१८८

३२९ १८८

तत्रोत्तरम्, श्रीहविरुवाच (भा० ११।२।४५)

(१८८) “सर्व्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः ।

भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ॥ " ५४३ ॥

तत्र तत्तदनुभावद्वारावगम्येन मानसलिङ्गेन महाभागवतं लक्षयति, - सर्व्वभूतेष्विति

टीका - भागवतस्य भवन्तीत्युक्ते तस्य लक्षणं पृच्छति अथेति । यद्धर्मो यस्मिन् धर्मे परिनिष्ठितः यादृशो यत् स्वभावः । यथा चरति, वर्त्तते ब्रूते वा । यैश्च लिङ्गर्भगवतः प्रियो भवति ।

निमि महाराज ने कहा, - आप सबने भागवद् धर्म का वर्णन किया है । सम्प्रति भगवद् भक्त लक्षण जानने के इच्छ ुक हूँ- कृपया वर्णन करें, भगवद् भक्त का लक्षण इस प्रकार वर्णन करें जिस से मैं जान सकूँ कि यह श्रीभगवान् के भक्त हैं । अर्थात् भगवद् भक्त का स्वभाव वर्णन करें। भगवद् भक्त जि प्रकार आचरण करते हैं-अर्थात् अनुष्ठान करते हैं, उन के कायिक वाचिक मानसिक अनुष्ठान का विषय वर्णन करें, तृतीयतः भक्त जो कुछ कहते हैं-उस का वर्णन करें ! इस प्रकार प्रश्न होने से ज्ञातव्य विषय का तात्पर्य यह होता है कि-भगवद् भक्त की कायिक वाचिक मानसिक क्रिया को जानना । किन्तु भा०

११.२।३६ में जो कहा गया है-

漢宮

‘शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्ग पाणे र्जन्मानि कर्माणि च यानि लोके । गीतानि नामानि तदर्थ कानि गायनु विलज्जो विचरेदसङ्गः ॥” ।

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इस से उक्त प्रश्न का विषय सुपरिस्फुट हुआ है, ऐसा होने पर पुनर्वार विशेष रूप से भक्त परिचय प्राप्त करने की आवश्यकता ही क्या है ? श्रीकवि योगीन्द्र ने उस प्रकार भक्त चरित्र का वर्णन भी किया है । यह सत्य है कि – भगवद भक्त का परिचय साङ्गोपाङ्ग रूप से उक्त श्लोक द्वारा हुआ है। तथापि पूर्व वर्णित विषय का ही अनुवाद करके भक्त गत वैशिष्टय को जानना चाहते हैं । अर्थात् उत्तम मध्यम, कनिष्ठ भक्त किस लक्षण से होते हैं- उस विषय का वर्णन सलक्षण करें, यही है प्रश्न कर्त्ता का अभिप्राय । ॥ १८७॥

३३० १८८

उक्त प्रश्न के उत्तर प्रदान करने के निमित्त श्रीहवि नामक द्वितीय योगीन्द्र ने कहा, भा० ११।२।४५

(१८८) “सर्व भूतेषु यः पश्येद् भगवद् भावमात्मनः ।

भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ॥ “५४३ ॥

टीका - यद्धर्मो इत्यस्योत्तरमाह त्रयेण । सर्वभूतेष्विति । आत्मनः स्वस्य सर्व भूतेषु ब्रह्म भावेन समन्वयं पश्येत् । तथा ब्रह्म रूपे आत्मनि अधिष्ठाने भूतानि च यः पश्येत् । यद्वा, आततत्वात् प्रमातृत्वादात्मा हि परमो हरि रिति तन्त्राक्तेरात्मनो हरेः सर्वभूतेषु मशकादिष्वपि नियन्तृत्वेन वर्त्तमानस्य भगवद् भावं

[[३६९४]]

