हुआ है कि, जो लोक श्रीभगवान् में भक्ति करना नहीं जानते हैं, भक्त, उनके प्रति भी कृपा करते हैं । चतुर्थ लक्षण - अर्थात् मध्यम भागवत का लक्षण यह है । जो लोक द्वेष करते हैं, उस को अपेक्षा करते हैं, अर्थात् उस के द्वारा अनुष्ठित विद्वेष से चित्त क्षुब्ध न होकर उदासीन ही रहता है । किन्तु अज्ञ बुद्धि से द्वेष कारी व्यक्ति को कृपा ही करते हैं । उसका उदाहरण - प्रह्लाद के आचरण में है, प्रह्लाद के प्रति दारुण विद्वेषी हिरण्य कशिपु के प्रति प्रह्लाद की करुणा हुई थी। इस का उल्लेख भा० ७ १० में है । यदि कोई कभी श्रीभगवान के भक्त गण को विद्वेष करता है तो, भक्त का चित्त उस से क्षुब्ध होने पर भी विद्वेष कारी के प्रति चित्त का अभिनिवेश नहीं रहता है । यह मध्यम भागवत का लक्षण है, जिस में अज्ञजन के प्रति कृपा ही स्फुरित होती है, एवं स्वयं के प्रति विद्वेष कारी के प्रति उपेक्षा ही रहती है । किन्तु उत्तम भागवत के समान सर्वत्र श्रीभगवान् की अथवा भगवद् विषयक प्रेम की स्फूति नहीं होती है । अतः यह मध्यम भागवत हैं । उत्तम भागवत भी भगवद् भक्त को देख कर भगवत् स्फूर्ति हेतु आनन्द विभोर होते रहते हैं । अतएव भगवद् भक्त वृन्द के प्रति उत्तम भागवत का जो बन्धुभाव होता है, उसका निषेध नहीं हुआ है । अर्थात् उत्तम भागवत की सर्वत्र भगवद् दृष्टि होने पर भी भगवद् भक्त जन में बन्धु भाव भी विशेष रूप से प्रकाशित होता है, किन्तु सर्वत्र भगवद् भाव की सत्ता स्फूर्ति की आवश्यकता विहित हुई है । अर्थात् किसी भी अवस्था में उत्तम भागवत में भगवत् स्फूर्ति का व्याघात नहीं होता है । किन्तु उत्तम भागवत में भक्त जन के प्रति बन्धु भाव ही दृष्ट होता है । यहाँपर ज्ञातव्य यह है कि पूर्व में उत्तम भागवत को तीन अवस्था वर्णित हुईं हैं। उस में प्राप्त पार्षद देह, उत्तम भागवत वृन्द के मध्य में उत्तम है। निघू तकषाय - उत्तम भागवत गण के मध्य में मध्यम, हैं, एवं मूच्छित कषाय - उत्तम भागवत वृन्द के मध्य में कनिष्ट हैं। निखिल भागवत दृन्द के मध्य में श्रीमहादेव सर्वोत्तम हैं । भा० ४।२४।५७ के रुद्रगीत में उक्त है-
[[३६८]]
“क्षणार्द्धनापि तुलये न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
भगवत्सङ्गिसङ्गस्य मत्त्यानां किमुताशिषः ॥ ” ५४५ ॥ इति ।
(भा० ४।२४।३०) “अथ भागवता यूयं प्रियाः स्थ भगवान् यथा” इति च श्रीरुद्रगीतात्,
(भा० १/७/११)
“हरे गुणाक्षिप्तमतिर्भगवान् बादरायणः ।
अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥ " ५४६ ॥
इति श्रीसूतवाक्याच्च । एवं (भा० १०।१।३५) “भोजानां कुलपांसनः” इत्यादौ तत्र बादरायणि-प्रभृतीनां द्व ेषोऽपि दृश्यते, किन्तु मध्यमानां नत्रानभिनिवेश एव
“क्षणार्द्धनापि तुलये न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
भगवत् सङ्गिसङ्गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ ५४५॥
हे प्रभु ! जो आप में गाढ़ आसक्त हैं, उस प्रकार भगवद् भक्त के क्षणार्धकाल सङ्ग के सहित स्वर्गीय सुख एवं मोक्ष सुख की तुलना की सम्भावना ही नहीं की जा सकती है । अर्थात् भगवद् भक्ति प्रिय भक्त के क्षणार्धकाल सङ्ग से जो निविड़ आस्वादन प्राप्त होता है, स्वर्गीय भोग विलास किंवा निर्विशेष ब्रह्मानन्दानुभव से उस जातीय एवं उस परिमाण निविड़ आनन्दास्वादन नहीं होता है। भक्त सङ्ग सुख के सहित जब मोक्षसुख की ही तुलना नहीं होती है, तब मरण धर्म शील मानव वृन्द के राज्यादि सुख के सहित भक्त सङ्ग जनित सुख की तुलना हो ही नहीं सकती है, इस को कहना ही क्या है ? भा० ४।२४।३० में प्रचेतागण के निकट स्वयं रुद्र ने ही कहा है-