(( भा० १११२१४० ) “एवं व्रतः स्वप्रियनामको, जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः” इति श्रीकवि- वाक्योक्तरीत्या यश्चित्त-द्रव-हास - रोदना द्यनुभावकानुरागवशत्वात् (भा० ११ २।४१) “खं वायुमग्निम्” इत्यादि तदुक्तप्रकारेणैव चेतना चेतनेषु सर्व्वभूतेषु आत्मनो भगवद्भाव-

निरतिशयश्वय्र्यमेव यः पश्येत् । न तु तस्य तारतम्यम् । तथा आत्मनि हरावेव भूतानि च यः पश्येत् । कथम्भूते ? भगवति अप्रच्युतैश्वय्यं रूपे । न पुन जड़मालिन्य भूताश्रयत्वेन जाडचापि प्रसक्तचा ऐश्वर्यादि प्रच्युति पश्येत् । स सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्तत्त्वं पश्यन् भागवतोत्तम इत्यर्थः ।

भक्त वृन्द के अनुभाव रूप मानसिक चित्रण के द्वारा भक्त परिचय प्रदान करने के निमित्त कहते हैं- सर्व भूतेषु यः पश्येत् भगवद् भाव मात्मनः ॥ इस के पहले भा० ११।२।४० में कहा गया है- “एवं व्रतः : स्व प्रियनाम कीर्त्या " इस के अनुसार चित्तद्रव, हास्य, रोदन, प्रभृति जो अनुराग का अनुभाव लिखित हुआ है, उस अनुराग के वशवर्ती होकर आकाश, वायु, अग्नि, सलिल, एवं पृथिवी को निज अभीष्ट श्रीगोविन्द रूप में दर्शन करते हैं, वे ही भागवतोत्तम हैं । उस प्रकार हो जा चेतन अचेतन समस्त भूतों में । निज अभीष्ट भगवान् का आविर्भाव का अनुभव करते हैं, अर्थात् जो जिस भगवत् स्वरूप में प्रेमवान् हैं, उस भगवत् स्वरूप को, चेतन अचेतन सर्वभूतों में विद्यमान है, इस प्रकार अनुभव करते हैं - वे ही उत्तम भागवत हैं । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि- भा० ११।२।४१ में कहा गया है- ‘खं वायुमग्निम् " चेतन अचेतन समस्त भूतों को अभीष्ट श्रीभगवान् रूप में ही दर्शन करते हैं, अर्थात् स्थावर सङ्गम प्रभृति की मूर्ति नहीं देखते हैं, किन्तु निज अभीष्ट देव को ही देखते हैं, वे ही उत्तम भागवत हैं। इस में समस्त वस्तु को कर्म रूप में निर्देश किया गया है। किन्तु “सर्व भूतेषु यः पश्येत् " इस श्लोक में चेतन अचेतन वस्तु समूह को अधिकरण रूप में उल्लेख किया गया है । अर्थात् सर्व भूताधिकरण में निज अभीष्ट श्रीभगवान् का दर्शन करते हैं, वे भागवतोत्तम हैं। प्रस्तुत स्थल में स्थावर जङ्गम की मूर्ति का दर्शन करते हैं, किन्तु प्रत्येक के मध्य में निज सभीष्ट श्रीभगवान् हैं इस रीति से श्रीभगवत् सत्ता की उपलब्धि सर्वत्र करते हैं ।

पृथक्

उक्त प्रकार द्वय के द्वारा उत्तम भागवत के मानसिक अनुभवगत पार्थ्यक्य का प्रदर्शन हुआ है । तात्पर्य्य यह है कि—निज अभीष्ट श्रीगोविन्द में जब अनुराग की प्रगाढ़ता प्रकटित होती है, उस समय स्थावर जङ्गम की मूर्ति का दर्शन नहीं होता है । साक्षात् निजअभीष्ट श्रीभगवान् का ही दर्शन भागवतगण करते हैं । किन्तु जिस समय अनुराग कुछ तरल होता है, उस समय स्थावर जङ्गम की मूर्ति को तो देखते हैं, किन्तु प्रत्येक के मध्य में निज अभीष्ट श्रीभगवान् की ही सत्त्वा की उपलब्ध करते हैं। यही है उत्तम भागवत के मानसिक अनुभाव की द्विविध अवस्था । तृतीय अवस्था यह है-

जिस समय परिपूर्ण भक्ति का प्रकाश हृदय में होता है, उस समय चेतन अचेतन भूत समूह को निज चित्त में स्फूर्ति प्राप्त अभीष्ट श्रीभगवान् के आश्रित रूप में ही अनुभव भागवत गण करते हैं । अर्थात् समस्त वस्तु ही श्रीभगवान् को आश्रय करके हैं । जगत् में कोई भी अभक्त नहीं हैं, ऐसे कोन होंगे, जो : भजन योग्य मनुष्य देह प्राप्त करके भी अहैतुक कारुण्यादि गुण गणार्णव श्रीभगवान् का भजन न करके

रहेंगे। इस अभिप्राय से ही श्रीशुकदेव ने भा० ११२ में कहा है।(1)

" को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकुन्द चरणाम्बुजम् ।

न भजेत् सर्वतोमृत्युरुपास्य ममरोत्तमैः ॥”

है राजन् ! इन्द्रियवान् कौन व्यक्ति ऐसा होगा जो आत्माराम परमहंस कर्त्ती के आराध्य पदारविन्द श्रीमुकु द का भजन न करके रह सकता है ? कारण, उनका भजन न करने से मृत्यु से निस्तार नहीं होता

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मात्माभीष्टो यो भगवदाविर्भावरतमेवेत्यर्थः, पश्येद्नुभवति, अतस्तानि च भूतानि आत्मनि स्वचित्ते तथा स्फुरति यो भगवान् तस्मिन्नेव तदाश्रितत्वेनैवानुभवति, एष भागवतोत्तमो भवति ! इत्थमेव श्रीव्रजदेवी भिरुक्तम् (भा० १०।३५।६) “वनलतास्तरव आत्मनि विष्णु, व्यञ्जयन्त इव पुष्पफलाढ्याः” इत्यादि, यद्वा, आत्मनो यो भगवति भावः प्रेमा तमेव चेतनाचेतनेषु भूतेषु पश्यति । शेषं पूर्ववत् । अतएव भक्तरूप-तदधिष्ठान बुद्धिजातभक्तचा तानि नमस्करोतीति “खं वायुम्” इत्यादौ पूर्वमुक्तमिति भावः । तथैव चौक्तं ताभिरेव (भा० १०।२१।१५) “नद्य स्तदा तदुपधार्य्यमुकुन्दगीत, - मावर्त्तललित मनोभव भग्नवेगाः” इत्यादि, यद्वा, श्रीपट्टमहिषीभिरपि (भा० १०।६०।१५) “कुररि विलपसि त्वम्” इत्यादि । अत्र न-

है । अतएव मृत्यु भय से निष्कृति लाभ हेतु श्रीमुकुन्द के चरण कमल का भजन करना अवश्य कर्त्तव्य है । इस रीति से प्रतीत होता है कि-उत्तम भागवत वृन्द सब को श्रीविष्णु के पदाश्रित रूप में ही अनुभव करते हैं । वे निज हृदयस्थ भाव का अनुभव एवं निजाभीष्ट श्रीभगवदाधिर्भाव का अनुभव सर्वत्र करते हैं- इस का दृष्टान्त भा० १० ३५६ में वर्णित श्रीव्रजदेवीवृन्द की भक्ति के द्वारा प्रस्तुत करते हैं ।

"

वनलतास्तरव आत्मनि विष्णु व्यञ्जयन्त इव पुष्पफलाढ्याः ॥”