“अथ भागवता यूयं प्रियाः स्थ भगवान् यथा ।
न मद् भागवतानाञ्च प्रेयानन्योऽस्ति कर्हिचित् ॥
हे प्रचेता गण ! भगवान् मेरा जिस प्रकार प्रिय हैं, भगवद् भक्ति निष्ठ आप सब भी उस प्रकार प्रिय हैं। भक्ति निष्ठु भक्त वृन्द का भी मुझ को छोड़कर अधिक प्रिय कोई नहीं हैं ।
उत्तम भागवत वृन्द में उक्त जन के प्रति जो बन्धु भाव विद्यमान है, उस का विवरण प्रस्तुत प्रकरण से प्राप्त हुआ। भा० १।७।११ में भी श्रीसूतने कहा है-
“हरेर्गुणाक्षिप्तमतिर्भगवान् बादरायणः ।
अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥ ५४६॥
टीका - ननु भक्त कुर्वन्तु नाम, एतच्छास्त्राभ्यासे शुकस्य किं कारणमित्यत आह. हरेरिति । अध्यगाद्
। अधीतवान् । विष्णुजनाः प्रिया यस्येति । व्यख्यानादि प्रसङ्गेन तत् सङ्गति काम इति भावः । एतेन तस्य पुत्रो महायोगीत्यादिना शुकस्य व्याख्यानेन प्रवृत्तिः कथमिति यत् पृष्टं तस्योत्तरमुक्तम् ।
भगवान् बाउरायणि शुकदेव श्रीहरि के गुण श्रवण से आक्षिप्त मति होकर बृहदाख्यायिकामय श्रीमद् भागवत श्रीकृष्णद्वैपायन के निकट से अध्ययन किये थे । कारण- शुकदेव सर्वदा विष्णु जन प्रिय थे । अर्थात् श्रीहरि भक्त ही उन के अत्यन्त प्रिय थे । अथवा निखिल हरिभक्त वृन्द के मध्य में शुकदेव अत्यन्त प्रिय थे । इस से भी उत्तम भागवत, भक्त जन के प्रति बन्धुभाव स्थापन करते हैं, यह वृत्तान्त ज्ञात होता है । एवं “भोजानां कुल पांसनः” भा० १०।१।३५ के वृत्तान्त के अनुसार ज्ञात होता है । कि-श्रीशुक
[[३६६]]स्फुरति । तेषान्तु तत्रापि तद्विधशास्तृत्वेन निज भोष्टदेवपरिस्फूर्तिर्न व्याहन्यत एवेति विशेषः । तद्दृष्टयव च श्रीमदुद्धवादीनामपि दुर्योधनादौ नमस्कारः (भा० ४।३।२३) - ’ सत्त्वं विशुद्धं वसुदेव-शब्दितं, यदीयते तत्र पुमानपावृतः” इत्या’ द श्री शिववावयवत् । उक्तञ्च लक्ष्मणाहरणे (भा० १०१६८ १७) “सोऽभिवन्द्याम्बिकापुत्रम्” इत्यादौ दुर्योधनं चेति । यत्र पक्षे च स्वकीय- भावस्यैव सर्व्वत्र परिस्फूर्तेः श्रीभगवदादि-द्विषत्स्वपि सा पर्यवस्यति, तत्र च नायुक्तता, यतस्ते निजप्राणकोटिनिर्मञ्छनीय तच्चरण पडू जप र ग शास्तेषां दुर्व्यवहारदृष्टया क्षुभ्यन्ति । स्वीय-भावानुसारेण त्वेवं मन्यन्ते - अहो ईदृशश्चेतनो वा कः स्याद् यः पुनरस्मिन् सर्वानन्द- कन्दकदम्बे निरुपाधि-परम प्रेमास्पदे सकललोकप्रसादक-सद्गुणमणिभूषिते सर्वहित–
प्रभृति महाभागवत वृन्द- भक्त भगवद् विद्वेषि वृन्द के प्रति विद्वेष भी करते थे। किन्तु, मध्यम भागवत में भक्त भगवद् विद्वेषि वृन्द के प्रति अनभिनिवेश स्फूति होती है । किन्तु उत्तम भागवत गण की भक्त भगवद् द्व ेषिगण में भी शासन कर्त्तारूप में निजेष्ट देव की स्फूत्ति होती ही है । अर्थात् जो लोक भक्त एवं भगवान् को विद्वेष करते हैं, उनके द्वेष आचरण को देखकर उत्तम भागवत वृन्द के मन में निजेष्ट देव भगवान् की स्मृति ही जगती है । उस प्रकार स्फूर्ति इस प्रकार से होती है- उक्त विद्वेषिगण के शास्ता, प्राणप्रिय श्रीगोविन्द व्यतीत अपर कोई भी नहीं हैं । मध्यम भ गवत से उत्तम भागवत की मनोगत दृष्टि से ही भगवद् विद्वेषी दुर्योधन प्रभृति को प्रणाम श्रीउद्धव प्रभृति करते थे । यहाँ समझना होगा किस भा० ४।३।१३ में वर्णित “सत्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितं " यदीयते तत्र पुमानपावृतः । श्रीशिव - शिवानी को कहे थे – विशुद्ध सत्त्व का नाम ही वसुदेव है । उस विशुद्ध सत्व में ही प्रकाशमान तत्त्व का नाम वासुदेव है, मैं उन वासुदेव को अन्तर्मनाः होकर निरन्तर प्रणाम करता हूँ । देह दृष्टि से अथवा देहाभिमानी दृष्टि से किसी को प्रणाम नहीं करता हूँ । किन्तु प्रति हृदय में अन्तर्य्या मरूप में विराजित श्रीवासुदेव ही मेरा प्रणम्य हैं। “गुहाशयायैव न देहमानिने” इस प्रकार श्रीशिवोक्ति के समान ही उत्तम भागवत श्रीउद्धव प्रभृति भी दुर्योधनादि के प्रति नमस्कारादि व्यवहार करते थे । भा० १०/६८ १७ के लक्ष्मणाहरण प्रसङ्ग में उक्त है-
“सोऽभिवन्दयाम्बिकापुत्रम्”
लक्ष्मणाहरण प्रसङ्ग में समाधान हेतु श्रीबलराम का आगमन कौरव गणके निकट हुआ था, इस समय श्रीबलराम उद्धव के द्वारा निज आगमन संवाद सूचित किये थे । उद्धव भी प्रथमतः अम्बिका पुत्र धृतराष्ट्र को तत् पश्चात् द्रोणाचार्य को, बह्निक प्रभृति को एवं अनन्तर दुर्योधन को विधिवत् प्रणाम करके श्रीबलराम की आगमन वार्त्ता निवेदन किये थे । इस से विदित होता है कि भगवद् विद्वेषी जन को भी उत्तम भागवत प्रणाम करते हैं । उक्त श्लोक की पक्षान्तर व्याख्या में भी समाधान समानरूप से ही होता
। उत्तम भागवत वृन्द सर्वत्र चेतनाचेतन में निजाभीष्ट भाव की सत्ता उपलब्धि करते हैं जो लोक, भक्त एव भगवान् के प्रति द्वेष करते हैं, उन में भी स्वीय अभीष्ट भाव की स्फूर्ति ही होती है। कारण, उत्तम भागवत वृन्द के हृदय प्राणको ट निर्म्मञ्छनीय हरिचरण पङ्कज लेशके द्वारा सतत परि भावित हैं, तज्जभ्य विरोधी व्यक्तियों की दुर्व्यवहार दृष्टि से वे अत्यन्त क्षुब्ध दिखाई देते हैं। महाभागवत वृद्धि किन्तु इस प्रकार भाते रहते हैं - इस जगत् में ऐसा कौन चेतन व्यक्ति हैं-जो सर्वानन्दकन्द कदम्ब, निरुपाधि परम प्रेमास्पद, सकल लोक सुखद, एवं सद् गुण मणि भूषित हैं, जिन की लीला सुधा निखिल सद्गुण
मण्डित सर्वजन हितकारिणी है, उन लीला पुरुषोत्तम में वा उन के प्रियजन में प्रीति न करके रह सकते हैं ।
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पर्य्यवसायिचर्थ्यामृते श्रीपुरुषोत्तमे तत्- प्रियजने वा प्रीति न कुर्वीत, तद्द्वशेषकारण तु सुतरामेवास्मबुद्धिपद्धतिमत्तीतम् । तस्माद्द्ब्रह्मादि स्थावर पर्यन्ता अदुष्टा दुष्टाश्च तस्मिन् बाढ़ रज्यन्त एवेति । तदुक्तं श्रीशुकेन, (भा० ११।२१-२) -
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“गोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह ।
अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः ॥ ५४७॥
को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकुन्दचरणाम्बुजम् ।
।
न भजेत् सर्वतोमृत्युरुपास्यममरोत्तमैः ॥ “५४८ ॥ इति ॥
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