सखि गण ! देखो, वनस्थ लता एवं तरु वृन्द निज हृदय में श्रीकृष्ण को विष्णु रूप में अर्थात् सर्व हृदयान्तर्य्यामि रूप में प्राप्त कर रहे हैं। लता एवं तरुवृन्द पुष्प एवं फल से परिपूर्ण हैं । जिस प्रकार विष्णु भक्त गण हृदय में निज प्रभु श्रीविष्णु को प्राप्त कर भाव कुसुम एवं प्रेमफल से हृदय पूर्ण होने के कारण प्रेमाश्रु

वर्षण करते हैं । लतातरु वृन्द को भी हृद्गत भावचेष्टा बाहर प्रकट हो रही है। इस से प्रतिपन्न हुआ है कि- उत्तम भागवत वृन्द- चेतन अचेतन समस्त भूतों में निजाभीष्ट भगवान् का आविर्भाव अनुभव करते हैं । उक्त श्लोक के चतुर्थ प्रकार अर्थ को कहते हैं- श्रीभगवान् में जिस जातीय निज भाव है, चेतन अचेतन सर्वभूत में भगवद् भक्त उस भाव की सत्ता उपलब्ध करते हैं । भा० ११।२।४१ “खं वायुमग्निम्’ में जो विवरण कहा गया है-अर्थात् चेतनाचेतन सर्वभूत में भगवदधिष्ठान की जो कथा कही गई है। इस में भगवदधिष्ठान बुद्धि से भक्ति का उदय होने के कारण सब को प्रणाम करते हैं। श्रीभगवान् में निज जिस जातीय भाव है, उस भाव की ही सत्ता की उपलब्धि सर्वभूत में करते हैं-भा० १०।२१।१५ मैं व्रज देवी की उक्ति - उसका दृष्टान्त है-

“नद्यस्तदा तदुपधार्य्य मुकुन्दगीत, -मावर्त्तलक्षितमनोभवभग्नवेगाः " ।

पुर्वानुराग प्रसङ्ग में व्रज देवी गण सखी को कही थीं- देखों ! श्रीकालिन्दी, मानसी गङ्गा प्रभृति नदी गण - मुकुन्द की वेणु ध्वनि सुनकर हृदय में मन्मथोदय होने के कारण निज पति के प्रति गमनरुद्ध होने से वह भाव जलावर्त रूप में प्रकटित हो रहा है। इस से सुस्पष्ट प्रतीत होता है कि - नदी वृन्द ने मुकुन्द के प्रति कान्ताभाव को प्राप्त किया है । अथवा भा० १०/६०।१५ में श्रीपट्टमहिषी वृन्द

की उक्ति यह

है ।

‘कुररि विलपसि त्वम्”

हे कुररि ! तुम विलाप कर रही हो ? इस रात में तुम्हें नींद नहीं आती है ? तुम क्यों नहीं सो रही हो ? पट्टमहिषी वृन्द द्वारकास्थ भवन में श्रीमुकुन्द के साहचर्य प्राप्त कर के भी अनुराग की चरम कक्षा में उपनीत होकर प्रेमवैचित्त्य नामक अनुभावाक्रान्त हृदय से उस प्रकार कही थीं। इस में चेतना- चेतन सर्वभूत में निज भाव की सजातीयता का अनुभव सुस्पष्ट अङ्कत हुआ है । “सर्व भूतेषु यः पश्येत्”

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ब्रह्मज्ञान्यभिधीयते, भागवतैस्तज्ज्ञानस्य तद्द फलस्य च हेयत्वेन जीव-भगवद्विभागाभावेन च भागवतत्वविरोधात्, (भा० ३।२६१२) “अहैतुक्यव्यवहिता” इत्यादिकात्यन्तिक भक्ति- लक्षणानुसारेण सुतरामुत्तमत्वविरोधाच्च । न च निराकारेश्वर ज्ञानन (भा० ११।२ ५५ ) " प्रणय- रशनया धृताङ्घ्रिपद्मः” इत्युपसंहारगत-लक्षणपरकाष्ठाविरोधादेवेति विवेचनीयम् ॥